HI/Prabhupada 0737 - पहला आध्यात्मिक ज्ञान यह है कि 'मैं यह शरीर नहीं हूं'

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Lecture on BG 4.1 -- Bombay, March 21, 1974

प्रभुपाद: यह शरीर अलग ढंग से बना है। आत्मा एक ही है । तुम्हारी आत्मा, मेरी आत्मा, एक ही है। लेकिन तुम्हारा शरीर अमेरिकी कहलाता है, मेरा शरीर भारतीय शरीर कहलाता है । यही अंतर है । जैसे तुम्हे एक अलग वस्त्र मिला है । मुझे क अलग वस्त्र मिला है । वासांसी जीर्णानि यथा विहाय (भ.गी. २.२२)... शरीर वस्त्र की तरह है । तो पहला आध्यात्मिक ज्ञान यह है कि "मैं यह शरीर नहीं हूं ।" फिर आध्यात्मिक ज्ञान शुरू होता है । अन्यथा आध्यात्मिक ज्ञान की कोई संभावना नहीं है । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धि: कलत्रादिषु भौम इज्य धि (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) | जो व्यक्ति सोचता है, "मैं यह शरीर हूँ । यह, मैं खुद हूँ," वह एक बदमाश है, जानवर । बस । यह धूर्त पशुता, पूरी दुनिया में चल रही है । "मैं अमरीकी हूँ "," मैं भारतीय हूं," "मैं ब्राह्मण हूँ," "मैं क्षत्रिय हूँ ।" यह धूर्तता है । तुम्हे इस से ऊपर उठना है । फिर आध्यात्मिक ज्ञान है । यही भक्ति-योग है ।

माम च यो अव्यभीचारेण
भक्ति योगेन सेवते
स गुणान समतीत्यैतान
ब्रह्म भूयाय कल्पते
(भ.गी. १४.२६)

अहम ब्रह्मास्मि । यह आवश्यक है । तो ये योग प्रणाली, भक्ति-योग, को समझने के लिए... क्योंकि केवल भक्ति-योग से तुम आध्यात्मिक मंच पर आ सकते हो । अहम ब्रह्मास्मि । नाहम विप्रो... जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा, नाहम विप्रो न क्षत्रिय... क्या है वह श्लोक ? भक्त: किब विप्र किबा न्यासि... प्रभुपाद: "मैं एक ब्राह्मण नहीं हूं, एक क्षत्रिय नहीं हूँ, मैं एक वैश्य नहीं हूँ, मैं एक शूद्र नहीं हूँ । मैं एक ब्रह्मचारी नहीं हूँ, मैं एक ग्रहस्थ नहीं हूँ, मैं एक वानप्रस्थ नहीं हूँ... " क्योंकि हमारी वैदिक सभ्यता वर्ण और आश्रम पर आधारित है । इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें इन सब चीज़ो से इनकार किया: "मैं इनमें से कोई भी नहीं हूँ ।" तो आपकी स्थिति क्या है? गोपि भर्तु: पद-कमलयोर दास-दासानुदास: (चैतन्य चरितामृत मध्य १३.८०) "मैं गोपियों के पालनहार का शाश्वत दास हूं ।" मतलब है कृष्ण । और वह प्रचार करते थे: जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास (चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०८-१०९) | यही हमारी पहचान है । हम कृष्ण के शाश्वत सेवक हैं । इसलिए कृष्ण के खिलाफ विद्रोह करने वाले सेवक, वे इस भौतिक दुनिया में अाते हैं । इसलिए, इन सेवकों को वापिस बुलाने के लिए, कृष्ण आते हैं । और कृष्ण कहते हैं,

परित्राणाय साधूनाम
विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म-संस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे युगे
(भ.गी. ४.८)

कृष्ण आते है । वे बहुत दयालु हैं । तो हमें कृष्ण के यहाँ आने का लाभ उठाना चाहिए, अपने पीछे इस भगवद गीता को छोड़ गए हैं, और यह पूरी तरह से पढ़ना चाहिए, और अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहिए । यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन है । यह एक फर्जी आंदोलन नहीं है । यह एक सबसे अधिक वैज्ञानिक आंदोलन है । तो भारत से बाहर, ये यूरोपीय, अमेरिकी, वे इस का लाभ ले रहे हैं । ये भारतीय युवक क्यों नहीं ? वहाँ गलत क्या है ? यह अच्छा नहीं है । हमें एक साथ शामिल होना है, बहुत गंभीरता से इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन को शुरू करना है, और इस पीड़ित मानवता का उद्धार करना है । यही हमारा उद्देश्य है । वे ज्ञान के अभाव में पीड़ित हैं । सब कुछ है, पूर्ण । केवल कुप्रबंधन से... केवल... यह बदमाशों और चोरों द्वारा प्रबंधित किया जा रहा है । ग्रहण करो । तुम कृष्ण भावनामृत में आदर्श बनो और प्रबंधन को लो और अपने जीवन को सफल बनाअो ।

बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण ।