HI/Prabhupada 0475 - हम कांप जाते हैं जैसे ही हम सुनते हैं कि हमें परमेश्वर का दास बनना है: Difference between revisions

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हम परम नहीं बन सकते हैं । कम से कम, अधिकृत वैदिक साहित्य में हमें यह नहीं मिलता है, कि एक जीव भगवान की तरह शक्तिशाली बन सकता है । नहीं, यह संभव नहीं है । ईश्वर महान हैं । वह हमेशा महान हैं । अगर तुम भौतिक चंगुल से मुक्त भी हो जाअो, फिर भी वे महान हैं । यानी कि ... इसलिए यह श्लोक, गोविन्दम आदि-पुरुषम तम अहम् भजामि । भगवान के साथ हमारा शाश्वत रिश्ता है, उनकी पूजा करना, या उनकी सेवा करना । यह सेवा बहुत ही सुखद है । यह मत लो ... जैसे ही हम सेवा की बात करते हैं, हमें सोच सकते हैं "ओह, हम सेवा अपनाकर यहां पीड़ित हैं ।" वैसे ही जैसे उस शाम एक लड़का पूछताछ कर रहा था , "क्यों हमें झुकना चाहिए?" मैं नहीं जानता कि वह यहां मौजूद है कि नहीं । किसी को आत्मसमर्पण करना, झकना, बुरी बात नहीं है, लेकिन क्योंकि हम एक अलग स्थिति में हैं अन्य को समर्पण करके, यह बहुत असुविधाजनक है । वैसे ही जैसे कोई भी अन्य देश पर निर्भर नहीं होना चाहता है, कोई भी अन्य लोगों पर निर्भर नहीं होना चाहता है । हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, क्योंकि यह भौतिक संसार आध्यात्मिक दुनिया का विकृत प्रतिबिंब है । लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में जितना तुम आत्मसमर्पण करते हो, जितना अधिक तुम नौकर बनते हो, तुम खुश हो । तुम खुश हो । लेकिन वर्तमान समय में हमें ऐसी कोई समझ नहीं है । हमें कोई आध्यात्मिक विचार नहीं है, कोई आध्यात्मिक अहसास नहीं है; इसलिए हम कांप जाते हैं जैसे ही हम सुनते हैं कि हमें परमेश्वर का दास बनना है । लेकिन कंपन का कोई सवाल नहीं है । भगवान का सेवक बनना बहुत ही सुखद बात है । तुम इतने सारे सुधारकों को देखते हैं, वे आए, उन्होंने भगवान के मिशन में सेवा की, और अभी भी उनकी पूजा की जाती है । इसलिए भगवान का नौकर बनना, भगवान का सेवक, बहुत तुच्छ बात नहीं है । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है । गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम् भजामि । लेकिन यह स्वीकार मत करो । सबसे पहले समझने की कोशिश करो । इसलिए वेदांत सूत्र कहता है, अथातो ब्रह्मा जिज्ञासा ब्रह्म क्या है यह समझने की कोशिश करो । क्यों यह ध्वनि है? (माइक्रोफोन ध्वनि करता है)? ब्रह्म क्या है यह समझने की कोशिश करो और अपने रिश्ते को समझने की कोशिश करो । और फिर, जब तुम वास्तव में आत्मसमर्पण करते हो, तुम्हे महसूस होगा ज्ञान से भरा तुम्हारा अनन्त आनंदमय जीवन । और यह बहुत अच्छी तरह से भगवान चैतन्य की शिक्षाओं में समझाया गया है । भगवद गीता में भी, एक ही शिक्षण वहाँ है, लेकिन ... हमारी दो पुस्तकें पहले से ही प्रकाशित हैं , एक, भगवद गीता यथार्थ; एक