HI/Prabhupada 0621 - कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को सिखा रहा है प्राधिकारी के प्रति विनम्र बनना

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Lecture on BG 13.1-2 -- Miami, February 25, 1975

तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को सिखा रहा है प्राधिकारी के प्रति विनम्र बनना । यही ज्ञान की शुरुआत है । तद विद्धि प्रणीपातेन परिप्रश्नेन सेवया (भ गी ४।३४) । अगर तुम दिव्य ज्ञान के विषय में जानना चाहते हो, जो तुम्हारी सोच, अनुभव और इच्छा करने के दायरे से बाहर है ... शुष्क चिन्तन का मतलब है सोच, भावना और इच्छा, मनोविज्ञान । लेकिन विषय वस्तु जो अपनी सोच से परे है । तो भगवान या भगवान के बारे में कुछ भी हमारी सोच, चिन्तन की सीमा से परे है । इसलिए, हमें विनम्रता से यह सीखना होगा । तद विद्धि प्रणिपातेन, प्रणिपात का मतलब है विनीत भाव । प्रकृष्ट रूपेण निपात । निपात का मतलब है विनीत भाव । तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन । सबसे पहले पता लगाअो उसका जहॉ पर तुम पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर सकते हो । तो फिर तुम दिव्य विषय के बारे में जिज्ञासा करो । वैसे ही जैसे अर्जुन दृढता से पालन कर रहे हैं । उन्होंने सबसे पहले कृष्ण को विनीत भाव से समर्पण किया है । शिष्यस ते अहम शाधि माम प्रपन्नम : (भ गी २।७) "मेरे प्यारे कृष्ण, हम मित्रता के स्तर पर बात कर रहे हैं, तो समानता के स्तर पर । तो अाप कुछ कहोगे, अौर मैं कुछ कहूँगा । इस तरह हम केवल हमारा समय बर्बाद करेंगे, और कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा । इसलिए, मैं शिष्य के रूप में समर्पण करता हूँ । जो भी आप कहोगे, मैं स्वीकार करूँगा ।" यह पहली शर्त है । सबसे पहले पता लगाअो ऐसे व्यक्ति का, जिसपर तुम्हे पूर्ण भरोसा हो कि वह जो भी कहे, तुम स्वीकर करोगे । यही गुरु है । अगर तुम्हे लगता है कि तुम अपने गुरु से बेहतर जानते ह , तो फिर कोई फायदा नहीं है । सबसे पहले पता लगाअो उस व्यक्ति का जो तुम्से बेहतर है। तो फिर तुम समर्पण करो । इसलिए नियम है कि किसी को भी आँख बंद करके किसी भी गुरु को स्वीकार नहीं करना चाहिए । और किसी को भी आँख बंद करके किसी भी शिष्य को स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए । उन्हें कम से कम एक वर्ष के लिए, एक दूसरे के साथ, अच्छा व्यवहार करना चाहिए ताकि भावी शिष्य भी समझ सकता है कि "क्या मैं अपने गुरु के रूप में इस व्यक्ति को स्वीकार कर सकता हूँ," और भावी गुरु भी समझ सकता है "क्या यह व्यक्ति मेरा शिष्य बन सकता है या नही ।" यही सनातन गोस्वामी का निर्देश है उनकी हरि भक्ति-विलास में । तो यहाँ अर्जुन ने अपने गुरु के रूप में कृष्ण को स्वीकार कर लिया है । और वे विनम्रता से कहते हैं कि प्रकृतिम पुरुषम चैव । प्रकृति, प्रकृति का मतलब है भौतिक प्रकृति, और पुरुष का मतलब है प्रकृति का शोषक । जैसे यहाँ इस भौतिक संसार में, विशेष रूप से पश्चिमी देशों में, वे बहुत ज्यादा शौकीन हैं अविकसित देशों को विकासशील बनाने में । उस का मतलब है शोषण, या पुरष बनाना, भोक्ता । तुम अमेरिकिम तुम यूरोप से आए, और अब तुमने पूरे अमेरिका को विकसित किया है, बहुत अच्छे शहर, कस्बे, और बहुत अच्छी तरह से विकसित किया है । इसे संसाधनों का शोषण कहा जाता है । तो, प्रकृति, भौतिक प्रकृति और हम, जीव, विशेष रूप से मनुष्य, वे पुरुष हैं । लेकिन वास्तव में हम भोक्ता नहीं हैं । हम झूठे भोक्ता हैं । हम इस अर्थ में भोक्ता नहीं हैं: मान लो तुम अमेरिकि हो । तुमने बहुत अच्छी तरह से इस धरती को विकसित किया है जिसे अमेरिका के रूप में जाना जाता है । लेकिन तुम आनंद नहीं उठा सकते । तुम सोच रहे हो कि तुम आनंद ले रहे हो, लेकिन तुम आनंद नहीं उठा सकते । कुछ समय बाद तुम्हे बाहर निकाल दिया जाएगा, "बाहर जाओ।" तो फिर तुम भोक्ता कैसे हुए ? तुम सोच सकते हो कि "कम से कम पचास साल या सौ साल के लिए मैं आनंद ले रहा हूँ ।" तो तुम कह सकते हो कि तुम आनंद ले सकते हो, तथाकथित अानंद । लेकिन तुम स्थायी भोक्ता नहीं बन सकते । यह संभव नहीं है ।