HI/Prabhupada 0439 - मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया: Difference between revisions

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तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत (मु उ १।२।१२) तद विज्ञानार्थम, उस दिव्य विज्ञान को सीखने के लिए, हमें गुरु स्वीकार करना होगा । गुरुम एव, निश्चित रूप से, हमें करना होगा । अन्यथा कोई संभावना नहीं है । इसलिए कृष्ण यहाँ स्वीकार किए जाते हैं अर्जुन के आध्यात्मिक गुरु के रूप में, और आध्यात्मिक गुरु के रूप में, या पिता, या शिक्षक, को अपने बेटे या शिष्य को दंड देना का अधिकार है ... एक बेटा असंतुष्ट नहीं होता है जब पिता ड़ाटते हैं । यही हर जगह शिष्टाचार है । यहां तक ​​कि पिता कभी कभी हिंसक होता है, बच्चा या बेटा बर्दाश्त करता है । एक विशिष्ट उदाहरण प्रहलाद महाराज हैं । मासूम बच्चा, कृष्ण भावनामृत बच्चा, लेकिन पिता तड़पाता है । वे कभी कुछ नहीं कहते हैं । "ठीक है ।" इसी प्रकार श्री कृष्ण, आध्यात्मिक गुरु की स्थिति लेने के तुरन्त बाद, एक भव्य मूर्ख के रूप में अर्जुन को निर्दिष्ट करते हैं । जैसे चैतन्य महाप्रभु नें भी कहा कि "मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया ([[Vanisource:CC Adi 7.71|चै च अादि ७।७१]]) ।" क्या चैतन्य महाप्रभु एक मूर्ख थे? और क्या यह संभव हो सकता है कि कोई चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक गुरु बन सकते हैं ? दोनों बातें असंभव हैं । चैतन्य महाप्रभु, यहां तक ​​कि कृष्ण के अवतार के रूप में उन्हे अस्वीकार करना, अगर तुम उन्हे साधारण विद्वान या आदमी के रूप में स्वीकार करते हो, तो उनकी छात्रवृत्ति की कोई तुलना नहीं थी । लेकिन उन्होंने कहा, "मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया । " क्या मतलब है इसका? कि "एक व्यक्ति, यहां तक ​​कि मेरी स्थिति में, हमेशा अपने आध्यात्मिक गुरु के सामने एक मूर्ख बना रहता है । यह उसके लिए अच्छा है ।" कोई भी न थोपे "तुम क्या जानते हो? मैं तुम से बेहतर जानता हूँ ।" यह स्थिति से इनकार नहीं है । और दूसरी बात, शिष्य के दृष्टि से, क्यों उसे एक व्यक्ति के सामने हमेशा एक मूर्ख बने रहना चाहिए? जब तक वह वास्तव में अधिकृत नहीं है, वास्तव में इतना महान कि वह एक मूर्ख के रूप में मुझे सिखा सकता है । हमें एक आध्यात्मिक गुरु का इस तरह से चयन करना चाहिए और जैसे ही आध्यात्मिक गुरु का चयन होता है, हमें मूर्ख बने रेहना चाहिए, हालांकि, वह एक मूर्ख नहीं है, लेकिन बेहतर स्थिति ऐसी है । तो अर्जुन, बजाय दोस्त और दोस्त के स्तर पर रहने के स्वेच्छा से कृष्ण के सामने एक मूर्ख बने रहना स्वीकारना । और कृष्ण इसे स्वीकार कर रहे हैं, "तुम मूर्ख हो । " तुम एक विद्वान व्यक्ति की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम एक मूर्ख हो, क्योंकि तुम उस बात पर विलाप कर रहे हो जिसपर कोई सीखा आदमी अफसोस नहीं करता है ।" मतलब "एक मूर्ख अफसोस करता है," कि "तुम मूर्ख हो । इसलिए तुम एक मूर्ख हो ।" घुमा फिरा के ... जैसे तर्क में क्या कहा जाता है? कोष्टक? या ऐसा कुछ, कहा जाता ह । हाँ, अगर मैं कहता हूँ कि, "तुम उस व्यक्ति की तरह हो जिसने मेरी घड़ी चुराई।" मतलब कि "तुम एक चोर की तरह लगते हो ।" इसी तरह, कृष्ण, घमा फिरा के, कहते हैं कि, "मेरे प्यारे अर्जुन, तुम सिर्फ सीखे आदमी की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम उस विषय पर विलाप कर रहे हो जिसपर कोई विद्वान आदमी अफसोस नही करता है ।"
तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) | तद विज्ञानार्थम, उस दिव्य विज्ञान को सीखने के लिए, हमें गुरु स्वीकार करना होगा । गुरुम एव, निश्चित रूप से, हमें करना होगा । अन्यथा कोई संभावना नहीं है । इसलिए कृष्ण यहाँ स्वीकार किए जाते हैं अर्जुन के आध्यात्मिक गुरु के रूप में, और आध्यात्मिक गुरु के रूप में, या पिता, या शिक्षक, को अपने बेटे या शिष्य को दंड देना का अधिकार है ... एक बेटा असंतुष्ट नहीं होता है जब पिता ड़ाटते हैं । यही हर जगह शिष्टाचार है । यहां तक ​​कि पिता कभी कभी हिंसक होता है, बच्चा या बेटा बर्दाश्त करता है । एक विशिष्ट उदाहरण प्रहलाद महाराज हैं । मासूम बच्चा, कृष्ण भावनाभावित बच्चा, लेकिन पिता तड़पाता है । वे कभी कुछ नहीं कहते हैं । "ठीक है ।" इसी प्रकार श्री कृष्ण, आध्यात्मिक गुरु की स्थिति लेने के तुरन्त बाद, एक महामूर्ख के रूप में अर्जुन को निर्दिष्ट करते हैं । जैसे चैतन्य महाप्रभु नें भी कहा कि "मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया ([[Vanisource:CC Adi 7.71|चैतन्य चरितामृत अादि ७.७१]]) ।" क्या चैतन्य महाप्रभु एक मूर्ख थे? और क्या यह संभव हो सकता है कि कोई चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक गुरु बन सकते हैं ? दोनों बातें असंभव हैं ।  
 
