HI/Prabhupada 0840 - एक वेश्या थी जिसका वेतन था हीरे के एक लाख टुकड़े: Difference between revisions

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तो वेश्या की एक कहानी है, लक्षहीर । एक वेश्या थी जिसका वेतन य़ा हीरे के एक लाख टुकड़े । कोई बात नहीं कि बड़ा हीरा या छोटा हीरा । यह उसका वेतन था। तो एक आदमी कुष्ठ रोग से पीड़ित था और उसकी सहायता की जा रही थी, उसकी पत्नी उसकी सेवा कर रही थी, बहुत वफादार पत्नी । तो फिर भी, वह उदास था। पत्नी नें पति से पूछा, " तुम उदास क्यों हो ? मैं तुम्हें इतनी सेवा दे रही हूँ। तुम कोढ़ी हो, आप हिल नहीं सकते हो । मैं ले जाती हूँ..... मैं एक टोकरी में तुम ले जाती हूँ । फिर भी, तुम दुखी हो ? " तो उसने माना, "हाँ।" "ओह, कारण क्या है?" "अब, मैं वेश्या लक्षहीर के पास जाना चाहता हूँ ।" जरा देखो। वह कोढ़ी, एक गरीब आदमी, और वह एक वेश्या के पास जाने के लिए इच्छुक है जो हीरे के १००००० टुकड़े लेती है। तो खैर, वह एक वफादार पत्नी थी।वह अपने पति को संतुष्ट करना चाहती थी। किसी न किसी तरह से उसने व्यवस्था की। फिर, जब वह कोढ़ी वेश्या के घर में था, वेश्या नें उसे भोजन के बहुत अच्छे व्यंजन दिए लेकिन सब कुछ दो पात्र में, हर चीज - सोने का एक पात्र, लोहे का दूसरा पात्र । तो जब वह खा रहा था, उसने वेश्या से पूछा, जबकि " तुमने दो बर्तन में क्यों दिया है ?" "अब, मैं जानना चाहती थी कि तुम्हें अलग बर्तन में अलग स्वाद महसूस होता है या नहीं ।" तो उसने कहा कि, " नहीं,स्वाद में कोई फर्क नहीं है । सोने के पात्रे में सूप और लोहे के पात्रे में सूप, स्वाद वही है। " "तो फिर तुम यहां क्यों आए हो?" यह मूर्खता है। पूरी दुनिया इस तरह से चल रही है। वे वही स्वाद चखने की कोशिश कर रहे हैं अलग पात्र में । बस । उनका मन नहीं भरता है । "नहीं, श्रीमान । मैंने पर्याप्त चखा है।" यह तथ्य नहीं है। यही वैराग्य विद्या कहा जाता है, अब अौर चखना नहीं : "यह सब एक ही है, या तो मैं इस पात्र में या उस पात्र में " इसलिए यह कहा जाता है कि सुखम एन्द्रियकम, इन्द्रिय भोग, फर्क नहीं पड़ता कि इसका तुम एक कुत्ते के रूप में या एक इंसान या एक देवता के रूप में आनंद लेते हो या यूरोपीय या अमेरिकी या भारतीय - स्वाद वही है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। तुम एक बेहतर स्वाद नहीं पा सकते हो । बेहतर स्वाद है कृष्ण भावनामृत । परम दृष्टवा निवर्तते ([[Vanisource:BG 2.59|भ गी २।५९]]) तो अगर तुम कृष्ण भावनामृत के लिए अपने स्वाद में वृद्धि नहीं करते, तो तुम इस पात्र और उस पात्र में स्वाद चखने की कोशिश करोगे। यह कानून है। यह होगा, वही कार्य, वही रोग, इस पात्र और उस पात्र में स्वाद चखना : "यह सुस्वादु हो सकता है इस पात्र में, बहुत स्वादिष्ट हो सकता है ..." पूरी दुनिया चल रही है। ये सभी धूर्त, वे सेक्स जीवन चखने के लिए विभिन्न देशों में जाते हैं । वे पेरिस जाते हैं.... सुखम एन्द्रिकम् दैत्य सर्वत्र लभ्यते दैवाद यथा दुक्खम ([[Vanisource:SB 7.6.3|श्री भ ७।