HI/Prabhupada 0538 - कानून का मतलब है राज्य द्वारा दिए गए वचन । तुम घर पर कानून नहीं बना सकते

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Janmastami Lord Sri Krsna's Appearance Day Lecture -- London, August 21, 1973

कृष्ण अवतरित होते हैं हमें सबक देने के लिए यदा यदा हि धर्ममस्य ग्लानिर भवति भारत (भ गी ४।७) कृष्ण कहते हैं, " मेरे प्यारे अर्जुन, मैं आता हूँ, जब धार्मिक जीवन की प्रक्रिया में विसंगतियॉ होती हैं । " धर्ममस्य ग्लानिर भवति । और धर्म क्या है? धर्म की सरल परिभाषा है, धर्मन तू साक्षाद भगवत-प्रणीतम (श्री भ ६।३।१९) । यही धर्म है । धर्मन तू साक्षाद भगवत-प्रणीतम । जैसे कानून का क्या मतलब है? कानून का मतलब है राज्य द्वारा दिए गए वचन । तुम घर पर कानून नहीं बना सकते । यह संभव नहीं है । जो सरकार तुम्हे देती है, कि "तुम्हे इस तरह से काम करना है ।" यह कानून है । इसी तरह, धर्म का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए निर्देश । यही धर्म है । साधारण परिभाषा । तुम धर्म बनाते हो । मैंने इस धर्म को बनाया है, एक और आदमी नें किसी दूसरे धर्म को बनाया है, ये धर्म नहीं हैं । इसलिए,जहां भगवद गीता समाप्त होती है, कि सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम (भ गी १८।६६), यही धर्म है -कृष्ण को आत्मसमर्पण करना । कोई भी अन्य धर्म, वे धर्म नहीं हैं । नहीं तो, क्यों कृष्ण माँगते सर्व-धर्मान परितज्य: "त्याग दो"? उन्होंने कहा कि धर्म-सम्स्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे: "मैं अवतरित होता हूँ धर्म के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए." और अंत में वे कहते हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य । इसका मतलब है कि जिन तथाकथित धर्मों का हमने निर्माण किया है, मानव निर्मित धर्म, वे धर्म नहीं हैं । धर्म का मतलब है जो भगवान द्वारा दिया जाता है । लेकिन हमें समझ नहीं है कि भगवान क्या हैं और उनके शब्द क्या हैं । यही आधुनिक सभ्यता का दोष है । लेकिन आदेश है, भगवान हैं - हम स्वीकार नहीं करते हैं । शांति की संभावना कहाँ है? आदेश है । कृष्ण कहते हैं, परम, भगवान उवाच । व्यासदेव लिखते हैं भगवान उवाच । हमें पता होना चाहिए भगवान क्या हैं । व्यासदेव लिख सकते थे, कृष्ण उवाच । नहीं, वे कहते हैं ... अगर हम कृष्ण को गलत समझते हैं, इसलिए वे हर छंद, हर श्लोक में लिखते हैं, श्री भगवान उवाच । तो भगवान हैं । भगवान बोल रहे हैं । भगवान सभी अाचार्यों द्वारा स्वीकार किए जाते हैं । रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णु स्वामी । सबसे नए, भगवान चैतन्य महाप्रभु भी, यहां तक ​​कि शंकराचार्य, वे भी कृष्ण को - भगवान स्वयम कृष्ण स्वीकार करते हैं । इसलिए आधुनिक अाचार्यों का फैसला, और अतीत में भी, व्यासदेव नारद, असीत, हर किसी नें स्वीकार किया कृष्ण, देवत्व के परम व्यक्तित्व को । अर्जुन जिन्होंने कृष्ण से सुना, भगवद गीता को समझने के बाद, उन्होंने कहा, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम् भवान पुरुषम अाद्यम शाश्वतम (भ गी १०।१२) ।

तो सब कुछ है । खासकर भारत में, हमारे पास इतनी संपत्ति है, भगवान को समझने के लिए, सरल बात । सब कुछ तैयार मिलता है । लेकिन हम स्वीकार नहीं करेंगे । तो इस रोग के लिए उपाय क्या है? हम शांति खोज कर रहे हैं, लेकिन हम कुछ भी एसा स्वीकार नहीं करेंगे जो वास्तव में हमें शांति दे सकत है । यह हमारा रोग है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन जगाने की कोशिश कर रहा है हर किसी के दिल में निष्क्रिय कृष्ण चेतना को । अन्यथा, कैसे ये यूरोप और अमेरिका और अन्य देशवासी, उनहोंने चार या पांच साल पहले तक कृष्ण के बारे में नहीं सुना था, वे कैसे इतनी गंभीरता से कृष्ण भावनामृत को ले रहे हैं? कृष्ण भावनामृत हर किसी के दिल में हैं । उसे केवल जागृत करना है । यह चैतन्य-चरितामृत में वर्णित है:

नित्या-सिध्द कृष्ण भक्ति साध्य कभु नौय
श्रवणादि शुद्ध चित्ते करये उदय
(चै च मध्य २२।१०७)

। यह जागृत होता है । कृष्ण के लिए प्यार, कृष्ण के प्रति समर्पण, है हर किसी के दिल के भीतर है, लेकिन वह भूल गया है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन केवल उस कृष्ण भावनामृत को जागृत करने के लिए है । यही प्रक्रिया है । जैसे जब तुम सो रहे हो, मुझे जोर से तुम्हे बुलाना पडता है । "श्री फलां, फलां, उठो । तुम्हे यह काम करना है ।" जब तुम सोते हो तो कोई अन्य इन्द्रियॉ काम नहीं करेंगी । लेकिन कान कार्य करेगा । इसलिए, इस तुग में, जब लोग इतने गिर हुए हैं, वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते हैं, अगर हम इस हरे कृष्ण महा मंत्र का जाप करते हैं, तो उसकी कृष्ण भावनामृत जागृत होगी । यह व्यावहारिक है ।