चैतन्य महाप्रभु, यहां तक ​​कि कृष्ण के अवतार के रूप में उन्हे अस्वीकार करना, अगर तुम उन्हे साधारण विद्वान या आदमी के रूप में स्वीकार करते हो, तो उनकी विद्वता की कोई तुलना नहीं थी । लेकिन उन्होंने कहा, "मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया । "क्या मतलब है इसका? कि "एक व्यक्ति, यहां तक ​​कि मेरी स्थिति में, हमेशा अपने आध्यात्मिक गुरु के सामने एक मूर्ख बना रहता है । यह उसके लिए अच्छा है ।" किसीको भी थोपना नहीं चाहिए की "तुम क्या जानते हो? मैं तुम से बेहतर जानता हूँ ।" यह स्थिति से इनकार नहीं है । और दूसरी बात, शिष्य के दृष्टि से, क्यों उसे एक व्यक्ति के सामने हमेशा एक मूर्ख बने रहना चाहिए? जब तक वह वास्तव में अधिकृत नहीं है, वास्तव में इतना महान कि वह एक मूर्ख के रूप में मुझे सिखा सकता है । हमें एक आध्यात्मिक गुरु का इस तरह से चयन करना चाहिए और जैसे ही आध्यात्मिक गुरु का चयन होता है, हमें मूर्ख बने रेहना चाहिए, हालांकि, वह एक मूर्ख नहीं है, लेकिन बेहतर स्थिति ऐसी है ।  
 
तो अर्जुनने, बजाय दोस्त और दोस्त के स्तर पर रहने के, स्वेच्छा से कृष्ण के सामने एक मूर्ख बने रहना स्वीकार किया । और कृष्ण इसे स्वीकार कर रहे हैं, "तुम मूर्ख हो । " तुम एक विद्वान व्यक्ति की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम एक मूर्ख हो, क्योंकि तुम उस बात पर विलाप कर रहे हो जिसपर कोई शिक्षित व्यक्ति अफसोस नहीं करता है ।" मतलब "एक मूर्ख अफसोस करता है," कि "तुम मूर्ख हो । इसलिए तुम एक मूर्ख हो ।" घुमा फिरा के ... जैसे तर्क में क्या कहा जाता है? कोष्टक? या ऐसा कुछ, कहा जाता ह । हाँ, अगर मैं कहता हूँ कि, "तुम उस व्यक्ति की तरह हो जिसने मेरी घड़ी चुराई," मतलब कि "तुम एक चोर की तरह लगते हो ।" इसी तरह, कृष्ण, घुमा फिरा के, कहते हैं कि, "मेरे प्यारे अर्जुन, तुम सिर्फ शिक्षित व्यक्ति की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम उस विषय पर विलाप कर रहे हो जिसपर कोई विद्वान आदमी अफसोस नही करता है ।"  
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Latest revision as of 17:28, 10 October 2018



Lecture on BG 2.8-12 -- Los Angeles, November 27, 1968

तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) | तद विज्ञानार्थम, उस दिव्य विज्ञान को सीखने के लिए, हमें गुरु स्वीकार करना होगा । गुरुम एव, निश्चित रूप से, हमें करना होगा । अन्यथा कोई संभावना नहीं है । इसलिए कृष्ण यहाँ स्वीकार किए जाते हैं अर्जुन के आध्यात्मिक गुरु के रूप में, और आध्यात्मिक गुरु के रूप में, या पिता, या शिक्षक, को अपने बेटे या शिष्य को दंड देना का अधिकार है ... एक बेटा असंतुष्ट नहीं होता है जब पिता ड़ाटते हैं । यही हर जगह शिष्टाचार है । यहां तक ​​कि पिता कभी कभी हिंसक होता है, बच्चा या बेटा बर्दाश्त करता है । एक विशिष्ट उदाहरण प्रहलाद महाराज हैं । मासूम बच्चा, कृष्ण भावनाभावित बच्चा, लेकिन पिता तड़पाता है । वे कभी कुछ नहीं कहते हैं । "ठीक है ।" इसी प्रकार श्री कृष्ण, आध्यात्मिक गुरु की स्थिति लेने के तुरन्त बाद, एक महामूर्ख के रूप में अर्जुन को निर्दिष्ट करते हैं । जैसे चैतन्य महाप्रभु नें भी कहा कि "मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया (चैतन्य चरितामृत अादि ७.७१) ।" क्या चैतन्य महाप्रभु एक मूर्ख थे? और क्या यह संभव हो सकता है कि कोई चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक गुरु बन सकते हैं ? दोनों बातें असंभव हैं ।

चैतन्य महाप्रभु, यहां तक ​​कि कृष्ण के अवतार के रूप में उन्हे अस्वीकार करना, अगर तुम उन्हे साधारण विद्वान या आदमी के रूप में स्वीकार करते हो, तो उनकी विद्वता की कोई तुलना नहीं थी । लेकिन उन्होंने कहा, "मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया । "क्या मतलब है इसका? कि "एक व्यक्ति, यहां तक ​​कि मेरी स्थिति में, हमेशा अपने आध्यात्मिक गुरु के सामने एक मूर्ख बना रहता है । यह उसके लिए अच्छा है ।" किसीको भी थोपना नहीं चाहिए की "तुम क्या जानते हो? मैं तुम से बेहतर जानता हूँ ।" यह स्थिति से इनकार नहीं है । और दूसरी बात, शिष्य के दृष्टि से, क्यों उसे एक व्यक्ति के सामने हमेशा एक मूर्ख बने रहना चाहिए? जब तक वह वास्तव में अधिकृत नहीं है, वास्तव में इतना महान कि वह एक मूर्ख के रूप में मुझे सिखा सकता है । हमें एक आध्यात्मिक गुरु का इस तरह से चयन करना चाहिए और जैसे ही आध्यात्मिक गुरु का चयन होता है, हमें मूर्ख बने रेहना चाहिए, हालांकि, वह एक मूर्ख नहीं है, लेकिन बेहतर स्थिति ऐसी है ।

तो अर्जुनने, बजाय दोस्त और दोस्त के स्तर पर रहने के, स्वेच्छा से कृष्ण के सामने एक मूर्ख बने रहना स्वीकार किया । और कृष्ण इसे स्वीकार कर रहे हैं, "तुम मूर्ख हो । " तुम एक विद्वान व्यक्ति की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम एक मूर्ख हो, क्योंकि तुम उस बात पर विलाप कर रहे हो जिसपर कोई शिक्षित व्यक्ति अफसोस नहीं करता है ।" मतलब "एक मूर्ख अफसोस करता है," कि "तुम मूर्ख हो । इसलिए तुम एक मूर्ख हो ।" घुमा फिरा के ... जैसे तर्क में क्या कहा जाता है? कोष्टक? या ऐसा कुछ, कहा जाता ह । हाँ, अगर मैं कहता हूँ कि, "तुम उस व्यक्ति की तरह हो जिसने मेरी घड़ी चुराई," मतलब कि "तुम एक चोर की तरह लगते हो ।" इसी तरह, कृष्ण, घुमा फिरा के, कहते हैं कि, "मेरे प्यारे अर्जुन, तुम सिर्फ शिक्षित व्यक्ति की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम उस विषय पर विलाप कर रहे हो जिसपर कोई विद्वान आदमी अफसोस नही करता है ।"