HI/Prabhupada 0554 - इस मायिका दुनिया के प्रशांत महासागर के बीच में हैं

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Lecture on BG 2.62-72 -- Los Angeles, December 19, 1968

तमाल कृष्ण: ६७: " जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु, द्वारा बहा ले जाती है, उसी प्रकार विचारणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि ो हर लेती है ।"

प्रभुपाद: हाँ । अगर तुम ... मान लो की प्रशांत महासागर में तुम एक नाव पर सवार हो या एक अच्छा सीट पर बैठे हो, लेकिन तुम्हारी नियंत्रित करने की कोई क्षमता नहीं है, तो प्रशांत महासागर की एक लहर तुरंत तुम्हे समुद्र के तल पर ले जा सकती है । तो यह आवश्यक है । हम इस मायिका दुनिया के प्रशांत महासागर के बीच में हैं । संसार-समुद्र । यह समुद्र कहा जाता है । तो किसी भी क्षण हमारी नाव अस्त व्यस्त हो सकती है अगर हमारे पास नियंत्रित करने की कोई शक्ति नहीं है ।

तमाल कृष्ण: ६८: "अत: हे महाबाहु, जिस पुरुष की इन्द्रियॉ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर, उसके वश मेम है, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है ।"

प्रभुपाद: हाँ । अब, जिसकी इन्द्रियाँ विरत हैं.... ... यह मानव जीवन इन्द्रियों को नियन्त्रण में करने के लिए ही है । तप: । इसे तपस्या कहा जाता है, तपस्या । मान लो कि मैं किसी प्रकार की इन्द्रिय संतुष्टि का आदी हूँ । अब, मैं चेतना भावनामृत को अपनाता हूँ । मेरे आध्यात्मिक गुरु या शास्त्र कहते हैं, "ऐसा मत करो ।" तो शुरुआत में, मैं कुछ असुविधा महसूस कर सकता हूँ लेकिन अगर तुम उसको बर्दाश्त करते हो , वही तपस्या है ।वही तपस्या है । तपस्या का मतलब है मैं कुछ असुविधा महसूस कर रहा हूँ, शारीरिक, लेकिन मैं बर्दाश्त कर रहा हूँ । यही तपस्या कहा जाता है । और यह मानव जीवना तपस्या के लिए ही है । एसा नहीं है कि मेरी इन्द्रियॉ संतुष्टि की मांग कर रही हैं, तो मैं तुरंत पेश करता हूँ । नहीं । मैं इस तरह से अपने आप को प्रशिक्षित करूँ कि मेरी इन्द्रियॉ मांग कर सकती हैं, "मेरे प्रिय महोदय, मुझे यह सुविधा दो," मैं कहूँगा, "नहीं, तुम नहीं पा सकते हो ।" इसे गोस्वामी या स्वामी कहा जाता है । वर्तमान समय में, हर कोई है, हम हैं, हम अपना स्वामी या मालिक बनाया है इन्द्रियों को और जब वास्तव में इन्द्रियों के मालिक बन जाते हो तो तुम स्वामी या गोस्वामी हो । यही स्वामी और गोस्वामीi का महत्व है । यह पहनावा नहीं है । जिस व्यक्ति के पास नियंत्रण शक्ति है, जो इंद्रियों से बाध्य नहीं है, जो इंद्रियों का दास नहीं है । मेरी जीभ मुझे हुक्म देती है "कृपया उस होटल में ले जाअो और स्टेक खाने दो ।" स्टेक क्या है ? स्टेक ?

भक्त: स्टेक ।

प्रभुपाद: स्टेक? वर्तनी क्या है?

भक्त: स्टेक ।

प्रभुपाद: तो वैसे भी ... या तला हुआ चिकन । हां । तो जीभ मुझे हुक्म दे रहा है । लेकिन अगर तुम अपनी जीभ पर नियंत्रण कर सकते हो, "नहीं । मैं तुम्हे मिठाई दूँगा । वहां मत जाओ ।" (हंसी) तो फिर तुम इन्द्रियों के मालिक बन जाअोगे । तुम देखते हो ? दूसरों केवल कोशिश कर रहे हैं "वहाँ मत जाओ," । यह असंभव है । जीभ को कुछ अच्छा देना होगा । नहीं तो यह संभव नहीं है । यही कृत्रिम है । अगर जीभ, तुम उसे इस तले हुई चिकन या स्टेक या यह या वह से भी अधिक अच्छा कुछ दो, यह बंद हो जाएगा । यही नीति है । हमारी नीति है । हम दे सकते हैं, क्या कहा जाता है, चावल के साथ छेना तला हुआ । यह कितना अच्छा है । वह मांस खाना भूल जाएगा । तो यही नीति है, कृष्ण भावनामृत । सभी इंद्रियों की कुछ आपूर्ति की जानी चाहिए । कृत्रिम रूप से इसे बंद नहीं करना है । यह संभव नहीं है । यह संभव नहीं है । अन्य, वे कवल कृत्रिम रूप से कोशिश कर रहे हैं इंद्रियों के प्रयोग को रोकने के लिए । नहीं, यह संभव नहीं है ।