HI/Prabhupada 0789 - कर्मक्षेत्र, क्षेत्र का मालिक और क्षेत्र का पर्यवेक्षक: Difference between revisions

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भक्त: अनुवाद : "अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहॉ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है अौर उसके क्या प्रभाव हैं ।"  
भक्त: अनुवाद: "अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहॉ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है अौर उसके क्या प्रभाव हैं ।"  


प्रभुपाद: तत्क्षेत्रं ([[Vanisource:BG 13.4|भ गी १३।४]]) । इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम इति अभिधीयते ([[Vanisource:BG 13.2|गी १३।२]]) तो श्री कृष्ण नें पहले ही समझाया है कि क्षेत्र का मतलब है शरीरं शरीरं का मतलब है यह शरीर । तत् क्षेत्रं । सबसे पहले, तुम्हे समझना होगा कि यह शरीर या कर्मक्षेत्र, कहीं भी, तीन बातें हैं: कर्मक्षेत्र, क्षेत्र का मालिक और क्षेत्र का पर्यवेक्षक । तुम जाँच कर सकते हो और जाँच लो । तो श्री कृष्ण कहते हैं क्षेत्र ज्ञम चापि माम् विधि दो क्षेत्रज्ञ: हैं और एक क्षेत्र । एक कर्मक्षेत्र है और दो हस्तियॉ, क्षेत्रज्ञ : एक उसमें रहने वाला कहा जाता है और दूसरा मालिक माना जाता है । जैसे इस घर में जैसे हम किरायेदार हैं । घर क्षेत्र है, कर्मक्षेत्र । मकान मालिक मालिक है और हम किरायेदार हैं। दो क्षेत्रज्ञ: । इस संपत्ति में दो व्यक्तियों का स्वार्थ है । एक किरायेदार है और दूसरा मालिक । इसी तरह, कहीं भी, दुनिया के किसी भी हिस्से में, कहीं भी तुम जाअो, तुम इन तीन बातों को पाअोगे : एक, कर्मक्षेत्र अौर दूसरe दो, एक निवास करने वाला और एक मालिक । अगर हम इन तीन बातों को समझत जाते हैं, और हम हर जगह इन तीन बातों का अध्ययन कर सकते हैं, फिर: क्षेत्र-क्षेत्रज्ञोर यद ज्ञानम । यह ज्ञान, यह समखना कि हर जगह कर्मक्षेत्र है, और दो व्यक्तियों का स्वार्थ है उस कर्मक्षेत्र में.... एक निवासी अौर दूसरा मालिक । यदि केवल तुम इन तीन चीजों का अध्ययन करो तो: तज ज्ञानम् ज्ञानम् । यही ज्ञान है। अन्यथा सभी धूर्त और मूर्ख, बसस। मतम् मम । यह ज्ञानम है। लेकिन वर्तमान समय में किसी से पूछो कौन मालिक है, कौन निवासी है अौर कर्मक्षेत्र क्या है । अगर तुम ये तीन चीज़े पूछते हो, कोई भी जवाब देने में सक्षम नहीं होगा । इसका मतलब है वर्तमान समय में हर कोई धूर्त है । या फिर वे नहीं जानते हैं । क्षेत्र-क्षेत्रज्ञोर यज ज्ञाजम, श्री कृष्ण कहते हैं, "यह रिश्ता कर्मक्षेत्र अौर मालिक के बीच का ।" जैसे कृषि । भूमि राज्य या राजा के स्वामित्व में है। और इसे किराए पर कोई अौर लेता है । और भूमि कर्म क्षेत्र है। तो श्री कृष्ण दिशा दे रहे हैं । श्री कृष्ण दिशा दे रहे हैं, और जीव है । वह उस दिशा के अनुसार काम कर रहा है । तो दोनों श्री कृष्ण और जीव एक पेड़ पर बैठे हैं । यही उपनिषद में कहा गया है । दो पक्षि एक पेड़ पर बैठे हैं । एक पेड़ का फल खा रहा है और दूसरा केवल साक्षी है । साक्षी पक्षी श्री कृष्ण हैं । और जो पक्षी पेड़ के फल खा रहा है, , वह जीव है। मायावदी दार्शनिक, वे जीव आत्मा और परमात्मा के बीच भेद नहीं कर सकते हैं । वे यह जानते हैं, लेकिन क्योंकि वे अद्वैतवादी हैं, अपने सिद्धांत को स्थापित करने के लिए, वे कहते हैं कि दो नहीं, एक है । नहीं । श्री कृष्ण दो कहते हैं । एक क्षेत्रज्ञ:, जीवात्मा और दूसरा क्षत्रज्ञ: वे हैं, श्री कृष्ण । दोनों के बीच अंतर यह है कि व्यष्टि जीव केवल अपने क्षेत्र या शरीर के बारे में जानता है, लेकिन दूसरा जीव परम जीव, वे सभी शरीरों को जानते हैं ।
प्रभुपाद: तत्क्षेत्रं ([[HI/BG 13.4|भ.गी. १३.४]]) । इदम शरीरम कौन्तेय क्षेत्रम इति अभिधीयते ([[HI/BG 13.1-2|भ.गी. १३.२]]) | तो कृष्ण नें पहले ही समझाया है कि क्षेत्र का मतलब है शरीरम शरीरम का मतलब है यह शरीर । तत क्षेत्रम । सबसे पहले, तुम्हे समझना होगा कि यह शरीर या कर्मक्षेत्र, कहीं भी, तीन बातें हैं: कर्मक्षेत्र, क्षेत्र का मालिक और क्षेत्र का पर्यवेक्षक । तुम जाँच कर सकते हो और जाँच लो । तो कृष्ण कहते हैं क्षेत्र ज्ञम चापि माम विधि | दो क्षेत्रज्ञ: हैं और एक क्षेत्र । एक कर्मक्षेत्र है और दो हस्तियॉ, क्षेत्रज्ञ: | एक उसमें रहने वाला कहा जाता है और दूसरा मालिक माना जाता है ।  
 
