HI/Prabhupada 0438 - गोबर और उसे जला कर राख करके, दंत मंजन के रूप में प्रयोग किया जाता है: Difference between revisions

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आयुर-वेद में, सूखा गोबर और उसे जला कर राख करके, दंत मंजन के रूप में प्रयोग किया जाता है यह बहुत एंटीसेप्टिक दंत मंजन है । इसी तरह, कई चीजें हैं, वेदों में कई निषेध हैं, जो जाहिर तौर पर विरोधाभास के रूप में प्रकट हो सकते हैं, लेकिन वे विरोधाभास नहीं हैं । वे अनुभव पर हैं, दिव्य अनुभव पर । जैसे कि एक पिता अपने बच्चे से कहता है, कि "मेरे प्यारे बच्चे, तुम यह भोजन लो । यह बहुत अच्छा है ।" और बच्चे उसे लेता है, पिता पर विश्वास करके, अधिकारी । पिता कहता है ... बच्चा जानता है कि "मेरे पिता ..." उसे विश्वास है कि "मेरे पिता मुझे कुछ भी कभी नहीं देंगे जो जहर है।" इसलिए वह आँख बंद करके इसे स्वीकार करता है, किसी भी कारण के बिना, भोजन के किसी भी विश्लेषण के बिना, कि क्या यह शुद्ध या अशुद्ध है । तुम्हे इस तरह से विश्वास करना होगा । तुम एक होटल में जाते हो क्योंकि उसे सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त है । तुम्हे यह विश्वास करना होगा कि जब तुम वहाँ खाद्य पदार्थों खाअोगे तो वह शुद्ध है, अच्छा है, या यह एंटीसेप्टिक है, या यह है ... लेकिन तुम यह कैसे जानते हैं? प्राधिकरण से । क्योंकि यह होटल सरकार द्वारा अधिकृत है, उसे लाइसेंस मिला है, इसलिए तुम विश्वास करते हो । इसी तरह से शब्द-प्रमाण का मतलब जैसे ही सबूत मिले, वैदिक साहित्य में, "यह यह है," तुम्हे स्वीकार करना होगा । बस । फिर तुम्हारा ज्ञान सही है, क्योंकि तुम सही स्रोत से बातें स्वीकार कर रहे हो । इसी प्रकार श्री कृष्ण, कृष्ण को देवत्व के परम व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता है । जो भी वे कहते हैं , यह सब ठीक है । स्वीकार करें । अर्जुन नें अाखिर में कहा, सर्वम एतद ऋतम मन्ये ([[Vanisource:BG 10.14|भ गी १०।१४]]) । "मेरे प्यारे कृष्ण, जो भी अाप कहोगे, मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।" यह हमारा सिद्धांत होना चाहिए । क्यों हमें शोध के बारे में चिंता करनी चाहिए, जब सबूत प्राधिकारी से मिला हुअा है? तो समय बचाने के लिए, मुसीबत से बचाने के लिए एक प्राधिकरण को स्वीकार करना चाहिए, वास्तविक प्राधिकरण । यही वैदिक प्रक्रिया है । और इसलिए वेद कहता है, तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभीगच्छेत ( मु उ १।२।१२)
आयुर्वेद में, सूखा गोबर और उसे जला कर राख करके, दंत मंजन के रूप में प्रयोग किया जाता है | यह बहुत अच्छा एंटीसेप्टिक दंत मंजन है । इसी तरह, कई चीजें हैं, वेदों में कई विधान हैं, जो जाहिर तौर पर विरोधाभास के रूप में प्रकट हो सकते हैं, लेकिन वे विरोधाभास नहीं हैं । वे अनुभव पर हैं, दिव्य अनुभव पर । जैसे कि एक पिता अपने बच्चे से कहता है, कि "मेरे प्यारे बच्चे, तुम यह भोजन लो । यह बहुत अच्छा है ।" और बच्चे उसे लेता है, पिता पर विश्वास करके, अधिकारी । पिता कहता है ... बच्चा जानता है कि "मेरे पिता ..." उसे विश्वास है कि "मेरे पिता मुझे कुछ भी कभी नहीं देंगे जो जहर है।" इसलिए वह आँख बंद करके इसे स्वीकार करता है, किसी भी कारण के बिना, भोजन के किसी भी विश्लेषण के बिना, कि क्या यह शुद्ध या अशुद्ध है । तुम्हे इस तरह से विश्वास करना होगा ।  
 