और किताब, भगवान चैतन्य की शिक्षाऍ । तो भगवद गीता समर्पण की प्रक्रिया सिखाता है । सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) "तुम मुझे पर्यत आत्मसमर्पण करो" भगवान कहते हैं । और प्रभु की शिक्षा, चैतन्य महाप्रभु का शिक्षण, है कैसे आत्मसमर्पण करना चाहिए । क्योंकि हम आदी हो गए हैं, हमारे वर्तमान सशर्त जीवन में आत्मसमर्पण के खिलाफ विद्रोह करने के लिए । इतने सारे दल हैं, इतने सारे "वाद" हैं और मुख्य सिद्धांत हैं "मैं क्यों आत्मसमर्पण करूँ ?" यही मुख्य रोग है । जो भी राजनीतिक दल है, जैसे कम्युनिस्ट पार्टी की तरह, ... उनका विद्रोह उन उच्चाधिकारीयों के खिलाफ है जिसे वे पूंजीपति कहते हैं । "क्यों हम करेंगे ..." हर जगह एक ही बात है "मैं क्यों आत्मसमर्पण करूँ?" लेकिन हमें आत्मसमर्पण करना होगा । यही हमारी संवैधानिक स्थिति है । अगर मैं आत्मसमर्पण नहीं करता हूँ कुछ विशेष व्यक्ति या विशेष सरकार को या विशेष समुदाय या समाज या कुछ और, लेकिन अंत में मैं आत्मसमर्पित हूँ । मैं प्रकृति के नियमों के समक्ष आत्मसमर्पित हूँ । कोई स्वतंत्रता नहीं है । मुझे आत्मसमर्पण करना होगा । जब मौत के क्रूर हाथों का बुलावा अाएगा, तुरंत मुझे आत्मसमर्पण करना होगा । इतनी सारी चीजें हैं । इसलिए हमें समझना चाहिए ... यही ब्रह्म जिज्ञासा है "क्यों समर्पण की प्रक्रिया है?" अगर मैं आत्मसमर्पण करना पसंद नहीं करता, तो मैं आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर क्यों किया जाता हूँ । उस स्थिति में भी, अगर मैं राज्य के कानूनों का पालन नहीं करता हूँ, फिर राज्य मुझे पुलिस बल द्वारा आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य करता है, सैन्य बल से, बहुत सी बातें से । इसी तरह, मैं मरना नहीं चाहता हूँ, लेकिन मौत आत्मसमर्पण करने के लिए मुझे मजबूर करता है । मैं बूढ़ा आदमी बनना नहीं चाहता, लेकिन प्रकृति बूढा बनने के लिए मुझे मजबूर करती है । मैं कोई भी बीमारी नहीं चाहता, लेकिन प्रकृति मुझे मजबूर करती है बीमारी का कोई रूप स्वीकार करने के लिए । तो यह आत्मसमर्पण की प्रक्रिया तो है । अब हमें ऐसा क्यों है यह समझना होगा । इसका मतलब है कि मेरी संवैधानिक स्थिति आत्मसमर्पण करने की है, लेकिन वर्तमान कठिनाई यह है कि मैं एक गलत व्यक्ति को समर्पण कर रहा हूँ । जब हम समझ जात है कि मुझे परम भगवान को आत्मसमर्पण करना चाहिए, तब मेरी संवैधानिक स्थिति पुनर्जीवित हो जाती है । वह मेरी स्वतंत्रता है ।
हम सर्वोच्च नहीं बन सकते हैं । कम से कम, अधिकृत वैदिक साहित्य में हमें यह नहीं मिलता है, कि एक जीव भगवान की तरह शक्तिशाली बन सकता है । नहीं, यह संभव नहीं है । ईश्वर महान हैं । वह हमेशा महान हैं । अगर तुम भौतिक चंगुल से मुक्त भी हो जाअो, फिर भी वे महान हैं । यानी कि ... इसलिए यह श्लोक, गोविन्दम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि ।  
 