६।३]]) । जैसे दुक्खम । दुक्खम का मतलब दुख । तो मान लो एक करोड़पति टाइफाइड से पीड़ित है और एक गरीब आदमी टाइफाइड से पीड़ित है। क्या इसका मतलब यह है कि करोड़पति गरीब आदमी की तुलना में कम पीड़त होगा ? जब तुम्हे टाइफाइड बुखार होता है, तो या तुम अमीर हो या गरीब आदमी, टाइफाइड बुखार के कष्ट वही हैं । इसका मतलब यह नहीं कि "यह आदमी बहुत अमीर है। वह टाइफाइड से पीड़ित नहीं है।" नहीं । दुख वही है अलग अलग पात्र में भी, इसी तरह, खुशी भी अलग अलग पात्र में वही है। यह ज्ञान है। तो क्यों मैं चखने के लिए अपना समय बर्बाद करूँ अलग अलग पात्र में खुशी और दुख ? अलग अलग पात्र मलतब अलग अलग शरीर । तो यह हमारा काम नहीं है। हमारा काम है मूल चेतना को पुनर्जीवित करना, कृष्ण भावनामृत । कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं वर्तमान क्षण में किस पात्र में हूँ । अहैतुमि अप्रतिहता ([[Vanisource:SB 1.2.6|श्री भ १।२।६]]) । तुम कृष्ण भावनामृत का स्वाद चख सकते हो बिना किसी झिझक के बिना किसी रुकावट के । तुम पा सकते हो । केवल तुम्हे अपनी चेतना में झाँकना है और चेतना को सुधारना है। यही मानव जीवन में आवश्यक है। और इसलिए शुरुआत में प्रहलाद महाराज कहते हैं कि दुरलभम मानुषम् जन्म ([[Vanisource:SB 7.6.1|श्री भ ७।६।१]]) यह समझ, यह ज्ञान, केवल मनुष्य जीवन में प्राप्त किया जा सकता है। दुख और संकट का यह विश्लेषण एक इंसान को समझाया जा सकता है। अगर मैं यहाँ तीन दर्जन कुत्तों को बुलाऊँ और उससे कहूँ , "अब, भागवतम सुनो", तो यह संभव नहीं है । कुत्ता श्रीमद-भागवतम को समझने में सक्षम नहीं हो सकता है, लेकिन एक मनुष्य कितना भी गिरा हुअा क्याों न हो, लेकि अगर बुद्धि है थोड़ी भी, वह समझ जाएगा । इसलिए प्रहलाद महाराज कहते हैं, दुर्लभम मानुषम जन्म । तुम्हे भागवत-धर्म क्या है यह समझने का अवसर मिला है। बिल्लियों और कुत्तों की तरह इस मौके को मत खोना।
तो वेश्या की एक कहानी है, लक्षहीर । एक वेश्या थी जिसका वेतन था हीरे के एक लाख टुकड़े । कोई बात नहीं की बड़ा हीरा या छोटा हीरा । यह उसका वेतन था । तो एक आदमी कुष्ठ रोग से पीड़ित था और उसकी सहायता की जा रही थी, उसकी पत्नी उसकी सेवा कर रही थी, बहुत वफादार पत्नी थी । तो फिर भी, वह उदास था । पत्नी नें पति से पूछा, "तुम उदास क्यों हो ? मैं तुम्हें इतनी सेवा दे रही हूँ । तुम कोढ़ी हो, तुम हिल नहीं सकते हो । मैं ले जाती हूँ... मैं एक टोकरी में तुम ले जाती हूँ । फिर भी, तुम दुखी हो ?" तो उसने माना, "हाँ ।" "ओह, कारण क्या है ?" "अब, मैं वेश्या लक्षहीर के पास जाना चाहता हूँ ।" जरा देखो । वह कोढ़ी, एक गरीब आदमी, और वह एक वेश्या के पास जाने के लिए इच्छुक है जो हीरे के १,००,००० टुकड़े लेती है ।  


