HI/Prabhupada 0873 - भक्ति का मतलब है अपने को उपाधियों से शुद्ध करना: Difference between revisions
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इन्द्रियभोग के लिए मुझे अब यह शरीर मिला है, भारतीय शरीर, तुम्हें ऑस्ट्रेलियाई या अमेरिकी या यूरोपीय शरीर मिला है । लेकिन तुम्हें इस शरीर को बदलना होगा । तथा देहान्तर प्राप्ति: ([[HI/BG 2.13|भ.गी. २.१३]]) | हम शाश्वत हैं । न जायते न म्रियते वा कदाचित ([[HI/BG 2.20|भ.गी. २.२०]]) । आत्मा जन्म नहीं लेता है, न तो यह मरता है । हम सिर्फ शरीर बदलते हैं । तथा देहान्तर प्राप्ति: | जैसे हम अपने शरीर को बदल रहे हैं । | |||
माँ के पेट में हमारा एक छोटा सा शरीर था । यह बढ़ता है, और हम बाहर आ गए । फिर से यह बढ़़ता है । बढ़ना... यह वास्तव में बढ़ नहीं रहा है... यह बदल रहा है । बच्चा अपना शरीर बदल रहा है बड़ा बच्चा बनके, बच्चा अपना शरीर बदल रहा है लड़का बनके, और लड़का अपने शरीर को बदल रहा है जवान बनकर । तो... इस तरह से तुम शरीर बदल रहे हो । यह अनुभव तुम्हें मिला है । तुम्हारा एक बच्चे का शरीर था- तुम्हें याद है । या तुम्हारा एक लड़के का शरीर था - तुम्हें याद है । लेकिन वह शरीर अब नहीं है । लेकिन तुम हो । इसलिए निष्कर्ष यह है कि जब यह शरीर रहने लायक नहीं रहेगा हमें एक और शरीर स्वीकार करना होगा । इसे तथा देहान्तर् प्राप्ति: कहते हैं । इसलिए हमें बदलना होगा । यही प्रकृति का नियम है । | |||
आत्मा अमर है । न जायते न म्रियते वा कदाचित न हन्यते हन्यमाने शरीरे ([[HI/BG 2.20|भ.गी. २.२०]]) | आत्मा का अन्त नहीं हुअा है; केवल एक विशेष प्रकार के शरीर का अंत हुअा है । नहीं । लोगों को यह पता नहीं है । और क्योंकि वे केवल पापी गतिविधियों में लगे हुए हैं, उनका मस्तिष्क इतना सुस्त हो गया है कि वे इस सरल सत्य को नहीं समझ सकते हैं कि जैसे तुम इस जीवन में शरीर बदल रहे हो, इसलिए तुम इस शरीर को बदलोगे दूसरे शरीर में । यह बहुत ही सरल सत्य है । लेकिन भौतिक सभ्यता की उन्नति में, हम इतने सुस्त अौर धूर्त हो गए हैं कि हम नहीं समझ सकते हैं । | |||
लेकिन भारत में अभी भी, हालांकि यह इतना गिर गया है, तुम किसी भी दूरदराज़ के गाँव मे चले जाअो: एक आम आदमी, कोई शिक्षा नहीं है, वह मानता है । वह मानता है । और यहाँ पश्चिमी देशों में, मैंने देखा बहुत बड़े-बड़े प्रोफेसरों को, उन्हें पता नहीं है । मैंने मास्को में, एक बड़े प्रोफेसर, कोटोव्स्की से मुलाकात की । उन्होंने कहा, "स्वामीजी, इस शरीर के खत्म होने के बाद, सब कुछ समाप्त हो जाता है ।" ज़रा देखो । वह एक बड़ा प्रोफेसर है और एक बहुत बड़े विभाग का प्रधान, इन्डोलोजी । उसे कोई जानकारी नहीं है । लेकिन यह तथ्य नहीं है । तथ्य यह है कि हम सब भगवान के अंशस्वरूप हैं, आध्यात्मिक अंश हैं । किसी न किसी तरह से, हम इस भौतिक दुनिया में आ गए हैं इन्द्रिय भोग के लिए । आध्यात्मिक दुनिया में कोई इन्द्रिय भोग नहीं है । इन्द्रिय शुद्धि है । भौतिक दुनिया में इन्द्रियाँ अशुद्ध हैं । वे केवल भौतिक चीज़ों का आनंद लेना चाहते हैं तो कृष्णभावनामृत का अर्थ है तुम अपनी इन्द्रियों को शुद्ध करो ।यही तरीका है । | |||
:सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम | |||
:तत परत्वेन निर्मलम | |||
:ऋषिकेण ऋषिकेश | |||
:सेवनम भक्तिर उच्यते | |||
:([[Vanisource:CC Madhya 19.170|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०]]) | | |||
यह भक्ति मतलब हमें उपाधियों से शुद्ध होना है । यह उपाधि क्या है ? हर कोई सोच रहा है, "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं यूरोपीय हूँ," "मैं ऑस्ट्रेलियाई हूँ," "मैं बिल्ली हूँ", " मैं कुत्ता हूँ", " मैं यह हूँ", "मैं वह हूँ" - शारीरिक । हमें जीवन के इस शारीरिक अवधारणा को शुद्ध करना होगा कि, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" अहम ब्रह्मास्मि: "मैं आत्मा हूँ ।" यह हमें बोध करना होगा । फिर कोई भेद नहीं होगा, "यहाँ एक अमेरिकी है, यहाँ एक ऑस्ट्रेलियाई है, यहाँ एक हिन्दु है, यहाँ एक मुस्लिम है, यहाँ एक पेड़ है, यहाँ..." नहीं । पंड़िता: सम दर्शिन: ([[HI/BG 5.18|भ.गी. ५.१८]]) | पंड़ित मतलब ज्ञानी, जो चीज़ों को यथारूप जानता है । उनके लिए, | |||
:विद्या-विनय-संपन्ने | |||
:ब्राह्मणे गवि हस्तिनि | |||
:शुनि चैव श्व पाके च | |||
:पंड़िता: सम दर्शिन: | |||
:([[HI/BG 5.18|भ.गी. ५.१८]]) | | |||
एक बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति, विद्या, और बहुत ही सौम्य... विद्या मतलब, शिक्षित मतलब, वह शांत, सौम्य है । वह बदमाश और धूर्त नहीं है । यही विद्या है । यही शिक्षा की परीक्षा है । उसे बहुत शिक्षित होना चाहिए... शांत और गंभीर । वह सज्जन कहा जाता है, एक शब्द में । | |||
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020
750519 - Lecture SB - Melbourne
इन्द्रियभोग के लिए मुझे अब यह शरीर मिला है, भारतीय शरीर, तुम्हें ऑस्ट्रेलियाई या अमेरिकी या यूरोपीय शरीर मिला है । लेकिन तुम्हें इस शरीर को बदलना होगा । तथा देहान्तर प्राप्ति: (भ.गी. २.१३) | हम शाश्वत हैं । न जायते न म्रियते वा कदाचित (भ.गी. २.२०) । आत्मा जन्म नहीं लेता है, न तो यह मरता है । हम सिर्फ शरीर बदलते हैं । तथा देहान्तर प्राप्ति: | जैसे हम अपने शरीर को बदल रहे हैं ।
माँ के पेट में हमारा एक छोटा सा शरीर था । यह बढ़ता है, और हम बाहर आ गए । फिर से यह बढ़़ता है । बढ़ना... यह वास्तव में बढ़ नहीं रहा है... यह बदल रहा है । बच्चा अपना शरीर बदल रहा है बड़ा बच्चा बनके, बच्चा अपना शरीर बदल रहा है लड़का बनके, और लड़का अपने शरीर को बदल रहा है जवान बनकर । तो... इस तरह से तुम शरीर बदल रहे हो । यह अनुभव तुम्हें मिला है । तुम्हारा एक बच्चे का शरीर था- तुम्हें याद है । या तुम्हारा एक लड़के का शरीर था - तुम्हें याद है । लेकिन वह शरीर अब नहीं है । लेकिन तुम हो । इसलिए निष्कर्ष यह है कि जब यह शरीर रहने लायक नहीं रहेगा हमें एक और शरीर स्वीकार करना होगा । इसे तथा देहान्तर् प्राप्ति: कहते हैं । इसलिए हमें बदलना होगा । यही प्रकृति का नियम है ।
