HI/Prabhupada 0824 - आध्यात्मिक दुनिया में कोई असहमति नहीं है: Difference between revisions

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तो अगर तुम मानव स्वभाव का अध्ययन करते हो, जो कुछ भी है, वह भगवान में भी है। लेकिन वह उत्तम और असीमित है, और हमारे रसायनिक गुण-बहुत छोटी मात्रा में है । और भौतिक संपर्क के कारण यह अपूर्ण है। तो अगर तुम भौतिक बंधन से मुक्त हो जाते हो, तो तुम उत्तम हो जाते हो । तुम समझ सकते ह कि "मैं लगभग भगवान की तरह उत्तम हूँ, लेकिन ईश्वर महान हैं , मैं बहुत, बहुत छोटा हूँ।" यही अात्म-साक्षात्कार है । यही आत्म-साक्षात्कार है । यदि तुम्हे लगता है, कि "मैं लगभव भगवान की तरह उत्तम हूँ" यह तुम्हारी मूर्खता है । तुम गुणवत्ता के स्तर पर भगवान की तरह उत्तम हो, लेकिन मात्रा में तुम भगवान की तरह महान नहीं हो । यह आत्म-साक्षात्कार है । इसलिए शास्त्र कहते हैं कि "यदि छोटी सी मात्रा आध्यात्मिक चिंगारी की समान होता परम पूर्णता के, तो कैसे वह उनके अधीन अा गया है ?" यह तर्क है। हम नियंत्रण के अधीन हैं। भौतिक माहौल में हम पूरी तरह नियंत्रण में हैं। लेकिन जब हम आत्मिक मुक्त हैं ,फिर भी हम अधीन हैं क्योंखी भगवान महान रहते हैं अौर हम छोटे रहेंगे इसलिए आध्यात्मिक दुनिया में कोई असहमति नहीं है। ईश्वर महान है और हम छोटे हैं, कोई असहमति नहीं है। यही आध्यात्मिक दुनिया है। और भौतिक दुनिया का मतलब है, "ईश्वर महान है, हम छोटे हैं" - इसपर असहमति है । यही भौतिक दुनिया है। भौतिक दुनिया और आध्यात्मिक दुनिया के बीच के अंतर को समझने की कोशिश करें। जीव, भगवान का अंशस्वरूप है लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में हर कोई अपनी स्थिति के बारे में जानता है। जीव, वे जानते हैं "मेरी स्थिति क्या है। मैं भगवान का अंशस्वरूप हूँ ।" इसलिए कोई असहमति नहीं है। सब कुछ अच्छी तरह से चल रहा है। यहाँ इस भौतिक दुनिया में ... वह वास्तव में भगवान का अंशस्वरूप है, लेकिन असहमति है। वह गलत सोच रहा है कि "मैं लगभग भगवान की तरह उत्तम हूँ ।" यह भौतिक जीवन है। और मुक्ति का मतलब है ... जब हम जीवन के इस गलत अवधारणा से मुक्त हैं, यही मुक्ति है। मुक्ति का मतलब है... इसलिए सभी भक्ति जिन्होंने मूल रूप से स्वीकार किया है कि "ईश्वर महान हैं, मैं छोटा हूँ, अंशस्वरूप । इसलिए, जैसे छोटा महानता की सेवा करता है, मेरा असली कर्तव्य भगवान की सेवा है। "यह मुक्ति है। यह मुक्ति है। इसलिए हर भक्त जिसने इस सिद्धांत को अपनाया है कि " ईश्वर महान हैं, मैं बहुत छोटा हूँ। मुझे करना है..... मुझे महान की सेवा करनी है.." यही स्वभाव है । हर कोई काम करने के लिए, कारखाने, कार्यालय जा रहा है । यह क्या है ? महान की सेवा करने के लिए जाना अन्यथा वह घर पर बैठता । क्यों वह कार्यालय में, कारखाने के लिए जा रहा है? यह स्वभाव है छोटा महान की सेवा करता है । तो भगवान, वे सबसे महान हैं । अणोर अणियान महतो महियान ( कथा उपनिषद १।२।२०) तो तुम्हारा काम क्या है? उनकी सेवा करना, बस । यह स्वाभाविक स्थिति है । भौतिक दुनिया में वह किसी अौर की सेवा करने जा रहा है, (अस्पष्ट), उसकी रोटी के लिए किसी और से; फिर भी, वह सोच रहा है "मैं भगवान हूँ।" देखो किस तहर का भगवान है वो (हंसी) । यह धूर्त है, वह सोच रहा है कि वह भगवान है । अगर वह कार्यालय से निकाल दिया जाता है, उसे रोटी नहीं मिलेगाी, और वह भगवान है। यह भौतिक दुनिया है । हर कोई सोच रहा है, "मैं भगवान हूँ।" इसलिए उन्हे मूढा, धूर्त बुलाया गया है । वे भगवान के प्रति समर्पण नहीं करते । न माम् दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: माययापहृत ज्ञाना: ([[Vanisource:BG 7.15|भ गी ७।१५]]) अपाहृत- ज्ञाना: । उसका असली ज्ञान छीन लिया जाता है । वह जानता नहीं है कि वह छोटा है, ईश्वर महान हैं, उसका काम है भगवान की सेवा करना । यह ज्ञान छीन लिया जाता है। माययापहृत ज्ञाना अासुरम् भावम अाश्रिता: यह संकेत है। और तुम एक लक्षण से समझ सकते हो । जैसे चावल के पूरी बर्तन में से एक चावल को दबाने से, तुम चावल ठीक है यह समझ सकते हो इसी तरह, एक लक्षण से तुम समझ सकते हो कि कौन धूर्त है । एक लक्षण से । वो क्या हे? न माम प्रपद्यन्ते ।वह श्री कृष्ण का भक्त नहीं है, वह एक धूर्त है। बस इतना ही। एकदम मान लो, किसी भी विचार के बिना, कि जो श्री कृष्ण का भक्त नहीं है, जो श्री कृष्ण के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार नहीं है, वह एक धूर्त है। बस इतना ही। यह हमारा निष्कर्ष है।
तो अगर तुम मानव स्वभाव का अध्ययन करते हो, जो कुछ भी है, वह भगवान में भी है । लेकिन वह उत्तम और असीमित है, और हमारे रासायनिक गुण -बहुत छोटी मात्रा में है । और भौतिक संपर्क के कारण यह अपूर्ण है । तो अगर तुम भौतिक बंधन से मुक्त हो जाते हो, तो तुम उत्तम हो जाते हो । तुम समझ सकते हो की "मैं लगभग भगवान की तरह उत्तम हूँ, लेकिन ईश्वर महान हैं, मैं बहुत, बहुत छोटा हूँ ।" यही अात्म-साक्षात्कार है । यही आत्म-साक्षात्कार है । यदि तुम्हे लगता है, कि "मैं भगवान की तरह ही उत्तम हूँ," यह तुम्हारी मूर्खता है । तुम गुणवत्ता के स्तर पर भगवान की तरह उत्तम हो, लेकिन मात्रा में तुम भगवान की तरह महान नहीं हो । यह आत्म-साक्षात्कार है ।  