बहुत बहुत धन्यवाद।
तो खैर, वह एक वफादार पत्नी थी ।वह अपने पति को संतुष्ट करना चाहती थी । किसी न किसी तरह से उसने व्यवस्था की । फिर, जब वह कोढ़ी वेश्या के घर में था, वेश्या नें उसे भोजन के बहुत अच्छे व्यंजन दिए, लेकिन सब कुछ दो पात्र में, हर चीज - सोने का एक पात्र, लोहे का दूसरा पात्र । तो जब वह खा रहा था, उसने वेश्या से पूछा, "तुमने दो बर्तन में क्यों दिया है ?" "अब, मैं जानना चाहती थी कि तुम्हें अलग बर्तन में अलग स्वाद महसूस होता है या नहीं ।" तो उसने कहा कि, "नहीं, स्वाद में कोई फर्क नहीं है । सोने के पात्रे में सूप और लोहे के पात्रे में सूप, स्वाद वही है ।" "तो फिर तुम यहां क्यों आए हो ?" यह मूर्खता है । पूरी दुनिया इस तरह से चल रही है ।
 
वे वही स्वाद चखने की कोशिश कर रहे हैं अलग पात्र में । बस । उनका मन नहीं भरता है । "अब नहीं, श्रीमान । मैंने पर्याप्त चखा है ।" यह तथ्य नहीं है । यही वैराग्य विद्या कहा जाता है, अब अौर चखना नहीं: "यह सब एक ही है, या तो मैं इस पात्र में या उस पात्र में ।" इसलिए यह कहा जाता है कि सुखम एन्द्रियकम, इन्द्रिय भोग, फर्क नहीं पड़ता कि इसका तुम एक कुत्ते के रूप में या एक इंसान या एक देवता के रूप में आनंद लेते हो, या यूरोपीय या अमेरिकी या भारतीय - स्वाद वही है । यह बहुत महत्वपूर्ण है । तुम एक बेहतर स्वाद नहीं पा सकते हो । बेहतर स्वाद है कृष्ण भावनामृत । परम दृष्टवा निवर्तते ([[HI/BG 2.59|भ.गी. २.५९]]) |
 
तो अगर तुम कृष्ण भावनामृत के लिए अपने स्वाद में वृद्धि नहीं करते, तो तुम इस पात्र और उस पात्र में स्वाद चखने की कोशिश करोगे । यह कानून है । यह होगा, वही कार्य, वही रोग, इस पात्र और उस पात्र में स्वाद चखना: "यह सुस्वादु हो सकता है इस पात्र में, बहुत स्वादिष्ट हो सकता है..." पूरी दुनिया चल रही है । ये सभी धूर्त, वे यौन जीवन चखने के लिए विभिन्न देशों में जाते हैं । वे पेरिस जाते हैं... सुखम एन्द्रियकम दैत्य, सर्वत्र लभ्यते दैवाद यथा दुःखम ([[Vanisource:SB 7.6.3|श्रीमद भागवतम ७.६.३]]) । जैसे दुःखम । दुःखम का मतलब दुख ।
 
तो मान लो एक करोड़पति टाइफाइड से पीड़ित है और एक गरीब आदमी टाइफाइड से पीड़ित है । क्या इसका मतलब यह है कि करोड़पति गरीब आदमी की तुलना में कम पीड़त होगा ? जब तुम्हे टाइफाइड बुखार होता है, तो या तुम अमीर हो या गरीब आदमी, टाइफाइड बुखार के कष्ट वही हैं । इसका मतलब यह नहीं की "यह आदमी बहुत अमीर है । वह टाइफाइड से पीड़ित नहीं है ।" नहीं । दुःख वही है अलग अलग पात्र में भी, इसी तरह, खुशी भी अलग अलग पात्र में वही है । यह ज्ञान है । तो क्यों मैं अपना समय बर्बाद करूँ, अलग अलग पात्र में सुख और दुःख चखने के लिए ? अलग अलग पात्र मलतब अलग अलग शरीर । तो यह हमारा काम नहीं है ।
 
