HI/Prabhupada 1002 - यदि मैं भगवान से किसी लाभ के लिये प्रेम करूँ, तो वह व्यापार है; वो प्रेम नहीं है

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750713 - Conversation B - Philadelphia

सैंडी निक्सन: फिर किसीको कैसे पता लग सकता है कि कौन एैसा प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु है जो उनका मार्गदर्शन कर सकता है ?

प्रभुपाद: जो यह सब सिखाता है - किस प्रकार भगवान को जानना चाहिए और कैसे उनसे प्रेम करना चाहिए - वही आध्यात्मिक गुरु है। वरना वह बेमतलब का छलिया है, कपट है। कभी तो वह भटका देते हैं कि "मैं ही भगवान हूँ।" नादान लोगों को पता नहीं होता भगवान का अर्थ क्या होता है, फिर यह छलिया घोषणा करते हैं कि, "मैं ही भगवान हूँ," और वे लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं। वैसे ही जैसे आपके देश में लोगों ने निक्सन को राष्ट्रपति चुना और वापस खींच लाए। इसका मतलब है कि उन्हें पता नहीं कि सच में प्रामाणिक राष्ट्रपति कौन है, बस किसीको चुन लिया और वापस उन्हें बाहर खींच निकालना पड़ा। वैसे ही लोग तो मूर्ख हैं। कोई भी कपटी आकर कह देता है, " मैं भगवान हूँ," और वे मान लेते हैं। फिर किसी और को भगवान स्वीकार कर लेते हैं। यह चलता रहता है। इसीलिए व्यक्ति को गंभीर छात्र बनना चाहिए, यह समझने के लिए कि भगवान किसे कहते हैं तथा उन्हें प्रेम कैसे करें। यही धर्म है। वरना यह सिर्फ वक़्त की बरबादी है। वही हम सिखाते हैं। औरों में और हम में वही फरक है। हम कृष्ण को, परम् पुरुषोत्तम भगवान को कैसे जानना चाहिए, इस विज्ञान को प्रस्तुत कर रहे हैं। भगवद्गीता है, भागवत है। कुछ मिथ्या नहीं है, प्रामाणिक है। इसीलिए यह एकमात्र ऐसी संस्था है जो आपको सिखा सकता है कि भगवान को कैसे जानना चाहिए और कैसे उन्हें प्रेम करना चाहिए। बस यही दो कार्य हैं। तीसरा कोई कार्य नहीं है। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भगवान से याचना करना हमारा कार्य नहीं है। हमें पता है कि भगवान सबकी जरूरतों को पूरा करते हैं, उनकी भी जिनका कोई धर्म नहीं है। बस कुत्ते बिल्लियों की तरह, उनका कोई धर्म नहीं। उन्हें पता नहीं है कि धर्म क्या है। लेकिन फिर भी, बिल्लियों और कुत्तों के जीवन की आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती है। तो क्यों हम कृष्ण को परेशान कर रहे है, "हमें हमारी रोज़ की रोटी दो" माँग कर? वह पहले से ही आपूर्ति कर रहे है। हमारा काम उनसे प्रेम करना है। यही धर्म है। धर्म परोज्जहित-कैतवः अत्र परमो निरमतसरानाम् सताम् वास्तवाम् वस्तु वेद्यम् अत्र (भागवतम् १.१.२)। स वै पुंमसाम् परो धर्मः यतो भक्तिर् अधोक्षजे (भागवतम १.२.६): "वही जो भगवान से प्रेम करना सिखाता है वह प्रथम श्रेणी का धर्म है।" और वह प्रेम किसी भी भौतिक मकसद के लिए नहीं: "भगवान, तुम मुझे यह दो। फिर मैं आपसे प्रेम करूँगा।" नहीं अहैतुकी। प्रेम का मतलब है किसी भी व्यक्तिगत लाभ के बिना । अगर कुछ लाभ के लिए मैं भगवान से प्रेम करता हूँ, तो वह व्यवसाय है; वह प्रेम नहीं है। अहैतुकी अप्रतिहता। और भगवान से ऐसे प्रेम की किसी भी भौतिक कारण द्वारा जाँच नहीं की जा सकती। किसी भी हालत में, कोई भगवान से प्रेम करना सीख सकता है। यह सशर्त नहीं है कि, "मैं गरीब आदमी हूँ। मैं कैसे भगवान से प्रेम करूँगा? मेरे पास इतना सारा काम है करने के लिए। "नहीं, ऐसा नहीं है। गरीब, अमीर, या युवा या पुराने, काला या सफेद, कोई बंदिश नहीं है। अगर कोई भगवान से प्रेम करना चाहता है, वह उनसे प्रेम कर सकता है।