HI/Prabhupada 0915 - साधु मेरा ह्दय है, और मैं भी साधु का ह्दय हूँ: Difference between revisions

 
(Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
 
Line 7: Line 7:
[[Category:HI-Quotes - in USA]]
[[Category:HI-Quotes - in USA]]
[[Category:HI-Quotes - in USA, Los Angeles]]
[[Category:HI-Quotes - in USA, Los Angeles]]
[[Category:Hindi Language]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0914 - पदार्थ कृष्ण की एक शक्ति है, और अात्मा एक और शक्ति|0914|HI/Prabhupada 0916 - कृष्ण को आपके अच्छे कपड़े या अच्छा फूल या अच्छे भोजन की आवश्यकता नहीं है|0916}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 16: Line 20:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|BPVFczWmOfM|साधु मेरा ह्दय है, और मैं भी साधु का ह्दय हूँ <br/>- Prabhupāda 0915}}
{{youtube_right|AT-DAvDybY4|साधु मेरा ह्दय है, और मैं भी साधु का ह्दय हूँ <br/>- Prabhupāda 0915}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<mp3player>File:730421SB-LOS ANGELES_clip2.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/730421SB-LOS_ANGELES_clip2.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 28: Line 32:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
भक्त: अनुवाद: "हे भगवान, कोई भी अापकी दिव्य लीलाओं को समझ नहीं सकता है जो मानवीय दिखाई देती हैं, और इसलिए भ्रामक हैं । आपकी पक्षपात की कोई विशेष वस्तु नहीं है, और न ही आप ईर्ष्या करते हैं किसी भी वस्तु से । लोग केवल कल्पना करते हैं की आप पक्षोाती हैं । " प्रभुपाद: तो भगवान भगवद गीता में कहते हैं: परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम ( भ गी ४।८) । तो दो उद्देश्य । जब भगवान अवतरित होते हैं, उन्के दो उद्देश्य हैं । एक उद्देश्य है परित्राणाय साधूनाम अौर विनाशाय ....... एक उद्देश्य है श्रद्धालु भक्तों का उद्धार, साधु । साधु मतलब संत व्यक्ति । साधु ... मैंने कई बार समझाया है । साधु का मतलब है भक्त । साधु का मतलब नहीं है सांसारिक ईमानदारी या बेईमानी, नैतिकता या अनैतिकता । इसका भौतिक कर्मों के साथ कुछ लेना देना नहीं है । यह केवल आध्यात्मिक है, साधु । लेकिन कभी कभी हम निष्कर्ष निकालते हैं "साधु," एक व्यक्ति की भौतिक अच्छाई, नैतिकता । लेकिन वास्तव में "साधु" मतलब दिव्य मंच में । जो भक्ति सेवा में लगे हुए हैं । स गुणान समतीत्यैतान ( भ गी १४।२६) । साधु भौतिक गुणों से परे है । तो परित्राणाय साधूनाम ( भ गी ४।८) । यह परित्राणाय मतलब उद्धार करना । अब अगर एक साधु का पहले से ही उद्धार हो चुका है, वह दिव्य मंच पर है तो उसके उद्धार की आवश्यकता कहा है ? यह सवाल है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया जाता है विडम्बनम । यह विस्मयकारी है । यह विरोधाभासी है । यह विरोधाभासी प्रतीत होता है । यदि एक साधु का पहले से ही उद्धार हो चुका है... दिव्य स्थिति मतलब कि वह अब नियंत्रण में नहीं रहा तीन भौतिक गुणों के, सत्व, तमस अौर रजस । क्योंकि यह स्पष्ट रूप से भगवद गीता में कहा गया है : स गुणान समतीत्यैतान ( भ गी १४।२६) वह भौतिक गुणों को पार कर जाता है । एक साधु, भक्त । फिर कहां है मुक्ति का सवाल ? उद्धार ... उसे उद्धार की आवश्यकता नहीं है, एक साधु, लेकिन क्योंकि बहुत उत्सुक है प्रभु को अामने सामने देखने के लिए, यह उसकी आंतरिक इच्छा है, इसलिए श्री कृष्ण आते हैं । उद्धार के लिए नहीं । वह पहले से पार है । वह पहले से ही पार है भौतिक चंगुलों से । लेकिन उसे संतुष्ट करने के लिए, श्री कृष्ण हमेशा हैं... वैसे ही जैसे एक भक्त सभी मामलों में प्रभु को संतुष्ट करना चाहता है, इसी प्रकार, भक्त से अधिक, प्रभु भक्त को संतुष्ट करना चाहते हैं । यही प्रेम का अादान प्रदान है । जैसे तुम्हारे, हमारे साधारण व्यवहार में, अगर तुम किसी से प्यार करते हो, तो तुम उसे संतुष्ट करना चाहते हो । इसी तरह, वह भी करना चाहती है या चाहता है । तो अगर प्रेम का यह अादान प्रदान भौतिक जगत मे है, तो यह कितना उन्नत होगा आध्यात्मिक दुनिया में ? तो एक श्लोक है: "साधु मेरा ह्दय है, और मैं भी साधु का ह्दय हूँ ।" साधु हमेशा श्री कृष्ण का चिंतन करता है और श्री कृष्ण भी हमेशा अपने भक्त का चिंतन करते हैं, साधु ।  
भक्त: अनुवाद: "हे भगवान, कोई भी अापकी दिव्य लीलाओं को समझ नहीं सकता है जो मानवीय दिखाई देती हैं, और इसलिए भ्रामक हैं । आपकी पक्षपात की कोई विशेष वस्तु नहीं है, और न ही आप ईर्ष्या करते हैं किसी भी वस्तु से । लोग केवल कल्पना करते हैं की आप पक्षोाती हैं । "  
 