हमारा काम है मूल चेतना को पुनर्जीवित करना, कृष्ण भावनामृत । कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं वर्तमान क्षण में किस पात्र में हूँ । अहैतुकी अप्रतिहता ([[Vanisource:SB 1.2.6|श्रीमद भागवतम १.२.६]]) । तुम कृष्ण भावनामृत का स्वाद चख सकते हो बिना किसी झिझक के, बिना किसी रुकावट के । तुम पा सकते  हो । केवल तुम्हे अपनी चेतना में झाँकना है और चेतना को सुधारना है । यही मानव जीवन में आवश्यक है । और इसलिए शुरुआत में प्रहलाद महाराज कहते हैं कि दुर्लभम मानुषम जन्म ([[Vanisource:SB 7.6.1|श्रीमद भागवतम ७.६.१]]) |
 
यह समझ, यह ज्ञान, केवल मनुष्य जीवन में प्राप्त किया जा सकता है । दुःख और संकट का यह विश्लेषण एक इंसान को समझाया जा सकता है । अगर मैं यहाँ तीन डज़न कुत्तों को बुलाऊँ और उससे कहूँ, "अब, भागवतम सुनो", तो यह संभव नहीं है । कुत्ता श्रीमद-भागवतम को समझने में सक्षम नहीं हो सकता है, लेकिन एक मनुष्य, कितना भी गिरा हुअा क्याों न हो, लेकि अगर बुद्धि है थोड़ी भी, वह समझ जाएगा । इसलिए प्रहलाद महाराज कहते हैं, दुर्लभम मानुषम जन्म । तुम्हे भागवत-धर्म क्या है यह समझने का अवसर मिला है । बिल्लियों और कुत्तों की तरह इस मौके को मत खोना ।
 
बहुत बहुत धन्यवाद ।
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



751204 - Lecture SB 07.06.03 - Vrndavana

तो वेश्या की एक कहानी है, लक्षहीर । एक वेश्या थी जिसका वेतन था हीरे के एक लाख टुकड़े । कोई बात नहीं की बड़ा हीरा या छोटा हीरा । यह उसका वेतन था । तो एक आदमी कुष्ठ रोग से पीड़ित था और उसकी सहायता की जा रही थी, उसकी पत्नी उसकी सेवा कर रही थी, बहुत वफादार पत्नी थी । तो फिर भी, वह उदास था । पत्नी नें पति से पूछा, "तुम उदास क्यों हो ? मैं तुम्हें इतनी सेवा दे रही हूँ । तुम कोढ़ी हो, तुम हिल नहीं सकते हो । मैं ले जाती हूँ... मैं एक टोकरी में तुम ले जाती हूँ । फिर भी, तुम दुखी हो ?" तो उसने माना, "हाँ ।" "ओह, कारण क्या है ?" "अब, मैं वेश्या लक्षहीर के पास जाना चाहता हूँ ।" जरा देखो । वह कोढ़ी, एक गरीब आदमी, और वह एक वेश्या के पास जाने के लिए इच्छुक है जो हीरे के १,००,००० टुकड़े लेती है ।

तो खैर, वह एक वफादार पत्नी थी ।वह अपने पति को संतुष्ट करना चाहती थी । किसी न किसी तरह से उसने व्यवस्था की । फिर, जब वह कोढ़ी वेश्या के घर में था, वेश्या नें उसे भोजन के बहुत अच्छे व्यंजन दिए, लेकिन सब कुछ दो पात्र में, हर चीज - सोने का एक पात्र, लोहे का दूसरा पात्र । तो जब वह खा रहा था, उसने वेश्या से पूछा, "तुमने दो बर्तन में क्यों दिया है ?" "अब, मैं जानना चाहती थी कि तुम्हें अलग बर्तन में अलग स्वाद महसूस होता है या नहीं ।" तो उसने कहा कि, "नहीं, स्वाद में कोई फर्क नहीं है । सोने के पात्रे में सूप और लोहे के पात्रे में सूप, स्वाद वही है ।" "तो फिर तुम यहां क्यों आए हो ?" यह मूर्खता है । पूरी दुनिया इस तरह से चल रही है ।

