HI/Prabhupada 0494 - नेपोलियन नें मजबूत निर्मित मेहराब का निर्माण किया, लेकिन वह कहाँ गया, कोई नहीं जानता

Revision as of 18:45, 17 September 2020 by Vanibot (talk | contribs) (Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Lecture on BG 2.14 -- Germany, June 21, 1974

अन्यथा रूपम का मतलब है अन्यथा, अन्यथा में रहना । अन्यथा इसका मतलब है कि मैं आत्मा हूँ । मुझे आध्यात्मिक शरीर मिला है । लेकिन किसी तरह से, संयोगवश, मेरी इच्छा के कारण, मुझे कभी मानव शरीर मिलता है और कभी कुत्ते का शरीर मिलता है कभी बिल्ली का शरीर, कभी पेड़ का शरीर, कभी देवता का शरीर । शरीर के ८४,००,००० विभिन्न रूप हैं । तो मैं अपनी इच्छा के अनुसार बदल रहा हूँ । और मेरे संक्रमण के अनुसार, कारणम गुण-संग: अस्य (भ.गी. १३.२२), ये सूक्ष्म बातें हैं । यही मनुष्य का वास्तविक ज्ञान है, अस्थायी खुशी के लिए कुछ आविष्कार करने के लिए नहीं । वह मूर्खता है । वह मूर्खता है, समय बर्बाद करना ।

अगर हम इस वर्तमान शरीर के आराम के लिए कुछ आविष्कार करते हैं, मैं बहुत आराम से रहूँगा, लेकिन - "तुम्हे आराम से रहने नहीं दिया जाएगा, सर।" सबसे पहले तुम यह बात जान लो । मान लो कि एक आदमी बहुत मजबूत घर, बहुत अच्छे घर का निर्माण कर रहा है । वह किसी भी हालत में नीचे गिरेगा नहीं । लेकिन, यह सब ठीक है, लेकिन तुमने अपने आप के लिए क्या किया है कि तुम कभी नहीं मरोगे ताकि तुम इसका मज़ा ले सको ? "नहीं, रहने दीजिए । मुझे एक बहुत मजबूत घर निर्मित करना है ।" तो घर रहता है । तुम वहाँ जाओ । सशक्त निर्मित राष्ट्र । वैसे ही जैसे नेपोलियन नें मजबूत निर्मित मेहराब का निर्माण किया, लेकिन वह कहाँ गया, कोई नहीं जानता ।

तो इसलिए भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, गाते हैं, जड-बिद्या जतो मायार वैभव तोमार भजने बाधा | जितना अधिक हम तथाकथित भौतिक खुशी या भौतिक उन्नति में अग्रिम होते हैं, उतना अधिक हम अपनी असली पहचान भूल जाते हैं । यह परिणाम है । तो हमें यह समझना चाहिए कि हमारा काम अलग है, वास्तविक काम । यही आत्म बोध कहा जाता है कि, "मैं यह शरीर नहीं हूं ।" यही आत्म - बोध है । यही शुरुआत में कृष्ण ने निर्देश दिया है कि "तुम यह शरीर नहीं हो ।" पहली समझ, पहला ज्ञान, समझना है कि "मैं यह शरीर नहीं हूं । मैं आत्मा हूँ । मेरा एक अलग काम है ।" यह अस्थायी कार्य या एक कुत्ते की गतिविधियॉ नहीं, या एक इंसान की, या एक शेर की या एक पेड़ की या एक मछली की, ये गतिविधियॉ हैं । अाहार-निद्रा-भय-मैथुनम च । शारीरिक आवश्यकताओं के वही सिद्धांत । भोजन, नींद, यौन जीवन और रक्षा । लेकिन मनुष्य जीवन में, मेरा काम अलग है, आत्म साक्षात्कार, यह शारीरिक उलझन से बाहर निकलना । और इसे ज्ञान कहा जाता है । इस ज्ञान के बिना, जो कोई भी हम ज्ञान में आगे बढ़ रहे हैं, वह मूर्खता है, बस । श्रम एव हि केवलम (श्रीमद भागवतम १.२.८) |