HI/Prabhupada 0618 - आध्यात्मिक गुरु बहुत खुशी महसूस करता है, कि "यह लड़का मुझसे अधिक उन्नत है "

Revision as of 21:29, 5 August 2015 by Rishab (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0618 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1974 Category:HI-Quotes - Lec...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

Lecture on CC Adi-lila 7.91-2 -- Vrndavana, March 13, 1974

जब एक शिष्य आध्यात्मिक उन्नति में पूर्ण हो जाता है, तब आध्यात्मिक गुरु, बहुत, बहुत खुशी महसूस करता है, "मैं बेकार हूँ, लेकिन यह लडका, इसने मेरे निर्देश का पालन किया है और इसने सफलता हासिल की है । यही मेरी सफलता है ।" यह आध्यात्मिक गुरु की महत्वाकांक्षा है । जैसे एक पिता की तरह । यही संबंध है । जैसे ... कोई भी खुद के अलावा किसी को भी और अधिक उन्नत देखना नहीं चाहता है । यही प्रकृति है । मतसरता । अगर कोई किसी भी विषय में उन्नत हो जाता है, तो मैं उससे जलता हूँ । लेकिन आध्यात्मिक गुरु या पिता, उसे ईर्ष्या नहीं होती । वह खुद बहुत, बहुत खुशी महसूस करता है, कि "यह लड़का मुझसे अधिक उन्नत है ।" यह आध्यात्मिक गुरु की स्थिति है । तो कृष्ण, चैतन्य महाप्रभु व्यक्त करते हैं, वे (अस्पष्ट) कि "तो ..., जब मैं मंत्र जपता हूँ और नाचता हूँ और परमानंद में रोता हूँ, तो मेरे आध्यात्मिक गुरु मुझे इस तरह से धन्यवाद करते हैं : भाल हैल 'यह बहुत, बहुत अच्छा है ।" पाइले तुमि परम-पुरुषार्थ: "अब तुमने जीवन की सबसे अधिक सफलता प्राप्त कर ली है ।" तोमार प्रेमेते: "क्योंकिि तुम इतने उन्नत हो, अामि हैलान कृतार्थ, मैं बहुत आभार महसूस कर रहा हूँ ।" यह स्थिति है । फिर वे प्रोत्साहित करते हैं, नाच, गाओ, भक्त- संगे कर संकीर्तन: "अब अागे बढो । तुमने इतनी सफलता हासिल की है । अब अौर अागे बढो ।" नाच: "तुम नाचो ।" गाओ: "तुम गाअो और मंत्र जपो," भक्त-संगे, "भक्तों के समाज में ।" एक पेशा नहीं बनाना है, लेकिन भक्त-संगे । यह आध्यात्मिक जीवन में सफलता प्राप्त करने का वास्तविक मंच है । नरोत्तम दास ठाकुर भी कहते हैं कि तंादेर चरण सेवि भक्त सने वास, जनमे जनमे मोर एइ अभिलाष । नरोत्तम दास ठाकुर का कहना है कि "हर जन्म में ।" क्योंकि एक भक्त, वह वापस घर जाने की, वापस देवत्व को, ख्वाहिश नहीं रखता है । नहीं । किसी भी जगह, कोई बात नहीं है । वह केवल परम भगवान की महिमा करना चाहता है । यही उसका काम है । यह भक्त का काम नहीं है कि वह जप और नाच रहा है और भक्ति सेवा निष्पादित कर रहा है वैकुण्ठ या गोलोक वृन्दावन में जाने के लिए । यह कृष्ण की इच्छा है । अगर वे चाहें, वे ले जाएँगे ।" जैसे भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा कि: इच्छा यदि तोर । जन्माअोबि यदि मोरे इच्छा यदि तोर, भक्त-घ्रेते जन्म ह-उ प मोर । एक भक्त केवल यही प्रार्थना करता है कि ... वह कृष्ण से अनुरोध नहीं करता है कि "कृपया मुझे वापस वैकुण्ठ या गोलोक वृन्दावन ले जाऍ ।" नहीं । " अगर अापको लगता है कि मुझे फिर से जन्म लेना चाहिए, तो ठीक है । लेकिन केवल, केवल यह मेरेा अनुरोध है कि एक भक्त के घर में जन्म देना । बस । ताकी मैं अापको भूलूँ नहीं ।" यही भक्त की एकमात्र प्रार्थना है ।