बहुत बहुत धन्यवाद। हरे कृष्ण।
इसलिए शास्त्र कहते हैं कि "यदि छोटी सी मात्रा आध्यात्मिक चिंगारी की समान होती परम पूर्ण के, तो कैसे वह उनके अधीन अा गई है ?" यह तर्क है । हम नियंत्रण के अधीन हैं । भौतिक माहौल में हम पूरी तरह नियंत्रण में हैं । लेकिन जब हम आध्यात्मिक रूप से मुक्त हैं ,फिर भी हम अधीन हैं क्योंकि भगवान महान रहते हैं अौर हम छोटे ही रहेंगे | इसलिए आध्यात्मिक दुनिया में कोई असहमति नहीं है । ईश्वर महान है और हम छोटे हैं, कोई असहमति नहीं है । यही  आध्यात्मिक दुनिया है । और भौतिक दुनिया का मतलब है, "ईश्वर महान है, हम छोटे हैं" - इसपर असहमति है । यही भौतिक दुनिया है ।
 
भौतिक दुनिया और आध्यात्मिक दुनिया के बीच के अंतर को समझने की कोशिश करें । जीव, भगवान का अंशस्वरूप है, लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में हर कोई अपनी स्थिति के बारे में जानता है । जीव, वे जानते हैं "मेरी स्थिति क्या है । मैं भगवान का अंशस्वरूप हूँ ।" इसलिए कोई असहमति नहीं है । सब कुछ अच्छी तरह से चल रहा है । यहाँ इस भौतिक दुनिया में... वह वास्तव में भगवान का अंशस्वरूप है, लेकिन असहमति है । वह गलत सोच रहा है की "मैं भगवान की तरह ही उत्तम हूँ ।" यह भौतिक जीवन है । और मुक्ति का मतलब है... जब हम जीवन की इस गलत अवधारणा से मुक्त हैं, यही मुक्ति है ।
 