जैसे इस घर में जैसे हम किरायेदार हैं । घर क्षेत्र है, कर्मक्षेत्र । मकान मालिक जो है वो मालिक है और हम किरायेदार हैं । दो क्षेत्रज्ञ: । इस संपत्ति में दो व्यक्तियों का स्वार्थ है । एक किरायेदार है और दूसरा मालिक । इसी तरह, कहीं भी, दुनिया के किसी भी हिस्से में, कहीं भी तुम जाअो, तुम इन तीन बातों को पाअोगे: एक, कर्मक्षेत्र अौर दूसरे दो, एक निवास करने वाला और एक मालिक । अगर हम इन तीन बातों को समझ जाते हैं, और हम हर जगह इन तीन बातों का अध्ययन कर सकते हैं, फिर: क्षेत्र-क्षेत्रज्ञोर यद ज्ञानम । यह ज्ञान, यह समझना कि हर जगह कर्मक्षेत्र है, और दो व्यक्तियों का स्वार्थ है उस कर्मक्षेत्र में... एक निवासी अौर दूसरा मालिक ।  
 
यदि केवल तुम इन तीन चीजों का अध्ययन करो तो: तज ज्ञानम ज्ञानम । यही ज्ञान है । अन्यथा सभी धूर्त और मूर्ख, बस। मतम मम । यह ज्ञानम है । लेकिन वर्तमान समय में किसी से पूछो, कौन मालिक है, कौन निवासी है अौर कर्मक्षेत्र क्या है । अगर तुम ये तीन चीज़े पूछते हो, कोई भी जवाब देने में सक्षम नहीं होगा । इसका मतलब है वर्तमान समय में हर कोई धूर्त है । या फिर वे नहीं जानते हैं । क्षेत्र-क्षेत्रज्ञोर यज ज्ञाजम, कृष्ण कहते हैं, "यह रिश्ता कर्मक्षेत्र अौर मालिक के बीच का ।" जैसे कृषि । भूमि राज्य या राजा के स्वामित्व में है । और इसे किराए पर कोई अौर लेता है । और भूमि कर्म क्षेत्र है । तो कृष्ण दिशा दे रहे हैं ।  
 
कृष्ण दिशा दे रहे हैं, और जीव है । वह उस दिशा के अनुसार काम कर रहा है । तो दोनों कृष्ण और जीव एक पेड़ पर बैठे हैं । यही उपनिषद में कहा गया है । दो पक्षी एक पेड़ पर बैठे हैं । एक पेड़ का फल खा रहा है और दूसरा केवल साक्षी है । साक्षी पक्षी कृष्ण हैं । और जो पक्षी पेड़ के फल खा रहा है, वह जीव है ।
 
मायावादी तत्वज्ञानी, वे जीव आत्मा और परमात्मा के बीच भेद नहीं कर सकते हैं । वे यह जानते हैं, लेकिन क्योंकि वे अद्वैतवादी हैं, अपने सिद्धांत को स्थापित करने के लिए, वे कहते हैं कि दो नहीं, एक है । नहीं । कृष्ण दो कहते हैं । एक क्षेत्रज्ञ:, जीवात्मा और दूसरा क्षेत्रज्ञ: वे हैं, कृष्ण । दोनों के बीच अंतर यह है कि व्यष्टि जीव केवल अपने क्षेत्र या शरीर के बारे में जानता है, लेकिन दूसरा जीव, परम जीव, वे सभी शरीरों को जानते हैं ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 13.4 -- Paris, August 12, 1973

