HI/Prabhupada 0874 - जो आध्यात्मिक मंच पर उन्नत हैं, वह प्रसन्नात्मा है । वह खुश है
750519 - Lecture SB - Melbourne
तो विद्या-विनय, एक सज्जन, बहुत विद्वान विद्या-विनय-संपन्ने ब्रह्मणे गवि और एक गाय, और हस्ती, एक हाथी, विद्या-विनय-संपन्ने ब्रह्मणे गवि हस्तिनि और शुनि - शुनि का मतलब है कुत्ता - और श्वपाक ... श्वपाक का मतलब है एक कुत्ता-भक्षक । बहुत सारे लोग हैं, वे मांस के विभिन्न प्रकार को खाना पसंद करते हैं । लेकिन जो कुत्ते का मांस खाता है, वह बहुत ही निम्न वर्ग का माना जाता है। तो शुनि चैच श्व पाके च पंड़िता: सम दर्शिन: ( ब गी ५।१८) जो पंडिता है, विद्वान, वह सबको देखता है, उन्हें, एक ही स्तर पर । वह एक ही स्तर क्या है? आत्मा । वह बाहरी शरीर को नहीं देखता है। यही कहा जाता है ब्रह्म-दर्शिन: । पंड़िता: सम दर्शिन: अौर अगर कोई उस स्तर पर पहुँच जाता है, ब्रह्म भुत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांकषति । सम: सर्वेषु भूतेषु मद भक्तिम लभते पराम ( भ गी १८।५४) जब किसी को आत्मोपलब्ध होता है कि वह यह शरीर नहीं है वह आत्मा है, ब्रह्म-भूत: तो लक्षण क्या हैं? अब, प्रसन्नात्मा : वह तुरंत बहुत हंसमुख हो जाता है। जब तक हम भौतिक जीवन की शारीरिक अवधारणा में तल्लीन हैं, हमेशा चिंता होगी। यह परीक्षण है। जो चिंता में है, मतलब है कि वह भौतिक्ता में स्थित है । और आध्यात्मिक मंच में जो उन्नत है, वह प्रसन्नात्मा है। वह हंसमुख है। प्रसन्नात्मा का अर्थ क्या है? न शोचति न कांक्शति : वह कुछ भी नहीं चाहता है, और वह हो गया है अगर कुछ खो जाता है, तो वह इसके लिए रोना नहीं है। बस इतना ही। यहाँ भौतिक जगत में हम उत्कंठित हैं उसके लिए जो हमारे पास नहीं है । अौर अगर हमारे पास कुछ है, अगर यह खो जाता है, तो हम रोते हैं । दो काम हैं : शोचन अौर अाकांशा हर कोई बहुत बड़ा आदमी बनने की कोशिश कर रहा है। यही अाकांशा है । अौर अगर वह अपनी चीज़ खो देता है, फिर वह रोता है । तो ये दो बातें खत्म हो जाएँगी अगर तुम स्थित हो जाते हो आध्यात्मिक मंच पर । ब्रह्म-भुत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांकशति सम: सर्वेषु भुतेषु ( भ गी १८।५४) जब तक आत्मिक बोध नहीं होता, वह समान रूप से हर किसी को नहीं देख सकता है । फिर, सम: सर्वेषु भूतेषु मद भक्तिम लभते पराम । फिर वह प्रभु का असली भक्त बन जाता है, ब्रह्म भूत: मंच के पार । तो यह भक्ति मार्ग इतना आसान नहीं है। लेकिन, चैतन्य महाप्रभु की दया से हमने तुम्हारे देश में अर्च विग्रह स्थापित किया है य। तुम बहुत भाग्यशाली हो कि चैतन्य महाप्रभु तुम्हारे देश में अाए है तुम्हे सिखाने के लिए कि कैसे तुम सभी चिंताओं से मुक्त हो सकते हो । यह चैतन्य महाप्रभु का मिशन है। हर कोई चिंता से भरा है, लेकिन हर कोई सभी चिंताओं से मुक्त हो सकता है, अगर वह श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा बनाए पथ का अनुसरण करता है । और श्री चैतन्य महाप्रभु का अनुदेश क्या है? बहुत आसान है। हरेर नाम हरेर नाम हरेर नाम एव केवलम कलौ नास्ति एव नास्ति एव नास्ति एव गतिर अन्यथा ( चै च अादि १७।२१)) यह चैतन्य महाप्रभु का व्यक्तिगत संस्करण नहीं है। यह शास्त्र में है, वैदिक शास्त्र, बृहन्-नारदीय- पुराण में है। यह निर्देश है। लोग इस युग में गिरे हुए हैं, तो विधि भी बहुत सरल बताई गई है । वे बहुत गंभीर तपस्या का पालन नहीं कर सकते हैं। यह संभव नहीं है। उन्हे कहा गया है भगवान के पवित्र नाम का जाप करना । बस इतना ही। कोई भी कर सकता है । यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। फिर अगर तुम कहते हो कि "तुम भारते से हो । तुम्हारा चैतन्य भारतीय है, और उन्होंने हरे कृष्ण की सिफारिश की है। क्यों मैं मंत्र जपूँ ? मेरा अपना भगवान है। " ठीक है, अगर तुम्हारा खुद का भगवान है, फिर तुम उनका नाम जपो । चैतन्य महाप्रभु नहीं कहते हैं कि तुम बस श्री कृष्ण का नाम जपो । अगर तुम्हारा भगवान के साथ कोई रिश्ता है, अौर अगर तुम उनका नाम और पता जानते हो, (हंसी) तो तुम उनका नाम जप कर सकते हो । दुर्भाग्य से, तुम जानते नहीं हो कि भगवान कौन है ; न तुम उनका पता जानते हो, न तो उनकी गतिविधियों को । तो यह श्री कृष्ण को ले लो । यहाँ एक ठोस नाम है । और हम तुम्हें उनका पता देते हैं, उनके पिता का नाम, उनकी माँ का नाम, सब कुछ । तो अगर तुम्हारे पास खुद के भगवान का नाम है, चैतन्य महाप्रभु नेख कहा है कि तुम जाप कर सकते हो । कोई नाम है किसी के पास, भगवान का ? कोई नहीं जानता? भक्त: जेहोवा। प्रभुपाद: जेहोवा। ठीक है, तुम जेहोवा मंत्र का जाप करो । तो यह चैतन्य महाप्रभु की सिफारिश है, अगर तुम्हे लगता है कि यह भगवान का नाम पर है, तो तुम जपो । नामनाम अकारि बहुधा निज सर्व शक्ति: तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल: (चै च अंत्य २०।१६ शिक्शाष्तक २) यह चैतन्य महाप्रभु का अनुदेश है, कि नाम, भगवान का पवित्र नाम भगवान के समान है ।