भगवान के साथ हमारा शाश्वत रिश्ता है, उनकी पूजा करना, या उनकी सेवा करना । यह सेवा बहुत ही सुखद है । यह मत लो ... जैसे ही हम सेवा की बात करते हैं, हमें सोच सकते हैं "ओह, हम सेवा अपनाकर यहां पीड़ित हैं ।" वैसे ही जैसे उस शाम एक लड़का पूछताछ कर रहा था, "क्यों हमें झुकना चाहिए?" मैं नहीं जानता कि वो लड़का यहां मौजूद है की नहीं । किसी को आत्मसमर्पण करना, झुकना, बुरी बात नहीं है, लेकिन क्योंकि हम एक अलग स्थिति में हैं, अन्य को समर्पण करके, यह बहुत असुविधाजनक है । वैसे ही जैसे कोई भी अन्य देश पर निर्भर नहीं होना चाहता है, कोई भी अन्य लोगों पर निर्भर नहीं होना चाहता है । हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, क्योंकि यह भौतिक संसार आध्यात्मिक दुनिया का विकृत प्रतिबिंब है ।  
 
लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में जितना तुम आत्मसमर्पण करते हो, जितना अधिक तुम सेवक बनते हो, तुम खुश हो । तुम खुश हो । लेकिन वर्तमान समय में हमें ऐसी कोई समझ नहीं है । हमें कोई आध्यात्मिक विचार नहीं है, कोई आध्यात्मिक अहसास नहीं है; इसलिए हम कांप जाते हैं जैसे ही हम सुनते हैं कि हमें परमेश्वर का दास बनना है । लेकिन कंपन का कोई सवाल नहीं है । भगवान का सेवक बनना बहुत ही सुखद बात है । तुम इतने सारे सुधारकों को देखते हैं, वे आए, उन्होंने भगवान के मिशन में सेवा की, और अभी भी उनकी पूजा की जाती है । इसलिए भगवान का नौकर बनना, भगवान का सेवक, बहुत तुच्छ बात नहीं है । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है ।  
 
गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि । लेकिन यह स्वीकार मत करो । सबसे पहले समझने की कोशिश करो । इसलिए वेदांत सूत्र कहता है, अथातो ब्रह्मा जिज्ञासा | ब्रह्म क्या है यह समझने की कोशिश करो । (माइक्रोफोन ध्वनि करता है) क्यों यह ध्वनि है? ब्रह्म क्या है यह समझने की कोशिश करो और अपने रिश्ते को समझने की कोशिश करो । और फिर, जब तुम वास्तव में आत्मसमर्पण करते हो, तुम्हे ज्ञान से भरा तुम्हारा अनन्त आनंदमय जीवन महसूस होगा । और यह बहुत अच्छी तरह से भगवान चैतन्य की शिक्षाओं में समझाया गया है ।  
 
भगवद गीता में भी, एक ही शिक्षण वहाँ है, लेकिन ... हमारी दो पुस्तकें पहले से ही प्रकाशित हैं, एक, भगवद गीता यथार्थ; एक और किताब, भगवान चैतन्य की शिक्षाऍ । तो भगवद गीता समर्पण की प्रक्रिया सिखाता है । सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) | "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो," भगवान कहते हैं । और प्रभु की शिक्षा, चैतन्य महाप्रभु का शिक्षण, है कैसे आत्मसमर्पण करना चाहिए । क्योंकि हम आदी हो गए हैं, हमारे वर्तमान बद्ध जीवन में आत्मसमर्पण के खिलाफ विद्रोह करने के लिए ।  
 
इतने सारे दल हैं, इतने सारे "वाद" हैं, और मुख्य सिद्धांत हैं "मैं क्यों आत्मसमर्पण करूँ ?" यही मुख्य रोग है । जो भी राजनीतिक दल है, जैसे कम्युनिस्ट पार्टी की तरह, ... उनका विद्रोह उन उच्चाधिकारीयों के खिलाफ है जिसे वे पूंजीपति कहते हैं । "क्यों हम करेंगे ..." हर जगह एक ही बात है "मैं क्यों आत्मसमर्पण करूँ?" लेकिन हमें आत्मसमर्पण करना होगा । यही हमारी संवैधानिक स्थिति है । अगर मैं आत्मसमर्पण नहीं करता हूँ कुछ विशेष व्यक्ति या विशेष सरकार को, या विशेष समुदाय या समाज या कुछ और, लेकिन अंत में मैं आत्मसमर्पित हूँ । मैं प्रकृति के नियमों के समक्ष आत्मसमर्पित हूँ । कोई स्वतंत्रता नहीं है । मुझे आत्मसमर्पण करना होगा । जब मौत के क्रूर हाथों का बुलावा अाएगा, तुरंत मुझे आत्मसमर्पण करना होगा । इतनी सारी चीजें हैं ।  
 
