HI/Prabhupada 0900 - जब इन्द्रियों को इन्द्रिय संतुष्टि के लिए उपयोग किया जाता है, यह माया है: Difference between revisions
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मैं यह दावा कर रहा हूँ कि "यह मेरे हाथ है, यह मेरा पैर है, यह मेरे कान है ।" यहां तक कि बच्चे भी कहते हैं । तुम बच्चों से पूछो, "यह क्या है ?" "यह मेरा हाथ है ।" लेकिन हम दावा कर सकते हैं, लेकिन वास्तव में यह हमारा हाथ नहीं है । यह दिया गया है । | मैं यह दावा कर रहा हूँ कि "यह मेरे हाथ है, यह मेरा पैर है, यह मेरे कान है ।" यहां तक कि बच्चे भी कहते हैं । तुम बच्चों से पूछो, "यह क्या है ?" "यह मेरा हाथ है ।" लेकिन हम दावा कर सकते हैं, लेकिन वास्तव में यह हमारा हाथ नहीं है । यह दिया गया है । क्योंकि मैं कई तरीकों से अपने हाथों का उपयोग करना चाहता था, कृष्ण ने दिया है: "ठीक है, तुम यह हाथ लो । इसका प्रयोग करो ।" तो यह कृष्ण का उपहार है । इसलिए एक समझदार आदमी हमेशा सचेत है, कि, "जो भी मेरे पास है, सब से पहले, यह शरीर और इंद्रियॉ, वे वास्तव में मेरे नहीं हैं । मुझे यह सब संपत्ति दी गई है उपयोगिता के लिए । | ||
तो अगर अंतत: यह सब कुछ श्री कृष्ण का है, तो क्यो न इसका उपयोग किया जाए श्री कृष्ण के लिए ? " यही कृष्ण भावनामृत है। यही कृष्ण भावनामृत है। यही बुद्धिमत्ता है । अगर ये सारी चीज़ें दी गई हैं मेरे इस्तेमाल के लिए, मेरी इन्द्रिय संतुष्टि के लिए, लेकिन अंततः यह श्री कृष्ण का है... ममैवांशो जीव भूत: ([[Vanisource: BG 15.7 (1972) | भ.गी. १५.७]]) | हर कोई श्री कृष्ण का अंशस्वरूप है, इसलिए हर किसी की इन्द्रियॉ भी श्री कृष्ण की हैं । तो जब इन्द्रियॉ श्री कृष्ण की सेवा के लिए उपयोग की जाती हैं, यही जीवन की पूर्णता है । जब तक यह मेरी इन्द्रिय संतुष्टि के लिए उपयोग की जाती है, यह माया है । इसलिए भक्ति का अर्थ है ऋषीकेण ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्यते ([[Vanisource: CC Madhya 19.170 | चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०]]) | ऋषीकेण, इंद्रियों के द्वारा । | |||
यह ऋषीकेश-सेवनम... जब तुम ऋषीकेश की सेवा करते हो, इंद्रियों के असली मालिक की, यही भक्ति कहलाता है । बहुत ही सरल वर्णन है, भक्ति की परिभाषा । ऋषीकेण ऋषीकेश सेवनम ([[Vanisource: CC Madhya 19.170 | चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०]]) । ऋषीकेश सेवनम । ऋषीक सेवनम नहीं । ऋषीक मतलब इंद्रियॉ । तो जब इन्द्रियॉ इन्द्रिय संतुष्टि के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, यह माया है । अौर जब इन्द्रियॉ इंद्रियों के स्वामी की संतुष्टि के लिए उपयोग की जाती हैं, यह भक्ति कहलाता है । एक बहुत ही सरल परिभाषा । कोई भी समझ सकता है । तो आम तौर पर, इस भोतिक जगत में, हर कोई इन्द्रिय संतुष्टि के लिए इंद्रियों का उपयोग कर रहा है । बस । यही उनका बंधन है । यही माया है, भ्रम । और जब वह कृष्ण भावनामृत में आता है, शुद्ध, जब वह समझता है कि वास्तव में ये इन्द्रियॉ श्री कृष्ण की संतुष्टि के लिए हैं, तो वह मुक्त व्यक्ति जो जाता है, मुक्त । मुक्त-पुरुष । मुक्त व्यक्ति । | |||