भक्त: अनुवाद: "अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहॉ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है अौर उसके क्या प्रभाव हैं ।"

प्रभुपाद: तत्क्षेत्रं (भ.गी. १३.४) । इदम शरीरम कौन्तेय क्षेत्रम इति अभिधीयते (भ.गी. १३.२) | तो कृष्ण नें पहले ही समझाया है कि क्षेत्र का मतलब है शरीरम । शरीरम का मतलब है यह शरीर । तत क्षेत्रम । सबसे पहले, तुम्हे समझना होगा कि यह शरीर या कर्मक्षेत्र, कहीं भी, तीन बातें हैं: कर्मक्षेत्र, क्षेत्र का मालिक और क्षेत्र का पर्यवेक्षक । तुम जाँच कर सकते हो और जाँच लो । तो कृष्ण कहते हैं क्षेत्र ज्ञम चापि माम विधि | दो क्षेत्रज्ञ: हैं और एक क्षेत्र । एक कर्मक्षेत्र है और दो हस्तियॉ, क्षेत्रज्ञ: | एक उसमें रहने वाला कहा जाता है और दूसरा मालिक माना जाता है ।

जैसे इस घर में जैसे हम किरायेदार हैं । घर क्षेत्र है, कर्मक्षेत्र । मकान मालिक जो है वो मालिक है और हम किरायेदार हैं । दो क्षेत्रज्ञ: । इस संपत्ति में दो व्यक्तियों का स्वार्थ है । एक किरायेदार है और दूसरा मालिक । इसी तरह, कहीं भी, दुनिया के किसी भी हिस्से में, कहीं भी तुम जाअो, तुम इन तीन बातों को पाअोगे: एक, कर्मक्षेत्र अौर दूसरे दो, एक निवास करने वाला और एक मालिक । अगर हम इन तीन बातों को समझ जाते हैं, और हम हर जगह इन तीन बातों का अध्ययन कर सकते हैं, फिर: क्षेत्र-क्षेत्रज्ञोर यद ज्ञानम । यह ज्ञान, यह समझना कि हर जगह कर्मक्षेत्र है, और दो व्यक्तियों का स्वार्थ है उस कर्मक्षेत्र में... एक निवासी अौर दूसरा मालिक ।

यदि केवल तुम इन तीन चीजों का अध्ययन करो तो: तज ज्ञानम ज्ञानम । यही ज्ञान है । अन्यथा सभी धूर्त और मूर्ख, बस। मतम मम । यह ज्ञानम है । लेकिन वर्तमान समय में किसी से पूछो, कौन मालिक है, कौन निवासी है अौर कर्मक्षेत्र क्या है । अगर तुम ये तीन चीज़े पूछते हो, कोई भी जवाब देने में सक्षम नहीं होगा । इसका मतलब है वर्तमान समय में हर कोई धूर्त है । या फिर वे नहीं जानते हैं । क्षेत्र-क्षेत्रज्ञोर यज ज्ञाजम, कृष्ण कहते हैं, "यह रिश्ता कर्मक्षेत्र अौर मालिक के बीच का ।" जैसे कृषि । भूमि राज्य या राजा के स्वामित्व में है । और इसे किराए पर कोई अौर लेता है । और भूमि कर्म क्षेत्र है । तो कृष्ण दिशा दे रहे हैं ।

कृष्ण दिशा दे रहे हैं, और जीव है । वह उस दिशा के अनुसार काम कर रहा है । तो दोनों कृष्ण और जीव एक पेड़ पर बैठे हैं । यही उपनिषद में कहा गया है । दो पक्षी एक पेड़ पर बैठे हैं । एक पेड़ का फल खा रहा है और दूसरा केवल साक्षी है । साक्षी पक्षी कृष्ण हैं । और जो पक्षी पेड़ के फल खा रहा है, वह जीव है ।

मायावादी तत्वज्ञानी, वे जीव आत्मा और परमात्मा के बीच भेद नहीं कर सकते हैं । वे यह जानते हैं, लेकिन क्योंकि वे अद्वैतवादी हैं, अपने सिद्धांत को स्थापित करने के लिए, वे कहते हैं कि दो नहीं, एक है । नहीं । कृष्ण दो कहते हैं । एक क्षेत्रज्ञ:, जीवात्मा और दूसरा क्षेत्रज्ञ: वे हैं, कृष्ण । दोनों के बीच अंतर यह है कि व्यष्टि जीव केवल अपने क्षेत्र या शरीर के बारे में जानता है, लेकिन दूसरा जीव, परम जीव, वे सभी शरीरों को जानते हैं ।