HI/Prabhupada 0901 - अगर मैं ईर्ष्या नहीं करता हूँ, तो मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ । कोई भी जांच कर सकता है: Difference between revisions

 
No edit summary
 
Line 7: Line 7:
[[Category:HI-Quotes - in USA]]
[[Category:HI-Quotes - in USA]]
[[Category:HI-Quotes - in USA, Los Angeles]]
[[Category:HI-Quotes - in USA, Los Angeles]]
[[Category:Hindi Language]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0900 - जब इन्द्रियों को इन्द्रिय संतुष्टि के लिए उपयोग किया जाता है, यह माया है|0900|HI/Prabhupada 0902 - कमी है कृष्ण भावनामृत की तो अगर तुम कृष्ण भावनाभावित बनते हो तब सब कुछ पर्याप्त है|0902}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 16: Line 20:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|qrfJo39nWhQ|अगर मैं ईर्ष्या नहीं करता हूँ, तो मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ । कोई भी जांच कर सकता है - Prabhupāda 0901}}
{{youtube_right|zeFZlOVcSms|अगर मैं ईर्ष्या नहीं करता हूँ, तो मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ । कोई भी जांच कर सकता है - Prabhupāda 0901}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<mp3player>File:730415SB-LOS_ANGELES_clip3.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/730415SB-LOS_ANGELES_clip3.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 28: Line 32:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
तो वर्तमान समय में, हमारी इंद्रियॉ दूषित हैं। मैं सोच रहा हूँ " मैं अमरीकी हूँ, तो मेरी इन्द्रियों का उपयोग किया जाना चाहिए मेरे देश, मेरे समाज, मेरे राष्ट्र की सेवा के लिए । " बड़े, बड़े नेत, बड़ी, बड़ी इतनी सारी चीजें । वास्तविक अवधारणा यह है कि मैं अमेरिकी हूँ, तो मेरी इन्द्रयॉ अमेरिकी हैं । तो यह अमेरिका के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। " इसी तरह भारतीय सोच रहे हैं, दूसरे सोच रहे हैं । लेकिन उनमें से कोई भी नहीं जानता है कि इन्द्रियों के मालिक श्री कृष्ण हैं । यह अज्ञानता है । कोई बुद्धि नहीं है । वे सोच रहे हैं कि अभी के लिए, ये इन्द्रियॉ, उपाधि, पद, ... अमेरिकी भारतीय इन्द्रियॉ, अफ्रीकी इन्द्रियॉ । नहीं । यह माया कहा जाता है । यह ढका है । इसलिए भक्ति सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम ( चै च मध्य १९।१७०) जब तुम्हारी इन्द्रियॉ इन सभी पदों से अदूषितहो जाएँगी, वह भक्ति की शुरुआत है । अगर मैं सोचता हूँ " मैं अमरीकी हूँ ।क्यों मैं कृष्ण भावनामृत को अपनाँ ? वह हिन्दु भगवान हैं, " यह मूर्खता है । अगर मैं सोचता हूँ "मैं मुसलमान हूँ" " ईसाई हूं", तो तुम भटक गए हो । लेकिन अगर हम इंद्रियों को शुद्ध करते हैं कि "मैं आत्मा हूं । परम आत्मा श्री कृष्ण हैं । मैं श्री कृष्ण का अंशस्वरूप हूँ ; इसलिए मेरा कर्तव्य है श्री कृष्ण की सेवा करना," तो तुम तुरंत मुक्त हो जाते हो । तुरंत । तुम अब न तो अमरीकी, भारतीय या अफ्रीकी या यह या वह हो । तुम कृष्ण भावनाभावित हो । यही अावश्यक है । इसलिए कुंतिदेवी कहती हैं, "ऋषिकेश, मेरे प्रिय श्री कृष्ण, अाप इंद्रियों के मालिक हैं, और इन्द्रिय संतुष्टि के लिए, हम जीवन के इस भौतिक हालत में गिर गए हैं, जीवन की विभिन्न किस्में ।" इसलिए हम पीड़ित हैं, और इस हद तक पीड़ित हैं, यहां तक ​​कि कोई श्री कृष्ण की मां बने ... क्योंकि यह भौतिक दुनिया है, वह भी पीड़ित है, तो दूसरों की क्या बात करें ? देवकी इतनी उन्नत हैं कि वे श्री कृष्ण की मां बनी, लेकिन फिर भी उन्हे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । और कठिनाइयों किसके द्वारा ? उनके भाई, कंस द्वारा । तो यह दुनिया ऐसी ही है । समझने की कोशिश करो । यहां तक ​​कि तुम श्री कृष्ण की मां बनो, और तुम्हारा भाई, जो बहुत निकटतम रिश्तेदार है । तो तुम, दुनिया इतना जलती है, कि अगर किसी के व्यक्तिगत हित में बाधा आती है हर कोई तुम्हे दुख देने के लिए तैयार होगा । यही दुनिया है । हर कोई । भले ही वह भाई है, वह पिता भी है । दूसरों की क्या बात करें ? खलेन । खाल मतलब ईर्ष्या । यह भौतिक जगत जलता है, ईर्ष्या । मैं तुम से ईर्ष्या करता हूँ; तुम मुझसे जलते हो । यह हमारा काम है । यह हमारा काम है । इसलिए यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है उस व्यक्ति के लिए जो जलता नहीं है अब, जो ईर्ष्या नहीं करता है । सही व्यक्ति । धर्म: प्रज्जहित कैतवो अत्र परमो निर्मतसराणाम सताम् वास्तवम वस्तु वेद्यम अत्र ( श्री भ १।१।२) । जो जलते हैं और ईर्ष्या करते हैं, वे इस भोतिक जगत के भीतर हैं । और जो ईर्ष्या नहीं करते हैं, वे आध्यात्मिक दुनिया में हैं । सीधी बात । तुम आपना परीक्षण करो "क्या मैं ईर्ष्या करता हूँ, मेरे अन्य सहयोगियों, दोस्तों, हर किसी का ? " तब मैं भौतिक दुनिया में हूँ । अौर अगर मैं ईर्ष्या नहीं करता हूँ, तो मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ । कोई भी जांच कर सकता है । कोई सवाल ही नहीं है कि क्या मैं आध्यात्मिक उन्नत हूँ या नहीं । तुम अपने आप का परीक्षण कर सकते हो । भक्ति: परेशानुभवो विरक्तिर अन्यत्र (श्री भ ११।२।४२) जैसे यदि तुम तुम खा रहे हो, तो तुम समझ जाअोगे कि तुम संतुष्ट हो या नहीं, क्या तुम्हारी भूख संतुष्ट है । तुम्हे दूसरों से प्रमाण पत्र लेना नहीं पड़ता है । इसी तरह, अपने आप को परीक्षण करो, कि तुम ईर्ष्या करते हो, क्या तुम जलते हो, तो तुम भौतिक दुनिया में हो । और अगर तुम ईर्ष्या नहीं करते हो , अगर तुम जलते नहीं हो, तो तुम आध्यात्मिक दुनिया में हो । तो तुम श्री कृष्ण की सेवा कर सकते हो बहुत अच्छी तरह से अगर तुम ईर्ष्या नहीं करते हो । क्योंकि हमारी ईर्ष्या, जलन की शुरूअात हुई है, श्री कृष्ण से । जैसे मायावादी की तरह: "क्यों श्री कृष्ण भगवान होंगे ? मैं हूँ, मैं भी भगवान हूँ । मैं भी हूँ । "  
तो वर्तमान समय में, हमारी इंद्रियॉ दूषित हैं। मैं सोच रहा हूँ "मैं अमरीकी हूँ, तो मेरी इन्द्रियों का उपयोग किया जाना चाहिए मेरे देश, मेरे समाज, मेरे राष्ट्र की सेवा के लिए ।" बड़े, बड़े नेता, बड़ी, बड़ी, इतनी सारी चीजें । वास्तविक अवधारणा यह है कि मैं अमेरिकी हूँ, तो मेरी इन्द्रयॉ अमेरिकी हैं । तो यह अमेरिका के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। " इसी तरह भारतीय सोच रहे हैं, दूसरे सोच रहे हैं । लेकिन उनमें से कोई भी नहीं जानता है कि इन्द्रियों के मालिक श्री कृष्ण हैं । यह अज्ञानता है । कोई बुद्धि नहीं है । वे सोच रहे हैं कि अभी के लिए, ये इन्द्रियॉ, उपाधि, पद... अमेरिकी इन्द्रिया, भारतीय इन्द्रिया, अफ्रीकी इन्द्रिया । नहीं । यह माया कहा जाता है । यह ढका है । इसलिए भक्ति का मतलब है सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम ([[Vanisource: CC Madhya 19.170|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०]]) | जब तुम्हारी इन्द्रियॉ इन सभी पदों से स्वच्छ हो जाएँगी, वह भक्ति की शुरुआत है ।  
 