वे वही स्वाद चखने की कोशिश कर रहे हैं अलग पात्र में । बस । उनका मन नहीं भरता है । "अब नहीं, श्रीमान । मैंने पर्याप्त चखा है ।" यह तथ्य नहीं है । यही वैराग्य विद्या कहा जाता है, अब अौर चखना नहीं: "यह सब एक ही है, या तो मैं इस पात्र में या उस पात्र में ।" इसलिए यह कहा जाता है कि सुखम एन्द्रियकम, इन्द्रिय भोग, फर्क नहीं पड़ता कि इसका तुम एक कुत्ते के रूप में या एक इंसान या एक देवता के रूप में आनंद लेते हो, या यूरोपीय या अमेरिकी या भारतीय - स्वाद वही है । यह बहुत महत्वपूर्ण है । तुम एक बेहतर स्वाद नहीं पा सकते हो । बेहतर स्वाद है कृष्ण भावनामृत । परम दृष्टवा निवर्तते (भ.गी. २.५९) |

तो अगर तुम कृष्ण भावनामृत के लिए अपने स्वाद में वृद्धि नहीं करते, तो तुम इस पात्र और उस पात्र में स्वाद चखने की कोशिश करोगे । यह कानून है । यह होगा, वही कार्य, वही रोग, इस पात्र और उस पात्र में स्वाद चखना: "यह सुस्वादु हो सकता है इस पात्र में, बहुत स्वादिष्ट हो सकता है..." पूरी दुनिया चल रही है । ये सभी धूर्त, वे यौन जीवन चखने के लिए विभिन्न देशों में जाते हैं । वे पेरिस जाते हैं... सुखम एन्द्रियकम दैत्य, सर्वत्र लभ्यते दैवाद यथा दुःखम (श्रीमद भागवतम ७.६.३) । जैसे दुःखम । दुःखम का मतलब दुख ।

तो मान लो एक करोड़पति टाइफाइड से पीड़ित है और एक गरीब आदमी टाइफाइड से पीड़ित है । क्या इसका मतलब यह है कि करोड़पति गरीब आदमी की तुलना में कम पीड़त होगा ? जब तुम्हे टाइफाइड बुखार होता है, तो या तुम अमीर हो या गरीब आदमी, टाइफाइड बुखार के कष्ट वही हैं । इसका मतलब यह नहीं की "यह आदमी बहुत अमीर है । वह टाइफाइड से पीड़ित नहीं है ।" नहीं । दुःख वही है अलग अलग पात्र में भी, इसी तरह, खुशी भी अलग अलग पात्र में वही है । यह ज्ञान है । तो क्यों मैं अपना समय बर्बाद करूँ, अलग अलग पात्र में सुख और दुःख चखने के लिए ? अलग अलग पात्र मलतब अलग अलग शरीर । तो यह हमारा काम नहीं है ।

हमारा काम है मूल चेतना को पुनर्जीवित करना, कृष्ण भावनामृत । कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं वर्तमान क्षण में किस पात्र में हूँ । अहैतुकी अप्रतिहता (श्रीमद भागवतम १.२.६) । तुम कृष्ण भावनामृत का स्वाद चख सकते हो बिना किसी झिझक के, बिना किसी रुकावट के । तुम पा सकते हो । केवल तुम्हे अपनी चेतना में झाँकना है और चेतना को सुधारना है । यही मानव जीवन में आवश्यक है । और इसलिए शुरुआत में प्रहलाद महाराज कहते हैं कि दुर्लभम मानुषम जन्म (श्रीमद भागवतम ७.६.१) |

यह समझ, यह ज्ञान, केवल मनुष्य जीवन में प्राप्त किया जा सकता है । दुःख और संकट का यह विश्लेषण एक इंसान को समझाया जा सकता है । अगर मैं यहाँ तीन डज़न कुत्तों को बुलाऊँ और उससे कहूँ, "अब, भागवतम सुनो", तो यह संभव नहीं है । कुत्ता श्रीमद-भागवतम को समझने में सक्षम नहीं हो सकता है, लेकिन एक मनुष्य, कितना भी गिरा हुअा क्याों न हो, लेकि अगर बुद्धि है थोड़ी भी, वह समझ जाएगा । इसलिए प्रहलाद महाराज कहते हैं, दुर्लभम मानुषम जन्म । तुम्हे भागवत-धर्म क्या है यह समझने का अवसर मिला है । बिल्लियों और कुत्तों की तरह इस मौके को मत खोना ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।