इसलिए हमें समझना चाहिए... यही ब्रह्म जिज्ञासा है, की "क्यों समर्पण की प्रक्रिया है?" अगर मैं आत्मसमर्पण करना पसंद नहीं करता, तो मैं आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर क्यों किया जाता हूँ । उस स्थिति में भी, अगर मैं राज्य के कानूनों का पालन नहीं करता हूँ, फिर राज्य मुझे पुलिस बल द्वारा आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य करता है, सैन्य बल से, बहुत सी चीज़ो से । इसी तरह, मैं मरना नहीं चाहता हूँ, लेकिन मौत आत्मसमर्पण करने के लिए मुझे मजबूर करती है । मैं बूढ़ा आदमी बनना नहीं चाहता, लेकिन प्रकृति बूढा बनने के लिए मुझे मजबूर करती है । मैं कोई भी बीमारी नहीं चाहता, लेकिन प्रकृति मुझे मजबूर करती है बीमारी का कोई रूप स्वीकार करने के लिए ।  
 
तो यह आत्मसमर्पण की प्रक्रिया तो है । अब हमें ऐसा क्यों है यह समझना होगा । इसका मतलब है कि मेरी संवैधानिक स्थिति आत्मसमर्पण करने की है, लेकिन वर्तमान कठिनाई यह है कि मैं एक गलत व्यक्ति को समर्पण कर रहा हूँ । जब हम समझ जात है कि मुझे परम भगवान को आत्मसमर्पण करना चाहिए, तब मेरी संवैधानिक स्थिति पुनर्जीवित हो जाती है । वह मेरी स्वतंत्रता है ।  
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Latest revision as of 18:43, 17 September 2020



Lecture -- Seattle, October 7, 1968

हम सर्वोच्च नहीं बन सकते हैं । कम से कम, अधिकृत वैदिक साहित्य में हमें यह नहीं मिलता है, कि एक जीव भगवान की तरह शक्तिशाली बन सकता है । नहीं, यह संभव नहीं है । ईश्वर महान हैं । वह हमेशा महान हैं । अगर तुम भौतिक चंगुल से मुक्त भी हो जाअो, फिर भी वे महान हैं । यानी कि ... इसलिए यह श्लोक, गोविन्दम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि ।

भगवान के साथ हमारा शाश्वत रिश्ता है, उनकी पूजा करना, या उनकी सेवा करना । यह सेवा बहुत ही सुखद है । यह मत लो ... जैसे ही हम सेवा की बात करते हैं, हमें सोच सकते हैं "ओह, हम सेवा अपनाकर यहां पीड़ित हैं ।" वैसे ही जैसे उस शाम एक लड़का पूछताछ कर रहा था, "क्यों हमें झुकना चाहिए?" मैं नहीं जानता कि वो लड़का यहां मौजूद है की नहीं । किसी को आत्मसमर्पण करना, झुकना, बुरी बात नहीं है, लेकिन क्योंकि हम एक अलग स्थिति में हैं, अन्य को समर्पण करके, यह बहुत असुविधाजनक है । वैसे ही जैसे कोई भी अन्य देश पर निर्भर नहीं होना चाहता है, कोई भी अन्य लोगों पर निर्भर नहीं होना चाहता है । हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, क्योंकि यह भौतिक संसार आध्यात्मिक दुनिया का विकृत प्रतिबिंब है ।

लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में जितना तुम आत्मसमर्पण करते हो, जितना अधिक तुम सेवक बनते हो, तुम खुश हो । तुम खुश हो । लेकिन वर्तमान समय में हमें ऐसी कोई समझ नहीं है । हमें कोई आध्यात्मिक विचार नहीं है, कोई आध्यात्मिक अहसास नहीं है; इसलिए हम कांप जाते हैं जैसे ही हम सुनते हैं कि हमें परमेश्वर का दास बनना है । लेकिन कंपन का कोई सवाल नहीं है । भगवान का सेवक बनना बहुत ही सुखद बात है । तुम इतने सारे सुधारकों को देखते हैं, वे आए, उन्होंने भगवान के मिशन में सेवा की, और अभी भी उनकी पूजा की जाती है । इसलिए भगवान का नौकर बनना, भगवान का सेवक, बहुत तुच्छ बात नहीं है । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है ।

गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि । लेकिन यह स्वीकार मत करो । सबसे पहले समझने की कोशिश करो । इसलिए वेदांत सूत्र कहता है, अथातो ब्रह्मा जिज्ञासा | ब्रह्म क्या है यह समझने की कोशिश करो । (माइक्रोफोन ध्वनि करता है) क्यों यह ध्वनि है? ब्रह्म क्या है यह समझने की कोशिश करो और अपने रिश्ते को समझने की कोशिश करो । और फिर, जब तुम वास्तव में आत्मसमर्पण करते हो, तुम्हे ज्ञान से भरा तुम्हारा अनन्त आनंदमय जीवन महसूस होगा । और यह बहुत अच्छी तरह से भगवान चैतन्य की शिक्षाओं में समझाया गया है ।

भगवद गीता में भी, एक ही शिक्षण वहाँ है, लेकिन ... हमारी दो पुस्तकें पहले से ही प्रकाशित हैं, एक, भगवद गीता यथार्थ; एक और किताब, भगवान चैतन्य की शिक्षाऍ । तो भगवद गीता समर्पण की प्रक्रिया सिखाता है । सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) | "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो," भगवान कहते हैं । और प्रभु की शिक्षा, चैतन्य महाप्रभु का शिक्षण, है कैसे आत्मसमर्पण करना चाहिए । क्योंकि हम आदी हो गए हैं, हमारे वर्तमान बद्ध जीवन में आत्मसमर्पण के खिलाफ विद्रोह करने के लिए ।

इतने सारे दल हैं, इतने सारे "वाद" हैं, और मुख्य सिद्धांत हैं "मैं क्यों आत्मसमर्पण करूँ ?" यही मुख्य रोग है । जो भी राजनीतिक दल है, जैसे कम्युनिस्ट पार्टी की तरह, ... उनका विद्रोह उन उच्चाधिकारीयों के खिलाफ है जिसे वे पूंजीपति कहते हैं । "क्यों हम करेंगे ..." हर जगह एक ही बात है "मैं क्यों आत्मसमर्पण करूँ?" लेकिन हमें आत्मसमर्पण करना होगा । यही हमारी संवैधानिक स्थिति है । अगर मैं आत्मसमर्पण नहीं करता हूँ कुछ विशेष व्यक्ति या विशेष सरकार को, या विशेष समुदाय या समाज या कुछ और, लेकिन अंत में मैं आत्मसमर्पित हूँ । मैं प्रकृति के नियमों के समक्ष आत्मसमर्पित हूँ । कोई स्वतंत्रता नहीं है । मुझे आत्मसमर्पण करना होगा । जब मौत के क्रूर हाथों का बुलावा अाएगा, तुरंत मुझे आत्मसमर्पण करना होगा । इतनी सारी चीजें हैं ।

इसलिए हमें समझना चाहिए... यही ब्रह्म जिज्ञासा है, की "क्यों समर्पण की प्रक्रिया है?" अगर मैं आत्मसमर्पण करना पसंद नहीं करता, तो मैं आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर क्यों किया जाता हूँ । उस स्थिति में भी, अगर मैं राज्य के कानूनों का पालन नहीं करता हूँ, फिर राज्य मुझे पुलिस बल द्वारा आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य करता है, सैन्य बल से, बहुत सी चीज़ो से । इसी तरह, मैं मरना नहीं चाहता हूँ, लेकिन मौत आत्मसमर्पण करने के लिए मुझे मजबूर करती है । मैं बूढ़ा आदमी बनना नहीं चाहता, लेकिन प्रकृति बूढा बनने के लिए मुझे मजबूर करती है । मैं कोई भी बीमारी नहीं चाहता, लेकिन प्रकृति मुझे मजबूर करती है बीमारी का कोई रूप स्वीकार करने के लिए ।

तो यह आत्मसमर्पण की प्रक्रिया तो है । अब हमें ऐसा क्यों है यह समझना होगा । इसका मतलब है कि मेरी संवैधानिक स्थिति आत्मसमर्पण करने की है, लेकिन वर्तमान कठिनाई यह है कि मैं एक गलत व्यक्ति को समर्पण कर रहा हूँ । जब हम समझ जात है कि मुझे परम भगवान को आत्मसमर्पण करना चाहिए, तब मेरी संवैधानिक स्थिति पुनर्जीवित हो जाती है । वह मेरी स्वतंत्रता है ।