अगर मैं सोचता हूँ " मैं अमरीकी हूँ । क्यों मैं कृष्ण भावनामृत को अपनाऊ ? वह हिन्दु भगवान हैं," यह मूर्खता है । अगर मैं सोचता हूँ "मैं मुसलमान हूँ" " ईसाई हूं", तो तुम भटक गए हो । लेकिन अगर हम इंद्रियों को शुद्ध करते हैं कि "मैं आत्मा हूं । परम आत्मा श्री कृष्ण हैं । मैं श्री कृष्ण का अंशस्वरूप हूँ; इसलिए मेरा कर्तव्य है श्री कृष्ण की सेवा करना," तो तुम तुरंत मुक्त हो जाते हो । तुरंत । तुम अब न तो अमरीकी, भारतीय या अफ्रीकी या यह या वह हो । तुम कृष्ण भावनाभावित हो । यही अावश्यक है । इसलिए कुंतिदेवी कहती हैं, "ऋषिकेश, मेरे प्रिय श्री कृष्ण, अाप इंद्रियों के मालिक हैं, और इन्द्रिय संतुष्टि के लिए, हम जीवन के इस भौतिक हालत में गिर गए हैं, जीवन की विभिन्न किस्मो में ।" इसलिए हम पीड़ित हैं, और इस हद तक पीड़ित हैं, यहां तक ​​कि कोई श्री कृष्ण की मां बने ... क्योंकि यह भौतिक दुनिया है, वह भी पीड़ित है, तो दूसरों की क्या बात करें ? देवकी इतनी उन्नत हैं कि वे श्री कृष्ण की मां बनी, लेकिन फिर भी उन्हे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । और कठिनाइ किसके द्वारा ? उनके भाई, कंस द्वारा । तो यह दुनिया ऐसी ही है ।  
 
समझने की कोशिश करो । यहां तक ​​कि तुम श्री कृष्ण की मां बनो, और तुम्हारा भाई, जो बहुत निकटतम रिश्तेदार है । तो तुम, दुनिया इतना जलती है, कि अगर किसी के व्यक्तिगत हित में बाधा आती है, हर कोई तुम्हे दुख देने के लिए तैयार होगा । यही दुनिया है । हर कोई । भले ही वह भाई है, वह पिता भी है । दूसरों की क्या बात करें ? खलेन । खल मतलब ईर्ष्या । यह भौतिक जगत ईर्षालु है । मैं तुम से ईर्ष्या करता हूँ; तुम मुझसे जलते हो । यह हमारा काम है । यह हमारा काम है । इसलिए यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है उस व्यक्ति के लिए जो जलता नहीं है अब, जो ईर्ष्या नहीं करता है । सही व्यक्ति ।  
 