ईहा यस्य हरेर दास्ये कर्मणा मनसा वाचा । जब हम इस स्थिति पर आते हैं, कि "मेरी इन्द्रियॉ इन्द्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, की सेवा के लिए हैं..." इंद्रियों के मालिक, मेरे दिल में बैठे हैं । भगवद गीता में यह कहा गया है: सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्ठ: "मैं हर किसी के दिल में बैठा हूँ ।" मत्त: स्मृतिर ज्ञानम अपोहनम च ([[Vanisource: BG 15.15 (1972) | भ.गी. १५.१५]]) | "मुझ से स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आ रही है ।" तो क्यों है ये ? क्योंकि श्री कृष्ण इतने दयालु हैं... अगर मैं अपनी इन्द्रियों का उपयोग करता हूँ एक निश्चित तरीके से - मेरी इन्द्रियॉ नहीं, यह श्री कृष्ण की हैं, दी गई - तो श्री कृष्ण मौका देते हैं: "ठीक है, इनका उपयोग करो ।" मान लो, मेरी जीभ है । मैं चाहता हूँ, "कृष्ण, मैं मल खाना चाहता हूँ । मैं मल का स्वाद चखना चाहता हूँ," "हाँ," श्री कृष्ण कहेंगे । "हाँ, तुम सूअर का यह शरीर लो, और मल खाअो ।" स्वामी हैं, श्री कृष्ण । इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं मत्त: स्मृतिर ज्ञानम अपोहनम च ([[Vanisource: BG 15.15 (1972) | भ.गी. १५.१५]]) | वे तुम्हे शरीर देते हैं, तुम्हें याद दिलाते हैं, "मेरे प्रिय जीव, तुम मल खाना चाहते थे ? अब तुम्हे एक उचित शरीर मिला है । अब उपयोग करो । यहाँ मल भी है । " | |||
इसी तरह, अगर तुम देवता बनना चाहते हो, तो यह भी श्री कृष्ण तुम्हे मौका देते हैं । कुछ भी... ८४,००,००० जीवन के रूप हैं । अगर तुम अपनी इन्द्रियों को संलग्न करना चाहते हो किसी भी प्रकार के शरीर में, श्री कृष्ण तुम्हे दे रहे हैं: "चलो । यहाँ शरीर है । तुम लो ।" लेकिन हम हताश हो जाते हैं अपनी इंद्रियों का उपयोग करके । अंततः हम बेहोश हो जाते हैं । इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम ([[Vanisource: BG 18.66 (1972) | भ.गी. १८.६६]]): "इस तरह मत करो । तुम्हारी इन्द्रियॉ हैं मेरी सेवा के लिए । तो तुम इस का दुरुपयोग कर रहे हो । दुरुपयोग करके, तुम शरीर के विभिन्न प्रकारों में फँस रहे हो; इसलिए इस थकाऊ काम से राहत पाने के लिए एक शरीर को स्वीकार करना और फिर उसका त्याग, फिर से एक और शरीर, फिर से एक और... इस भौतिक अस्तित्व को जारी रखने के लिए... अगर तुम इन्द्रिय संतुष्टि की इस प्रक्रिया को त्यगा देते हो और मुझ को आत्मसमर्पण करते हो, फिर तुम बच जाते हो ।" यही कृष्ण भावनामृत है । | |||
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Latest revision as of 08:15, 26 October 2018
730415 - Lecture SB 01.08.23 - Los Angeles
मैं यह दावा कर रहा हूँ कि "यह मेरे हाथ है, यह मेरा पैर है, यह मेरे कान है ।" यहां तक कि बच्चे भी कहते हैं । तुम बच्चों से पूछो, "यह क्या है ?" "यह मेरा हाथ है ।" लेकिन हम दावा कर सकते हैं, लेकिन वास्तव में यह हमारा हाथ नहीं है । यह दिया गया है । क्योंकि मैं कई तरीकों से अपने हाथों का उपयोग करना चाहता था, कृष्ण ने दिया है: "ठीक है, तुम यह हाथ लो । इसका प्रयोग करो ।" तो यह कृष्ण का उपहार है । इसलिए एक समझदार आदमी हमेशा सचेत है, कि, "जो भी मेरे पास है, सब से पहले, यह शरीर और इंद्रियॉ, वे वास्तव में मेरे नहीं हैं । मुझे यह सब संपत्ति दी गई है उपयोगिता के लिए ।
तो अगर अंतत: यह सब कुछ श्री कृष्ण का है, तो क्यो न इसका उपयोग किया जाए श्री कृष्ण के लिए ? " यही कृष्ण भावनामृत है। यही कृष्ण भावनामृत है। यही बुद्धिमत्ता है । अगर ये सारी चीज़ें दी गई हैं मेरे इस्तेमाल के लिए, मेरी इन्द्रिय संतुष्टि के लिए, लेकिन अंततः यह श्री कृष्ण का है... ममैवांशो जीव भूत: ( भ.गी. १५.७) | हर कोई श्री कृष्ण का अंशस्वरूप है, इसलिए हर किसी की इन्द्रियॉ भी श्री कृष्ण की हैं । तो जब इन्द्रियॉ श्री कृष्ण की सेवा के लिए उपयोग की जाती हैं, यही जीवन की पूर्णता है । जब तक यह मेरी इन्द्रिय संतुष्टि के लिए उपयोग की जाती है, यह माया है । इसलिए भक्ति का अर्थ है ऋषीकेण ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्यते ( चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) | ऋषीकेण, इंद्रियों के द्वारा ।