तुम एक होटल में जाते हो क्योंकि उसे सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त है । तुम्हे यह विश्वास करना होगा कि जब तुम वहाँ खाद्य पदार्थों खाअोगे तो वह शुद्ध है, अच्छा है, या यह एंटीसेप्टिक है, या यह है   ... लेकिन तुम यह कैसे जानते हैं? प्राधिकरण से । क्योंकि यह होटल सरकार द्वारा अधिकृत है, उसे लाइसेंस मिला है, इसलिए तुम विश्वास करते हो । इसी तरह से शब्द-प्रमाण का मतलब जैसे ही सबूत मिले, वैदिक साहित्य में, "यह यह है," तुम्हे स्वीकार करना होगा । बस । फिर तुम्हारा ज्ञान सही है, क्योंकि तुम सही स्रोत से बातें स्वीकार कर रहे हो । इसी प्रकार श्री कृष्ण, कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में स्वीकार किया जाता है । जो भी वे कहते हैं, यह सब ठीक है । स्वीकार करें । अर्जुन नें अाखिर में कहा, सर्वम एतद ऋतम मन्ये (.गी. १०.१४) । "मेरे प्यारे कृष्ण, जो भी अाप कहोगे, मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।" यह हमारा सिद्धांत होना चाहिए । क्यों हमें शोध के बारे में चिंता करनी चाहिए, जब सबूत प्राधिकारी से मिला हुअा है? तो समय बचाने के लिए, मुसीबत से बचने के लिए एक अधिकारी को स्वीकार करना चाहिए, वास्तविक अधिकारी । यही वैदिक प्रक्रिया है । और इसलिए वेद कहता है, तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभीगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) |
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Latest revision as of 17:27, 10 October 2018



Lecture on BG 2.8-12 -- Los Angeles, November 27, 1968

आयुर्वेद में, सूखा गोबर और उसे जला कर राख करके, दंत मंजन के रूप में प्रयोग किया जाता है | यह बहुत अच्छा एंटीसेप्टिक दंत मंजन है । इसी तरह, कई चीजें हैं, वेदों में कई विधान हैं, जो जाहिर तौर पर विरोधाभास के रूप में प्रकट हो सकते हैं, लेकिन वे विरोधाभास नहीं हैं । वे अनुभव पर हैं, दिव्य अनुभव पर । जैसे कि एक पिता अपने बच्चे से कहता है, कि "मेरे प्यारे बच्चे, तुम यह भोजन लो । यह बहुत अच्छा है ।" और बच्चे उसे लेता है, पिता पर विश्वास करके, अधिकारी । पिता कहता है ... बच्चा जानता है कि "मेरे पिता ..." उसे विश्वास है कि "मेरे पिता मुझे कुछ भी कभी नहीं देंगे जो जहर है।" इसलिए वह आँख बंद करके इसे स्वीकार करता है, किसी भी कारण के बिना, भोजन के किसी भी विश्लेषण के बिना, कि क्या यह शुद्ध या अशुद्ध है । तुम्हे इस तरह से विश्वास करना होगा ।

तुम एक होटल में जाते हो क्योंकि उसे सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त है । तुम्हे यह विश्वास करना होगा कि जब तुम वहाँ खाद्य पदार्थों खाअोगे तो वह शुद्ध है, अच्छा है, या यह एंटीसेप्टिक है, या यह है ... लेकिन तुम यह कैसे जानते हैं? प्राधिकरण से । क्योंकि यह होटल सरकार द्वारा अधिकृत है, उसे लाइसेंस मिला है, इसलिए तुम विश्वास करते हो । इसी तरह से शब्द-प्रमाण का मतलब जैसे ही सबूत मिले, वैदिक साहित्य में, "यह यह है," तुम्हे स्वीकार करना होगा । बस । फिर तुम्हारा ज्ञान सही है, क्योंकि तुम सही स्रोत से बातें स्वीकार कर रहे हो । इसी प्रकार श्री कृष्ण, कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में स्वीकार किया जाता है । जो भी वे कहते हैं, यह सब ठीक है । स्वीकार करें । अर्जुन नें अाखिर में कहा, सर्वम एतद ऋतम मन्ये (भ.गी. १०.१४) । "मेरे प्यारे कृष्ण, जो भी अाप कहोगे, मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।" यह हमारा सिद्धांत होना चाहिए । क्यों हमें शोध के बारे में चिंता करनी चाहिए, जब सबूत प्राधिकारी से मिला हुअा है? तो समय बचाने के लिए, मुसीबत से बचने के लिए एक अधिकारी को स्वीकार करना चाहिए, वास्तविक अधिकारी । यही वैदिक प्रक्रिया है । और इसलिए वेद कहता है, तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभीगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) |