आत्मा अमर है । न जायते न म्रियते वा कदाचित न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ.गी. २.२०) | आत्मा का अन्त नहीं हुअा है; केवल एक विशेष प्रकार के शरीर का अंत हुअा है । नहीं । लोगों को यह पता नहीं है । और क्योंकि वे केवल पापी गतिविधियों में लगे हुए हैं, उनका मस्तिष्क इतना सुस्त हो गया है कि वे इस सरल सत्य को नहीं समझ सकते हैं कि जैसे तुम इस जीवन में शरीर बदल रहे हो, इसलिए तुम इस शरीर को बदलोगे दूसरे शरीर में । यह बहुत ही सरल सत्य है । लेकिन भौतिक सभ्यता की उन्नति में, हम इतने सुस्त अौर धूर्त हो गए हैं कि हम नहीं समझ सकते हैं ।
लेकिन भारत में अभी भी, हालांकि यह इतना गिर गया है, तुम किसी भी दूरदराज़ के गाँव मे चले जाअो: एक आम आदमी, कोई शिक्षा नहीं है, वह मानता है । वह मानता है । और यहाँ पश्चिमी देशों में, मैंने देखा बहुत बड़े-बड़े प्रोफेसरों को, उन्हें पता नहीं है । मैंने मास्को में, एक बड़े प्रोफेसर, कोटोव्स्की से मुलाकात की । उन्होंने कहा, "स्वामीजी, इस शरीर के खत्म होने के बाद, सब कुछ समाप्त हो जाता है ।" ज़रा देखो । वह एक बड़ा प्रोफेसर है और एक बहुत बड़े विभाग का प्रधान, इन्डोलोजी । उसे कोई जानकारी नहीं है । लेकिन यह तथ्य नहीं है । तथ्य यह है कि हम सब भगवान के अंशस्वरूप हैं, आध्यात्मिक अंश हैं । किसी न किसी तरह से, हम इस भौतिक दुनिया में आ गए हैं इन्द्रिय भोग के लिए । आध्यात्मिक दुनिया में कोई इन्द्रिय भोग नहीं है । इन्द्रिय शुद्धि है । भौतिक दुनिया में इन्द्रियाँ अशुद्ध हैं । वे केवल भौतिक चीज़ों का आनंद लेना चाहते हैं तो कृष्णभावनामृत का अर्थ है तुम अपनी इन्द्रियों को शुद्ध करो ।यही तरीका है ।
- सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम
- तत परत्वेन निर्मलम
- ऋषिकेण ऋषिकेश
- सेवनम भक्तिर उच्यते
- (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) |
यह भक्ति मतलब हमें उपाधियों से शुद्ध होना है । यह उपाधि क्या है ? हर कोई सोच रहा है, "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं यूरोपीय हूँ," "मैं ऑस्ट्रेलियाई हूँ," "मैं बिल्ली हूँ", " मैं कुत्ता हूँ", " मैं यह हूँ", "मैं वह हूँ" - शारीरिक । हमें जीवन के इस शारीरिक अवधारणा को शुद्ध करना होगा कि, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" अहम ब्रह्मास्मि: "मैं आत्मा हूँ ।" यह हमें बोध करना होगा । फिर कोई भेद नहीं होगा, "यहाँ एक अमेरिकी है, यहाँ एक ऑस्ट्रेलियाई है, यहाँ एक हिन्दु है, यहाँ एक मुस्लिम है, यहाँ एक पेड़ है, यहाँ..." नहीं । पंड़िता: सम दर्शिन: (भ.गी. ५.१८) | पंड़ित मतलब ज्ञानी, जो चीज़ों को यथारूप जानता है । उनके लिए,
- विद्या-विनय-संपन्ने
- ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
- शुनि चैव श्व पाके च
- पंड़िता: सम दर्शिन:
- (भ.गी. ५.१८) |
एक बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति, विद्या, और बहुत ही सौम्य... विद्या मतलब, शिक्षित मतलब, वह शांत, सौम्य है । वह बदमाश और धूर्त नहीं है । यही विद्या है । यही शिक्षा की परीक्षा है । उसे बहुत शिक्षित होना चाहिए... शांत और गंभीर । वह सज्जन कहा जाता है, एक शब्द में ।