मुक्ति का मतलब है... इसलिए सभी भक्त जिन्होंने मूल रूप से स्वीकार किया है की "ईश्वर महान हैं, मैं छोटा हूँ, अंशस्वरूप । इसलिए, जैसे छोटा महानता की सेवा करता है, मेरा असली कर्तव्य भगवान की सेवा है ।" यह मुक्ति है । यह मुक्ति है । इसलिए हर भक्त जिसने  इस सिद्धांत को अपनाया है की "ईश्वर महान हैं, मैं बहुत छोटा हूँ । मुझे करना है... मुझे महान की सेवा करनी है... "यही स्वभाव है । हर कोई काम करने के लिए, कारखाने, कार्यालय जा रहा है । यह क्या है ? महान की सेवा करने के लिए जाना | अन्यथा वह घर पर बैठता । क्यों वह कार्यालय में, कारखाने के लिए जा रहा है ? यह स्वभाव है छोटा महान की सेवा करता है ।
 
तो भगवान, वे सबसे महान हैं । अणोर अणियान महतो महियान (कठ उपनिषद १.२.२०) | तो तुम्हारा काम क्या है ? उनकी सेवा करना, बस । यह स्वाभाविक स्थिति है । भौतिक दुनिया में वह किसी अौर की सेवा करने जा रहा है, (अस्पष्ट), उसकी रोटी के लिए किसी और से; फिर भी, वह सोच रहा है "मैं भगवान हूँ ।" देखो किस तहर का भगवान है वो (हंसी) । यह धूर्त है, वह सोच रहा है की वह भगवान है । अगर वह कार्यालय से निकाल दिया जाता है, उसे रोटी नहीं मिलगी,  और वह भगवान है । यह भौतिक दुनिया है । हर कोई सोच रहा है, "मैं भगवान हूँ ।" इसलिए उन्हे मूढ, धूर्त, बुलाया गया है । वे भगवान के प्रति समर्पण नहीं करते ।
 
न माम दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: माययापहृत ज्ञाना: ([[HI/BG 7.15|भ.गी. ७.१५]]) | अपहृत- ज्ञाना: । उसका असली ज्ञान छीन लिया गया है । वह जानता नहीं है कि वह छोटा है, ईश्वर महान हैं, उसका काम है भगवान की सेवा करना । यह ज्ञान छीन लिया गया है। माययापहृत ज्ञाना अासुरम भावम अाश्रिता: | यह संकेत है। और तुम एक लक्षण से समझ सकते हो । जैसे चावल के पूरे बर्तन में से एक चावल को दबाने से, तुम चावल ठीक है यह समझ सकते हो, इसी तरह, एक लक्षण से तुम समझ सकते हो कि कौन धूर्त है । एक लक्षण से । वो क्या हे? न माम प्रपद्यन्ते । वह कृष्ण का भक्त नहीं है, वह एक धूर्त है । बस इतना ही । एकदम मान लो, किसी भी विचार के बिना, कि जो कृष्ण का भक्त नहीं है, जो कृष्ण के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार नहीं है, वह एक धूर्त है । बस इतना ही । यह हमारा निष्कर्ष है ।
 
बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण ।
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



751101 - Lecture BG 07.05 - Nairobi

तो अगर तुम मानव स्वभाव का अध्ययन करते हो, जो कुछ भी है, वह भगवान में भी है । लेकिन वह उत्तम और असीमित है, और हमारे रासायनिक गुण -बहुत छोटी मात्रा में है । और भौतिक संपर्क के कारण यह अपूर्ण है । तो अगर तुम भौतिक बंधन से मुक्त हो जाते हो, तो तुम उत्तम हो जाते हो । तुम समझ सकते हो की "मैं लगभग भगवान की तरह उत्तम हूँ, लेकिन ईश्वर महान हैं, मैं बहुत, बहुत छोटा हूँ ।" यही अात्म-साक्षात्कार है । यही आत्म-साक्षात्कार है । यदि तुम्हे लगता है, कि "मैं भगवान की तरह ही उत्तम हूँ," यह तुम्हारी मूर्खता है । तुम गुणवत्ता के स्तर पर भगवान की तरह उत्तम हो, लेकिन मात्रा में तुम भगवान की तरह महान नहीं हो । यह आत्म-साक्षात्कार है ।