धर्म: प्रोज्जहित कैतवो अत्र परमो निर्मत्सराणाम सताम वास्तवम वस्तु वेद्यम अत्र ([[Vanisource: SB 1.1.2 | श्रीमद भागवतम १.१.२]]) । जो जलते हैं और ईर्ष्या करते हैं, वे इस भोतिक जगत के भीतर हैं । और जो ईर्ष्या नहीं करते हैं, वे आध्यात्मिक दुनिया में हैं । सीधी बात । तुम अपना परीक्षण करो "क्या मैं ईर्ष्या करता हूँ, मेरे अन्य सहयोगी, दोस्त, हर किसी का ? " तब मैं भौतिक दुनिया में हूँ । अौर अगर मैं ईर्ष्या नहीं करता हूँ, तो मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ । कोई भी जांच कर सकता है । कोई सवाल ही नहीं है कि क्या मैं आध्यात्मिक उन्नत हूँ या नहीं । तुम अपने आप का परीक्षण कर सकते हो ।  
 
भक्ति: परेशानुभवो विरक्तिर अन्यत्र स्यात ([[Vanisource: SB 11.2.42 |श्रीमद भागवतम ११.२.४२]]) | जैसे यदि तुम तुम खा रहे हो, तो तुम समझ जाअोगे कि तुम संतुष्ट हो या नहीं, क्या तुम्हारी भूख संतुष्ट है । तुम्हे दूसरों से प्रमाण पत्र लेना नहीं पड़ता है । इसी तरह, अपने आप को परीक्षण करो, कि तुम ईर्ष्या करते हो, क्या तुम जलते हो, तो तुम भौतिक दुनिया में हो । और अगर तुम ईर्ष्या नहीं करते हो, अगर तुम जलते नहीं हो, तो तुम आध्यात्मिक दुनिया में हो । तो तुम श्री कृष्ण की सेवा कर सकते हो बहुत अच्छी तरह से अगर तुम ईर्ष्या नहीं करते हो । क्योंकि हमारी ईर्ष्या, जलन की शुरूअात हुई है, श्री कृष्ण से । जैसे मायावादी की तरह: "क्यों श्री कृष्ण भगवान होंगे ? मैं हूँ, मैं भी भगवान हूँ । मैं भी हूँ । "  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 14:14, 26 October 2018



730415 - Lecture SB 01.08.23 - Los Angeles

तो वर्तमान समय में, हमारी इंद्रियॉ दूषित हैं। मैं सोच रहा हूँ "मैं अमरीकी हूँ, तो मेरी इन्द्रियों का उपयोग किया जाना चाहिए मेरे देश, मेरे समाज, मेरे राष्ट्र की सेवा के लिए ।" बड़े, बड़े नेता, बड़ी, बड़ी, इतनी सारी चीजें । वास्तविक अवधारणा यह है कि मैं अमेरिकी हूँ, तो मेरी इन्द्रयॉ अमेरिकी हैं । तो यह अमेरिका के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। " इसी तरह भारतीय सोच रहे हैं, दूसरे सोच रहे हैं । लेकिन उनमें से कोई भी नहीं जानता है कि इन्द्रियों के मालिक श्री कृष्ण हैं । यह अज्ञानता है । कोई बुद्धि नहीं है । वे सोच रहे हैं कि अभी के लिए, ये इन्द्रियॉ, उपाधि, पद... अमेरिकी इन्द्रिया, भारतीय इन्द्रिया, अफ्रीकी इन्द्रिया । नहीं । यह माया कहा जाता है । यह ढका है । इसलिए भक्ति का मतलब है सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) | जब तुम्हारी इन्द्रियॉ इन सभी पदों से स्वच्छ हो जाएँगी, वह भक्ति की शुरुआत है ।

