HI/Prabhupada 0736 - इन सभी तथाकथित या धोखा देने वाली धार्मिक प्रणालियों को त्याग दो

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Arrival Lecture -- Calcutta, March 20, 1975

श्रीमद भागवतम किसी विशेष प्रकार के धर्म का नाम नहीं लेता है । वह कहता है, "वह धर्म, वह धर्म की प्रणाली, प्रथम श्रेणी की है," स वै पुंसाम परो धर्म: (श्रीमद भागवतम १.२.६), "दिव्य ।" यह हिन्दु धर्म, मुस्लिम धर्म, इसाई धर्म, वे प्राकृत हैं, सांसारिक । लेकिन हमें अागे जाना है, परे, इस प्राकृत या सांसारिक धारणा के धर्म से परे - "हम हिंदु हैं।" "हम मुसलमान हैं," "हम ईसाई हैं |" जैसे सोने की तरह । सोना सोना है ।

सोना हिंदू सोना या ईसाई सोना या मुहाम्मदन सोना नहीं हो सकता । कोई भी... क्योंकि सोना हिंदू के हाथ में है या मुस्लिम के, कोई नहीं कहेगा "यह मुस्लिम सोना है," "यह हिंदु सोना है |" हर कोई कहेगा "यह सोना है ।" तो हमें सोने को चुनना है - न की हिन्दू सोना या मुस्लिम सोना या ईसाई सोना । जब भगवान कृष्ण ने कहा, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६), उनका कहने का मतलब नहीं था यह हिंदू धर्म या मुस्लिम धर्म । ये नामित हैं।

तो हमें उस मंच पर अाना है जहां यह शुद्ध है; कोई पद नहीं है । अहम ब्रह्मास्मि: "मैं कृष्ण का अंशस्वरूप हूँ ।" यह असली धर्म है । इस धारणा के बिना, किसी भी तरह का नामित धर्म, यह प्राकृत है । वह दिव्य नहीं है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन, दिव्य है, परो धर्म: | स वै पुंसाम परो धर्म: । परो का मतलब है "परे," तथाकथित धार्मिक प्रणाली से परे । तो यह हमारे द्वारा निर्मित बातें नहीं है । यह शुरुआत में श्रीमद भागवतम में कहा गया है की, धर्म: प्रोज्जहित कैतव: अत्र (श्रीमद भागवतम १.१.२): "किसी भी तरह का कैतव:, कपटी या गलत, भ्रामक," कैतव: | कैतव: का मतलब है धोखाधड़ी । "धोखाधड़ी का धर्म अस्वीकार है, फेंकने लायक," प्रोज्जहित । प्रकृष्ट रूपेण उज्जहित |

जैसे हम फर्श को साफ करते हैं, हम धूल के अंतिम कण को लेते हैं और इसे दूर फेंकते हैं, इसी तरह, कृष्ण भावनाभावित होने के लिए हमें त्यागना होगा इन सभी तथाकथित या धोखा देने वाली धार्मिक प्रणालियों को | क्योंकि अनुभव ये दिखाता है कि इतनी सारे अलग अलग नामित धार्मिक प्रणालियों का पालन करने से, किसी नें वह मंच प्राप्त नहीं किया है कि भगवान से कैसे प्रेम करें । किसी ने भी प्राप्त नहीं किया है । यह व्यावहारिक अनुभव है ।

यह... श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु, उन्होंने शुरू किया । लेकिन भगवान कृष्ण नें संकेत दिया था, "यह असली धर्म है, माम एकम शरणम व्रज । यह धर्म है ।" कोई अन्य धर्म, धर्म की प्रणाली, जो अनुयायियों को प्रशिक्षित नहीं करती है, कि कैसे भगवान से प्रेम करें, यह धोखा देना वाला धर्म है । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, प्रेम पुम-अर्थो महन । और भागवत भी वही बात कहता है । जीवन में सफलता की असली उपलब्धि है कैसे भगवान, या कृष्ण से प्रेम करें | यही जीवन की उच्चतम पूर्णता है ।