HI/Prabhupada 0997 - कृष्ण का कार्य हर किसी के लिए है । इसलिए हम हर किसी का स्वागत करते हैं
730406 - Lecture SB 02.01.01-2 - New York
वैसे भी, यह जप इतना शुभ है । चैतन्य महाप्रभु नें उनका आशीर्वाद दिया है, चेतो दर्पण मार्जनम् भव महा दावाग्नि निर्वापणम (चै च अंत्य २०।१२) । हम इस भौतिक दुनिया में पीड़ित हैं क्योंकि हमारी समझ शुद्ध नहीं है या हमारा हृदय । हृदय शुद्ध नहीं है । तो यह जप हृदय को शुद्ध करने में हमारी मदद करेगा ।
- श्रण्वताम् स्व कथा: कृष्ण:
- पुण्य श्रवण कीर्तन:
- ह्रदि अंत: स्थो अभद्राणि
- विधुनोति सुह्रत सताम
- (श्री भ १।२।१७)
जप इतना अच्छा है कि जैसे ही तुम जप करते हो, या श्री कृष्ण के बारे में सुनते हो - जप भी श्री कृष्ण के बारे में सुनना है - तो तुरंत शुद्ध होने की प्रक्रिया शुरू होती है, चेतो दर्पण मारजनम् (चै च अंत्य २०।१२) और जैसे ही हमारा हृदय शुद्ध होता है, भव महा दावाग्नि निर्वापणम, फिर हम इस भौतिक अस्तित्व के धधकते आग से मुक्त हो जाते हैं । तो जप इतना शुभ है, इसलिए यहां परीक्षित महाराज, शुकदेव गोस्वामी कहते हैं, वरीयान एष ते प्रश्न: कृतो लोक नितम् नृप (श्री भ २।१।१) एक और जगह में, शुकदेव गोस्वा, सूत, सूत गोस्वामी कहते हैं, यत कृत: कृष्ण: सम्प्रश्नो ययात्मा सुप्रसीदति । नैमिषरण्य में महान साधुअों नें श्री कृष्ण के बारे में पूछा, उन्होंने उस तरह से जवाब दिया । यत कृत: कृष्ण-संप्रश्न: "क्योंकि अापने श्री कृष्ण के बारे में पूछा है, यह आपके ह्रदय को शुद्ध करेगा, येनात्मा सुप्रसीदति । तुम अपने ह्रदय में एक बहुत ही दिव्य आनंद, आराम महसूस करोगे ।"
तो वरीयान एष ते प्रश्न: कथतो लोक हितम (श्री भ २।१।१) लोक हितम । असल में हमारा, यह आंदोलन मानव समाज के लिए प्रमुख कल्याणकारी गतिविधि है, लोक हितम । यह एक व्यवसाय नहीं है । व्यापार मतलब मेरा हितम, केवल मेरा लाभ । यह नहीं है । यह कृष्ण का व्यवसाय है । श्री कृष्ण का व्यवसाय मतलब कृष्ण हर किसी के लिए हैं : इसलिए श्री कृष्ण का व्यवसाय हर किसी के लिए है। इसलिए हम हर किसी का स्वागत करते हैं । कोई भेदभाव नहीं है । "यहाँ आओ और मंत्र जपि," लोक हितम । और एक साधु, एक साधु व्यक्ति को हमेशा सोचना चाहिए लोक हितम के बारे में । यही साधु और आम आदमी के बीच का अंतर है । आम आदमी, वह केवल खुद के बारे में सोचता है, या "अपने से जुडे," परिवार के लिए, समुदाय के लिए, समाज के लिए, देश के लिए । ये सभी विस्तारित स्वार्थ हैं । विस्तारित । जब मैं अकेला हूँ, मैं केवल अपने लाभ के बारे में सोच रहा हूँ । जब मैं थोड़ा बड़ा हो जाता हूँ, मैं अपने भाइयों और बहनों के बारे में सोचता हूं, अौर जब मैं थोड़ा उन्नत हो जाता हूं, मैं अपने परिवार के बारे में सोचता हूं । थोडा अौर उन्नत, मैं अपने समुदाय के बारे में सोचता हूं । थोडा अौर उन्नत, मैं अपने देश के बारे में सोचता हूं । या मैं पूरे मानव समाज के बारे में सोच सकता हूं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर । लेकिन श्री कृष्ण इतने बड़े हैं, कि श्री कृष्ण हर किसी को शामिल करते हैं । न केवल मानव समाज, पशु समाज, पक्षी समाज, जानवर समाज, पेड़ समाज- सब कुछ । श्री कृष्ण कहते हैं, अहम बीज प्रद: पिता (भ गी १४।४) : "मैं इन सभी रूपों का बीज प्रदाता पिता हूँ ।"