प्रभुपाद: तो भगवान भगवद गीता में कहते हैं: परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम ([[HI/BG 4.8|भ गी ४.८]]) । तो दो उद्देश्य । जब भगवान अवतरित होते हैं, उन्के दो उद्देश्य हैं । एक उद्देश्य है परित्राणाय साधूनाम अौर विनाशाय... एक उद्देश्य है श्रद्धालु भक्तों का उद्धार, साधु । साधु मतलब संत व्यक्ति । साधु ... मैंने कई बार समझाया है । साधु का मतलब है भक्त ।  
 
साधु का मतलब नहीं है सांसारिक ईमानदारी या बेईमानी, नैतिकता या अनैतिकता । इसका भौतिक कर्मों के साथ कुछ लेना देना नहीं है । यह केवल आध्यात्मिक है, साधु । लेकिन कभी कभी हम निष्कर्ष निकालते हैं "साधु," एक व्यक्ति की भौतिक अच्छाई, नैतिकता । लेकिन वास्तव में "साधु" का मतलब है दिव्य मंच पर । जो भक्ति सेवा में लगे हुए हैं । स गुणान समतीत्यैतान ([[HI/BG 14.26|भ गी १४.२६]]) । साधु भौतिक गुणों से परे है । तो परित्राणाय साधूनाम ([[HI/BG 4.8|भ गी ४.८]]) । यह परित्राणाय मतलब उद्धार करना ।  
 
अब अगर एक साधु का पहले से ही उद्धार हो चुका है, वह दिव्य मंच पर है, तो उसके उद्धार की आवश्यकता कहा है ? यह सवाल है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया जाता है, विडम्बनम । यह विस्मयकारी है । यह विरोधाभासी है । यह विरोधाभासी प्रतीत होता है । यदि एक साधु का पहले से ही उद्धार हो चुका है... दिव्य स्थिति मतलब कि वह अब नियंत्रण में नहीं रहा तीन भौतिक गुणों के, सत्वगुण, तमोगुण अौर रजोगुण । क्योंकि यह स्पष्ट रूप से भगवद गीता में कहा गया है : स गुणान समतीत्यैतान ([[HI/BG 14.26|भ गी १४.२६]]) | वह भौतिक गुणों को पार कर जाता है । एक साधु, भक्त । फिर कहां है मुक्ति का सवाल ?  
 
उद्धार... उसे उद्धार की आवश्यकता नहीं है, एक साधु को, लेकिन क्योंकि वो बहुत उत्सुक है प्रभु को अामने सामने देखने के लिए, यह उसकी आंतरिक इच्छा है, इसलिए श्री कृष्ण आते हैं । उद्धार के लिए नहीं । वह पहले से मुक्त है । वह पहले से ही मुक्त है भौतिक चंगुलों से । लेकिन उसे संतुष्ट करने के लिए, श्री कृष्ण हमेशा हैं... वैसे ही जैसे एक भक्त सभी मामलों में प्रभु को संतुष्ट करना चाहता है, इसी प्रकार, भक्त से अधिक, प्रभु भक्त को संतुष्ट करना चाहते हैं । यही प्रेम का अादान प्रदान है ।  
 
जैसे तुम्हारे, हमारे साधारण व्यवहार में, अगर तुम किसी से प्यार करते हो, तो तुम उसे संतुष्ट करना चाहते हो । इसी तरह, वह भी करना चाहती है या चाहता है । तो अगर प्रेम का यह अादान प्रदान भौतिक जगत मे है, तो यह कितना उन्नत होगा आध्यात्मिक दुनिया में ? तो एक श्लोक है: "साधु मेरा हृदय है, और मैं भी साधु का हृदय हूँ ।" साधु हमेशा श्री कृष्ण का चिंतन करता है और श्री कृष्ण भी हमेशा अपने भक्त का, साधु का, चिंतन करते हैं ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 19:26, 17 September 2020



730421 - Lecture SB 01.08.29 - Los Angeles

भक्त: अनुवाद: "हे भगवान, कोई भी अापकी दिव्य लीलाओं को समझ नहीं सकता है जो मानवीय दिखाई देती हैं, और इसलिए भ्रामक हैं । आपकी पक्षपात की कोई विशेष वस्तु नहीं है, और न ही आप ईर्ष्या करते हैं किसी भी वस्तु से । लोग केवल कल्पना करते हैं की आप पक्षोाती हैं । "

प्रभुपाद: तो भगवान भगवद गीता में कहते हैं: परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम (भ गी ४.८) । तो दो उद्देश्य । जब भगवान अवतरित होते हैं, उन्के दो उद्देश्य हैं । एक उद्देश्य है परित्राणाय साधूनाम अौर विनाशाय... एक उद्देश्य है श्रद्धालु भक्तों का उद्धार, साधु । साधु मतलब संत व्यक्ति । साधु ... मैंने कई बार समझाया है । साधु का मतलब है भक्त ।

साधु का मतलब नहीं है सांसारिक ईमानदारी या बेईमानी, नैतिकता या अनैतिकता । इसका भौतिक कर्मों के साथ कुछ लेना देना नहीं है । यह केवल आध्यात्मिक है, साधु । लेकिन कभी कभी हम निष्कर्ष निकालते हैं "साधु," एक व्यक्ति की भौतिक अच्छाई, नैतिकता । लेकिन वास्तव में "साधु" का मतलब है दिव्य मंच पर । जो भक्ति सेवा में लगे हुए हैं । स गुणान समतीत्यैतान (भ गी १४.२६) । साधु भौतिक गुणों से परे है । तो परित्राणाय साधूनाम (भ गी ४.८) । यह परित्राणाय मतलब उद्धार करना ।

अब अगर एक साधु का पहले से ही उद्धार हो चुका है, वह दिव्य मंच पर है, तो उसके उद्धार की आवश्यकता कहा है ? यह सवाल है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया जाता है, विडम्बनम । यह विस्मयकारी है । यह विरोधाभासी है । यह विरोधाभासी प्रतीत होता है । यदि एक साधु का पहले से ही उद्धार हो चुका है... दिव्य स्थिति मतलब कि वह अब नियंत्रण में नहीं रहा तीन भौतिक गुणों के, सत्वगुण, तमोगुण अौर रजोगुण । क्योंकि यह स्पष्ट रूप से भगवद गीता में कहा गया है : स गुणान समतीत्यैतान (भ गी १४.२६) | वह भौतिक गुणों को पार कर जाता है । एक साधु, भक्त । फिर कहां है मुक्ति का सवाल ?

उद्धार... उसे उद्धार की आवश्यकता नहीं है, एक साधु को, लेकिन क्योंकि वो बहुत उत्सुक है प्रभु को अामने सामने देखने के लिए, यह उसकी आंतरिक इच्छा है, इसलिए श्री कृष्ण आते हैं । उद्धार के लिए नहीं । वह पहले से मुक्त है । वह पहले से ही मुक्त है भौतिक चंगुलों से । लेकिन उसे संतुष्ट करने के लिए, श्री कृष्ण हमेशा हैं... वैसे ही जैसे एक भक्त सभी मामलों में प्रभु को संतुष्ट करना चाहता है, इसी प्रकार, भक्त से अधिक, प्रभु भक्त को संतुष्ट करना चाहते हैं । यही प्रेम का अादान प्रदान है ।

जैसे तुम्हारे, हमारे साधारण व्यवहार में, अगर तुम किसी से प्यार करते हो, तो तुम उसे संतुष्ट करना चाहते हो । इसी तरह, वह भी करना चाहती है या चाहता है । तो अगर प्रेम का यह अादान प्रदान भौतिक जगत मे है, तो यह कितना उन्नत होगा आध्यात्मिक दुनिया में ? तो एक श्लोक है: "साधु मेरा हृदय है, और मैं भी साधु का हृदय हूँ ।" साधु हमेशा श्री कृष्ण का चिंतन करता है और श्री कृष्ण भी हमेशा अपने भक्त का, साधु का, चिंतन करते हैं ।