यह ऋषीकेश-सेवनम... जब तुम ऋषीकेश की सेवा करते हो, इंद्रियों के असली मालिक की, यही भक्ति कहलाता है । बहुत ही सरल वर्णन है, भक्ति की परिभाषा । ऋषीकेण ऋषीकेश सेवनम ( चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) । ऋषीकेश सेवनम । ऋषीक सेवनम नहीं । ऋषीक मतलब इंद्रियॉ । तो जब इन्द्रियॉ इन्द्रिय संतुष्टि के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, यह माया है । अौर जब इन्द्रियॉ इंद्रियों के स्वामी की संतुष्टि के लिए उपयोग की जाती हैं, यह भक्ति कहलाता है । एक बहुत ही सरल परिभाषा । कोई भी समझ सकता है । तो आम तौर पर, इस भोतिक जगत में, हर कोई इन्द्रिय संतुष्टि के लिए इंद्रियों का उपयोग कर रहा है । बस । यही उनका बंधन है । यही माया है, भ्रम । और जब वह कृष्ण भावनामृत में आता है, शुद्ध, जब वह समझता है कि वास्तव में ये इन्द्रियॉ श्री कृष्ण की संतुष्टि के लिए हैं, तो वह मुक्त व्यक्ति जो जाता है, मुक्त । मुक्त-पुरुष । मुक्त व्यक्ति ।
ईहा यस्य हरेर दास्ये कर्मणा मनसा वाचा । जब हम इस स्थिति पर आते हैं, कि "मेरी इन्द्रियॉ इन्द्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, की सेवा के लिए हैं..." इंद्रियों के मालिक, मेरे दिल में बैठे हैं । भगवद गीता में यह कहा गया है: सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्ठ: "मैं हर किसी के दिल में बैठा हूँ ।" मत्त: स्मृतिर ज्ञानम अपोहनम च ( भ.गी. १५.१५) | "मुझ से स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आ रही है ।" तो क्यों है ये ? क्योंकि श्री कृष्ण इतने दयालु हैं... अगर मैं अपनी इन्द्रियों का उपयोग करता हूँ एक निश्चित तरीके से - मेरी इन्द्रियॉ नहीं, यह श्री कृष्ण की हैं, दी गई - तो श्री कृष्ण मौका देते हैं: "ठीक है, इनका उपयोग करो ।" मान लो, मेरी जीभ है । मैं चाहता हूँ, "कृष्ण, मैं मल खाना चाहता हूँ । मैं मल का स्वाद चखना चाहता हूँ," "हाँ," श्री कृष्ण कहेंगे । "हाँ, तुम सूअर का यह शरीर लो, और मल खाअो ।" स्वामी हैं, श्री कृष्ण । इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं मत्त: स्मृतिर ज्ञानम अपोहनम च ( भ.गी. १५.१५) | वे तुम्हे शरीर देते हैं, तुम्हें याद दिलाते हैं, "मेरे प्रिय जीव, तुम मल खाना चाहते थे ? अब तुम्हे एक उचित शरीर मिला है । अब उपयोग करो । यहाँ मल भी है । "
इसी तरह, अगर तुम देवता बनना चाहते हो, तो यह भी श्री कृष्ण तुम्हे मौका देते हैं । कुछ भी... ८४,००,००० जीवन के रूप हैं । अगर तुम अपनी इन्द्रियों को संलग्न करना चाहते हो किसी भी प्रकार के शरीर में, श्री कृष्ण तुम्हे दे रहे हैं: "चलो । यहाँ शरीर है । तुम लो ।" लेकिन हम हताश हो जाते हैं अपनी इंद्रियों का उपयोग करके । अंततः हम बेहोश हो जाते हैं । इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम ( भ.गी. १८.६६): "इस तरह मत करो । तुम्हारी इन्द्रियॉ हैं मेरी सेवा के लिए । तो तुम इस का दुरुपयोग कर रहे हो । दुरुपयोग करके, तुम शरीर के विभिन्न प्रकारों में फँस रहे हो; इसलिए इस थकाऊ काम से राहत पाने के लिए एक शरीर को स्वीकार करना और फिर उसका त्याग, फिर से एक और शरीर, फिर से एक और... इस भौतिक अस्तित्व को जारी रखने के लिए... अगर तुम इन्द्रिय संतुष्टि की इस प्रक्रिया को त्यगा देते हो और मुझ को आत्मसमर्पण करते हो, फिर तुम बच जाते हो ।" यही कृष्ण भावनामृत है ।