HI/Prabhupada 0935 - जीवन की वास्तविक आवश्यकता आत्मा के आराम की आपूर्ति है: Difference between revisions

 
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तो यह कहा जाता है कि ... अब मै उस श्लोक को समझा रहा हूँ । धर्मस्य ग्लानिर भवति । यही धर्मस्य ग्लानि:, कर्तव्य की उपेक्षा । धर्म का मतलब है कर्तव्य । धर्म एक तरह की आस्था नहीं है । अंग्रेजी शब्दकोष में यह कहा जाता है: "धर्म मतलब अास्था ।" नहीं, नहीं । यह नहीं है । धर्म मतलब वास्तविक मूल कर्तव्य । यही धर्म है । तो अगर तुम्हे आत्मा की कोई जानकारी नहीं है, तुम्हे पता नहीं है कि आत्मा की जरूरत क्या है, केवल तुम जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं में व्यस्त हो, शारीरिक आराम ... तो शारीरिक आराम तुम्हे नहीं बचाएगा । मान लो एक आदमी बहुत आराम से स्थित है । क्या इसका यह मतलब है कि वह मरेगा नहीं ? वह मरेगा । तो केवल शारीरिक आराम से तुम जीवित रह नहीं सकते हो । योग्यतम ही बलवान है । अस्तित्व के लिए संघर्ष । तो जब हम केवल शरीर का ख्याल रखते हैं, यह धर्मस्य ग्लानि: कहा जाता है, प्रदूषित । हमें पता होना चाहिए कि शरीर की आवश्यकता क्या है और आत्मा की आवश्यकता क्या है । जीवन की वास्तविक आवश्यकता है आत्मा के आराम की आपूर्ति । और आत्मा को भौतिक समायोजन से शान्त नहीं किया जा सकता है । क्योंकि आत्मा एक अलग पहचान है, आत्मा को आध्यात्मिक भोजन दिया जाना चाहिए । यह आध्यात्मिक भोजन यह कृष्ण भावनामृत है । अगर तुम आत्मा को आध्यात्मिक भोजन देते हो ... भोजन, जब कोई बिमार है, उसे आहार और दवा देने पड़ता है । दो बातें जरूरी हैं । अगर तुम केवल दवा दोगे, कोई आहार नहीं, तो यह बहुत सफल नहीं होगा । दोनों बातें । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है भोजन देने के लिए है, मतलब भोजन और दवा, आत्मा को । दवा है हरे कृष्ण महा-मंत्र । भवाषधाच च्रोत्र मनो अभिरामात क उत्तमश्लोक गुणानुवादात पुमान विरज्येत विना पषुघ्नात ([[Vanisource:SB 10.1.4|श्री भ १०।१४]]) । परीक्षित महाराज नें शुकदेव गोस्वामी से कहा, कि "यह भागवत चर्चा जो आप मुझे देने के लिए तैयार हैं, यह साधारण बात नहीं है ।" निवृत्त तर्षैर उपगीयमानात । यह भागवत चर्चा उन व्यक्तियों के लिए रसमई है जो निवृत्त तृष्णा हैं । तृष्णा, तृष्णा का मतलब उत्कंठा । इस भौतिक दुनिया में हर कोई उत्कंठित है, उत्कंठित । तो जो इस उत्कंठा से मुक्त है, वह भागवत का स्वाद ले सकता है, कि यह कितना स्वादिष्ट है । यह एक ऐसी बात है । निवृत्त तर्षैर ... इसी प्रकार भागवत का मतलब है, हरे कृष्ण मंत्र भी भागवत है । भागवत मतलब भगवान से संबंधित कुछ भी । यही भागवत कहा जाता है । परम प्रभु को भगवान कहा जाता है । भागवत-शब्द, और उनके साथ संबंध में, कुछ भी, वह भगवत-शब्द भागवत-शब्द में बदल जाता है । तो परीक्षित महाराज ने कहा कि भागवत का स्वाद वह व्यक्ति रस ले सकता है जिसकी उत्कंठा समाप्त हो गई है भौतिक इच्छाओं के लिए । निवृत्त तर्षैर उपगीयमानात । और क्या है, क्यों ऐसी बात को चखा जाना चाहिए ? भवौषधि । भवौषधि, जन्म और मृत्यु की हमारी बीमारी की दवा । भवौ मतलब "बनना" ।
तो यह कहा जाता है की... अब मै उस श्लोक को समझा रहा हूँ । धर्मस्य ग्लानिर भवति । यही धर्मस्य ग्लानि:, कर्तव्य की उपेक्षा । धर्म का मतलब है कर्तव्य । धर्म एक तरह की आस्था नहीं है । अंग्रेजी शब्दकोष में यह कहा जाता है: "धर्म मतलब अास्था ।" नहीं, नहीं । यह नहीं है । धर्म मतलब वास्तविक मूल कर्तव्य । यही धर्म है । तो अगर तुम्हे आत्मा की कोई जानकारी नहीं है, तुम्हे पता नहीं है कि आत्मा की जरूरत क्या है, केवल तुम जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं में व्यस्त हो, शारीरिक आराम... तो शारीरिक आराम तुम्हे नहीं बचाएगा । मान लो एक आदमी बहुत आराम से स्थित है । क्या इसका यह मतलब है कि वह मरेगा नहीं ? वह मरेगा ।  
 
तो केवल शारीरिक आराम से तुम जीवित रह नहीं सकते हो । योग्यतम ही बलवान है । अस्तित्व के लिए संघर्ष । तो जब हम केवल शरीर का ख्याल रखते हैं, यह धर्मस्य ग्लानि: कहा जाता है, प्रदूषित । हमें पता होना चाहिए कि शरीर की आवश्यकता क्या है और आत्मा की आवश्यकता क्या है । जीवन की वास्तविक आवश्यकता है आत्मा के आराम की आपूर्ति । और आत्मा को भौतिक समायोजन से शान्त नहीं किया जा सकता है । क्योंकि आत्मा एक अलग पहचान है, आत्मा को आध्यात्मिक भोजन दिया जाना चाहिए । यह आध्यात्मिक भोजन यह कृष्ण भावनामृत है ।  
 
अगर तुम आत्मा को आध्यात्मिक भोजन देते हो... भोजन, जब कोई बिमार है, उसे आहार और दवा देने पड़ता है । दो बातें जरूरी हैं । अगर तुम केवल दवा दोगे, कोई आहार नहीं, तो यह बहुत सफल नहीं होगा । दोनों बातें । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन भोजन देने के लिए है, मतलब भोजन और दवा, आत्मा को । दवा है हरे कृष्ण महा-मंत्र । भवौषधाच च्रोत्र मनो अभिरामात क उत्तमश्लोक गुणानुवादात पुमान विरज्येत विना पशुघ्नात ([[Vanisource:SB 10.1.4|श्रीमद भागवतम १०.१.४]]) । परीक्षित महाराज नें शुकदेव गोस्वामी से कहा, कि "यह भागवत चर्चा जो आप मुझे देने के लिए तैयार हैं, यह साधारण बात नहीं है ।" निवृत्त तर्षैर उपगीयमानात । यह भागवत चर्चा उन व्यक्तियों के लिए रसमई है जो निवृत्त तृष्णा हैं ।  
 
तृष्णा, तृष्णा का मतलब उत्कंठा । इस भौतिक दुनिया में हर कोई उत्कंठित है, उत्कंठित । तो जो इस उत्कंठा से मुक्त है, वह भागवत का स्वाद ले सकता है, की यह कितना स्वादिष्ट है । यह एक ऐसी बात है । निवृत्त तर्षैर... इसी प्रकार भागवत का मतलब है, हरे कृष्ण मंत्र भी भागवत है । भागवत मतलब भगवान से संबंधित कुछ भी । यही भागवत कहा जाता है । परम प्रभु को भगवान कहा जाता है । भागवत-शब्द, और उनके साथ संबंध में, कुछ भी, वह भगवत-शब्द भागवत-शब्द में बदल जाता है । तो परीक्षित महाराज ने कहा कि भागवत का स्वाद वो व्यक्ति ले सकता है जिसकी भौतिक इच्छाओं के लिए उत्कंठा समाप्त हो गई है । निवृत्त तर्षैर उपगीयमानात । और क्या है, क्यों ऐसी बात को चखा जाना चाहिए ? भवौषधि । भवौषधि, जन्म और मृत्यु की हमारी बीमारी की दवा । भवौ मतलब "बनना" ।  
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Latest revision as of 13:51, 27 October 2018



730425 - Lecture SB 01.08.33 - Los Angeles

तो यह कहा जाता है की... अब मै उस श्लोक को समझा रहा हूँ । धर्मस्य ग्लानिर भवति । यही धर्मस्य ग्लानि:, कर्तव्य की उपेक्षा । धर्म का मतलब है कर्तव्य । धर्म एक तरह की आस्था नहीं है । अंग्रेजी शब्दकोष में यह कहा जाता है: "धर्म मतलब अास्था ।" नहीं, नहीं । यह नहीं है । धर्म मतलब वास्तविक मूल कर्तव्य । यही धर्म है । तो अगर तुम्हे आत्मा की कोई जानकारी नहीं है, तुम्हे पता नहीं है कि आत्मा की जरूरत क्या है, केवल तुम जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं में व्यस्त हो, शारीरिक आराम... तो शारीरिक आराम तुम्हे नहीं बचाएगा । मान लो एक आदमी बहुत आराम से स्थित है । क्या इसका यह मतलब है कि वह मरेगा नहीं ? वह मरेगा ।

तो केवल शारीरिक आराम से तुम जीवित रह नहीं सकते हो । योग्यतम ही बलवान है । अस्तित्व के लिए संघर्ष । तो जब हम केवल शरीर का ख्याल रखते हैं, यह धर्मस्य ग्लानि: कहा जाता है, प्रदूषित । हमें पता होना चाहिए कि शरीर की आवश्यकता क्या है और आत्मा की आवश्यकता क्या है । जीवन की वास्तविक आवश्यकता है आत्मा के आराम की आपूर्ति । और आत्मा को भौतिक समायोजन से शान्त नहीं किया जा सकता है । क्योंकि आत्मा एक अलग पहचान है, आत्मा को आध्यात्मिक भोजन दिया जाना चाहिए । यह आध्यात्मिक भोजन यह कृष्ण भावनामृत है ।

अगर तुम आत्मा को आध्यात्मिक भोजन देते हो... भोजन, जब कोई बिमार है, उसे आहार और दवा देने पड़ता है । दो बातें जरूरी हैं । अगर तुम केवल दवा दोगे, कोई आहार नहीं, तो यह बहुत सफल नहीं होगा । दोनों बातें । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन भोजन देने के लिए है, मतलब भोजन और दवा, आत्मा को । दवा है हरे कृष्ण महा-मंत्र । भवौषधाच च्रोत्र मनो अभिरामात क उत्तमश्लोक गुणानुवादात पुमान विरज्येत विना पशुघ्नात (श्रीमद भागवतम १०.१.४) । परीक्षित महाराज नें शुकदेव गोस्वामी से कहा, कि "यह भागवत चर्चा जो आप मुझे देने के लिए तैयार हैं, यह साधारण बात नहीं है ।" निवृत्त तर्षैर उपगीयमानात । यह भागवत चर्चा उन व्यक्तियों के लिए रसमई है जो निवृत्त तृष्णा हैं ।

तृष्णा, तृष्णा का मतलब उत्कंठा । इस भौतिक दुनिया में हर कोई उत्कंठित है, उत्कंठित । तो जो इस उत्कंठा से मुक्त है, वह भागवत का स्वाद ले सकता है, की यह कितना स्वादिष्ट है । यह एक ऐसी बात है । निवृत्त तर्षैर... इसी प्रकार भागवत का मतलब है, हरे कृष्ण मंत्र भी भागवत है । भागवत मतलब भगवान से संबंधित कुछ भी । यही भागवत कहा जाता है । परम प्रभु को भगवान कहा जाता है । भागवत-शब्द, और उनके साथ संबंध में, कुछ भी, वह भगवत-शब्द भागवत-शब्द में बदल जाता है । तो परीक्षित महाराज ने कहा कि भागवत का स्वाद वो व्यक्ति ले सकता है जिसकी भौतिक इच्छाओं के लिए उत्कंठा समाप्त हो गई है । निवृत्त तर्षैर उपगीयमानात । और क्या है, क्यों ऐसी बात को चखा जाना चाहिए ? भवौषधि । भवौषधि, जन्म और मृत्यु की हमारी बीमारी की दवा । भवौ मतलब "बनना" ।