अगर मैं सोचता हूँ " मैं अमरीकी हूँ । क्यों मैं कृष्ण भावनामृत को अपनाऊ ? वह हिन्दु भगवान हैं," यह मूर्खता है । अगर मैं सोचता हूँ "मैं मुसलमान हूँ" " ईसाई हूं", तो तुम भटक गए हो । लेकिन अगर हम इंद्रियों को शुद्ध करते हैं कि "मैं आत्मा हूं । परम आत्मा श्री कृष्ण हैं । मैं श्री कृष्ण का अंशस्वरूप हूँ; इसलिए मेरा कर्तव्य है श्री कृष्ण की सेवा करना," तो तुम तुरंत मुक्त हो जाते हो । तुरंत । तुम अब न तो अमरीकी, भारतीय या अफ्रीकी या यह या वह हो । तुम कृष्ण भावनाभावित हो । यही अावश्यक है । इसलिए कुंतिदेवी कहती हैं, "ऋषिकेश, मेरे प्रिय श्री कृष्ण, अाप इंद्रियों के मालिक हैं, और इन्द्रिय संतुष्टि के लिए, हम जीवन के इस भौतिक हालत में गिर गए हैं, जीवन की विभिन्न किस्मो में ।" इसलिए हम पीड़ित हैं, और इस हद तक पीड़ित हैं, यहां तक ​​कि कोई श्री कृष्ण की मां बने ... क्योंकि यह भौतिक दुनिया है, वह भी पीड़ित है, तो दूसरों की क्या बात करें ? देवकी इतनी उन्नत हैं कि वे श्री कृष्ण की मां बनी, लेकिन फिर भी उन्हे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । और कठिनाइ किसके द्वारा ? उनके भाई, कंस द्वारा । तो यह दुनिया ऐसी ही है ।

समझने की कोशिश करो । यहां तक ​​कि तुम श्री कृष्ण की मां बनो, और तुम्हारा भाई, जो बहुत निकटतम रिश्तेदार है । तो तुम, दुनिया इतना जलती है, कि अगर किसी के व्यक्तिगत हित में बाधा आती है, हर कोई तुम्हे दुख देने के लिए तैयार होगा । यही दुनिया है । हर कोई । भले ही वह भाई है, वह पिता भी है । दूसरों की क्या बात करें ? खलेन । खल मतलब ईर्ष्या । यह भौतिक जगत ईर्षालु है । मैं तुम से ईर्ष्या करता हूँ; तुम मुझसे जलते हो । यह हमारा काम है । यह हमारा काम है । इसलिए यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है उस व्यक्ति के लिए जो जलता नहीं है अब, जो ईर्ष्या नहीं करता है । सही व्यक्ति ।

धर्म: प्रोज्जहित कैतवो अत्र परमो निर्मत्सराणाम सताम वास्तवम वस्तु वेद्यम अत्र ( श्रीमद भागवतम १.१.२) । जो जलते हैं और ईर्ष्या करते हैं, वे इस भोतिक जगत के भीतर हैं । और जो ईर्ष्या नहीं करते हैं, वे आध्यात्मिक दुनिया में हैं । सीधी बात । तुम अपना परीक्षण करो "क्या मैं ईर्ष्या करता हूँ, मेरे अन्य सहयोगी, दोस्त, हर किसी का ? " तब मैं भौतिक दुनिया में हूँ । अौर अगर मैं ईर्ष्या नहीं करता हूँ, तो मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ । कोई भी जांच कर सकता है । कोई सवाल ही नहीं है कि क्या मैं आध्यात्मिक उन्नत हूँ या नहीं । तुम अपने आप का परीक्षण कर सकते हो ।

भक्ति: परेशानुभवो विरक्तिर अन्यत्र स्यात (श्रीमद भागवतम ११.२.४२) | जैसे यदि तुम तुम खा रहे हो, तो तुम समझ जाअोगे कि तुम संतुष्ट हो या नहीं, क्या तुम्हारी भूख संतुष्ट है । तुम्हे दूसरों से प्रमाण पत्र लेना नहीं पड़ता है । इसी तरह, अपने आप को परीक्षण करो, कि तुम ईर्ष्या करते हो, क्या तुम जलते हो, तो तुम भौतिक दुनिया में हो । और अगर तुम ईर्ष्या नहीं करते हो, अगर तुम जलते नहीं हो, तो तुम आध्यात्मिक दुनिया में हो । तो तुम श्री कृष्ण की सेवा कर सकते हो बहुत अच्छी तरह से अगर तुम ईर्ष्या नहीं करते हो । क्योंकि हमारी ईर्ष्या, जलन की शुरूअात हुई है, श्री कृष्ण से । जैसे मायावादी की तरह: "क्यों श्री कृष्ण भगवान होंगे ? मैं हूँ, मैं भी भगवान हूँ । मैं भी हूँ । "