इसलिए शास्त्र कहते हैं कि "यदि छोटी सी मात्रा आध्यात्मिक चिंगारी की समान होती परम पूर्ण के, तो कैसे वह उनके अधीन अा गई है ?" यह तर्क है । हम नियंत्रण के अधीन हैं । भौतिक माहौल में हम पूरी तरह नियंत्रण में हैं । लेकिन जब हम आध्यात्मिक रूप से मुक्त हैं ,फिर भी हम अधीन हैं क्योंकि भगवान महान रहते हैं अौर हम छोटे ही रहेंगे | इसलिए आध्यात्मिक दुनिया में कोई असहमति नहीं है । ईश्वर महान है और हम छोटे हैं, कोई असहमति नहीं है । यही आध्यात्मिक दुनिया है । और भौतिक दुनिया का मतलब है, "ईश्वर महान है, हम छोटे हैं" - इसपर असहमति है । यही भौतिक दुनिया है ।

भौतिक दुनिया और आध्यात्मिक दुनिया के बीच के अंतर को समझने की कोशिश करें । जीव, भगवान का अंशस्वरूप है, लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में हर कोई अपनी स्थिति के बारे में जानता है । जीव, वे जानते हैं "मेरी स्थिति क्या है । मैं भगवान का अंशस्वरूप हूँ ।" इसलिए कोई असहमति नहीं है । सब कुछ अच्छी तरह से चल रहा है । यहाँ इस भौतिक दुनिया में... वह वास्तव में भगवान का अंशस्वरूप है, लेकिन असहमति है । वह गलत सोच रहा है की "मैं भगवान की तरह ही उत्तम हूँ ।" यह भौतिक जीवन है । और मुक्ति का मतलब है... जब हम जीवन की इस गलत अवधारणा से मुक्त हैं, यही मुक्ति है ।

मुक्ति का मतलब है... इसलिए सभी भक्त जिन्होंने मूल रूप से स्वीकार किया है की "ईश्वर महान हैं, मैं छोटा हूँ, अंशस्वरूप । इसलिए, जैसे छोटा महानता की सेवा करता है, मेरा असली कर्तव्य भगवान की सेवा है ।" यह मुक्ति है । यह मुक्ति है । इसलिए हर भक्त जिसने इस सिद्धांत को अपनाया है की "ईश्वर महान हैं, मैं बहुत छोटा हूँ । मुझे करना है... मुझे महान की सेवा करनी है... "यही स्वभाव है । हर कोई काम करने के लिए, कारखाने, कार्यालय जा रहा है । यह क्या है ? महान की सेवा करने के लिए जाना | अन्यथा वह घर पर बैठता । क्यों वह कार्यालय में, कारखाने के लिए जा रहा है ? यह स्वभाव है छोटा महान की सेवा करता है ।

तो भगवान, वे सबसे महान हैं । अणोर अणियान महतो महियान (कठ उपनिषद १.२.२०) | तो तुम्हारा काम क्या है ? उनकी सेवा करना, बस । यह स्वाभाविक स्थिति है । भौतिक दुनिया में वह किसी अौर की सेवा करने जा रहा है, (अस्पष्ट), उसकी रोटी के लिए किसी और से; फिर भी, वह सोच रहा है "मैं भगवान हूँ ।" देखो किस तहर का भगवान है वो (हंसी) । यह धूर्त है, वह सोच रहा है की वह भगवान है । अगर वह कार्यालय से निकाल दिया जाता है, उसे रोटी नहीं मिलगी, और वह भगवान है । यह भौतिक दुनिया है । हर कोई सोच रहा है, "मैं भगवान हूँ ।" इसलिए उन्हे मूढ, धूर्त, बुलाया गया है । वे भगवान के प्रति समर्पण नहीं करते ।

न माम दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: माययापहृत ज्ञाना: (भ.गी. ७.१५) | अपहृत- ज्ञाना: । उसका असली ज्ञान छीन लिया गया है । वह जानता नहीं है कि वह छोटा है, ईश्वर महान हैं, उसका काम है भगवान की सेवा करना । यह ज्ञान छीन लिया गया है। माययापहृत ज्ञाना अासुरम भावम अाश्रिता: | यह संकेत है। और तुम एक लक्षण से समझ सकते हो । जैसे चावल के पूरे बर्तन में से एक चावल को दबाने से, तुम चावल ठीक है यह समझ सकते हो, इसी तरह, एक लक्षण से तुम समझ सकते हो कि कौन धूर्त है । एक लक्षण से । वो क्या हे? न माम प्रपद्यन्ते । वह कृष्ण का भक्त नहीं है, वह एक धूर्त है । बस इतना ही । एकदम मान लो, किसी भी विचार के बिना, कि जो कृष्ण का भक्त नहीं है, जो कृष्ण के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार नहीं है, वह एक धूर्त है । बस इतना ही । यह हमारा निष्कर्ष है ।

बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण ।