HI/Prabhupada 0491 - मेरी मर्जी के खिलाफ कई पीडाऍ हैं, कई पीडाऍ

Revision as of 14:13, 23 July 2015 by Rishab (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0491 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1974 Category:HI-Quotes - Lec...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

Lecture on BG 2.14 -- Germany, June 21, 1974

तो तुम जीवन का अध्ययन करो । इस शरीर की शुरुआत से, मां के गर्भ के भीतर, यह बस परेशानी ही है । मेरी मर्जी के खिलाफ कई पीडाऍ हैं, कई पीडाऍ । जैसे तुम बडे होते हो, संकट बढ़ते हैं, बढ़ते हैं । संकट कम नहीं होते हैं । फिर जन्म, फिर बुढ़ापा, फिर रोग । तो जब तक तुम्हे यह शरीर मिला है ... तथाकथित वैज्ञानिक, वे बहुत प्रभावी दवा का निर्माण कर रहे हैं, खोज, नई खोज । बस ..., क्या कहा जाता है? स्ट्रेप्टोमाइसिन? इतनी सारी चीजें । लेकिन वे इस बीमारी को रोक नहीं सकते । यही संभव नहीं है, श्रीमान । तुम बीमारी के इलाज के लिए कई उच्च स्तरीय दवाओं का निर्माण कर सकते हो । इससे इलाज नहीं होगा । अस्थायी राहत । लेकिन किसी वैज्ञानिक नें कोई भी दवा का खोज नहीं किया है कि "तुम इस दवा को लो और फिर कोई रोग नहीं ।" यह संभव नहीं है । "तुम इस दवा को ले लो और कोई मृत्यु नहीं ।" यह संभव नहीं है । इसलिए जो बुद्धिमान हैं, वे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, कि यह जगह दुखालयम अशाश्वतम है (भ गी ८।१५) । यह भगवद गीता में वर्णित है । यह संकट की जगह है । तो जब तक तुम यहां हो ... लेकिन हम इतने मूर्ख हैं, हम महसूस नहीं कर सकते हैं । हम स्वीकार करते हैं, "यह जीवन बहुत ही सुखद है । मुझे आनंद लेने दो ।" यह बिलकुल सुखद नहीं है, मौसम में बदलाव, हमेशा । यह संकट या वह संकट, यह बीमारी या वह बीमारी । यह असुविधाजनक बात, यह चिंता । पीडा के तीन प्रकार होते हैं : अाध्यात्मिक, अधिभौतिक, अधिदैविक । अाध्यात्मिक मतलब है इस शरीर और मन से संबंधित पीडाऍ । और अधिदैविक का मतलब है भौतिक प्रकृति द्वारा पेश की गई पीडा । प्रकृति । अचानक भूकंप अाता है । अचानक अकाल पडता है, भोजन की कमी, अत्यधिक बारिश, बारिश नहीं, अत्यधिक गर्मी, अत्यधिक सर्दी, अत्यधिक ठंड । हमें इन पीडाअों को सहना पडता है, तीन गुना । कम से कम एक, दो, होने ही चाहिए । फिर भी, हम महसूस नहीं करते हैं कि "यह जगह संकट से भरा है, क्योंकि मुझे यह भौतिक शरीर मिला है । " इसलिए एक समझदार आदमी का कर्तव्य है कैसे इस भौतिक शरीर को स्वीकार करने की प्रक्रिया को रोकें । यही बुद्धिमता है । उसे एहसास होना चाहिए कि, "मैं हमेशा पीडा में हूँ, और मैं यह शरीर नहीं हूँ, लेकिन मैं इस शरीर में डाला गया हूँ, इसलिए सही निष्कर्ष यह है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ । किसी न किसी तरह से, अगर मैं इस शरीर के बिना रह सकते हूँ, तो मेरे पीडा खत्म हो जाएगी । यह आम भावना है । यह संभव है । इसलिए कृष्ण आते हैं । इसलिए भगवान अाते हैं, तुम्हे यह जानकारी देने के लिए कि " तुम यह शरीर नहीं हो । तुम आत्मा हो, आत्मा । अौर क्योंकि तुम इस शरीर के भीतर हो, तुम इतने पीड़ित हो । " इसलिए कृष्ण सलाह देते हैं कि, "ये पीडाऍ इस शरीर की वजह से हैं ।" समझने की कोशिश करो । क्यों तुम दर्द और खुशी महसूस कर रहे हो? यह शरीर की वजह से है । इसलिए बुद्ध तत्वज्ञान भी यही है कि, तुम इस शरीर को खत्म करो, निर्वाण, निर्वाण । निर्वाण का मतलब ... उनका तत्वज्ञान है कि तुमारा दर्द और खुशी, इस शरीर की वजह से है । वे भी स्वीकार करते हैं ।