NE/Prabhupada 1073 - जबसम्म हामी भौतिक प्रबिक्ति माथि हाबी हुन खोज्ने लगावलाइ त्याग्न सक्दैनौ

Revision as of 04:36, 20 August 2015 by Visnu Murti (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Nepali Pages with Videos Category:Prabhupada 1073 - in all Languages Category:NE-Quotes - 1966 Category:NE-Quotes - Le...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

660219-20 - Lecture BG Introduction - New York


Hindi

जब तक हम भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति को नहीं त्यागते भगवद गीता के पन्द्रहवें अध्याय में, इस भौतिक जगत का जीता जागता चित्रण हुअा है । वहॉ कहा गया है कि

ऊर्ध्वमूलमध: शाखम्
अश्वत्थम् प्राहुरव्ययम
छन्दांसि यस्य पर्णानि
यस्तं वेद स वेदवित
(भ गी १५।१)

अब, इस भौतिक जगत का वर्णन किया गया है भगवद्- गीता के पंद्रहवें अध्याय में उस वृक्ष के रुप में जिसकी जड़ें ऊर्ध्वमुखी हैं, ऊर्ध्व मूलम । क्या आपको किसी एसे वृक्ष का अनुभव है जिसकी जड़ ऊपर की तरफ हो ? हमें एसे वृक्ष का अनुभव है, प्रतिबिंब में ऊपर की तरफ जड़ें होती हैं । अगर हम एक नदी या पानी के किसी भी जलाशय के तट पर खड़े हों, हम देख सकते हैं कि पानी के जलाशय के तट पर खडा वृक्ष, शाखाऍ नीचे ओर जड़ें ऊपर प्रतिबिंबित होता है । तो यह भौतिक जगत भी आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिंब है । जैसे पानी की एक जलाशय के तट पर वृक्ष का प्रतिबिंब उल्टा दिखाई देता है, इसी तरह, यह भौतिक जगत, यह छाया कहलाता है । छाया । जैसे छाया या प्रतिबिम्ब में कोई वास्तविकता नहीं होती है, लेकिन छाया या प्रतिबिम्ब से हम समझ सकते हैं कि वास्तविकता है । छाया या प्रतिबिम्ब का उदाहरण, मरुस्थल में जल होने का अाभास मृगमरीचिका बताती है कि मरुस्थल में जल नहीं होता है, लेकिन जल दिखता है । इसी तरह, आध्यात्मिक जगत के प्रतिबिम्ब में, या भौतिक जगत में, निस्सन्देह, कोई सुख नहीं है, कोई जल नहीं है । लेकिन वास्तविक सुख-रूपी असली जल आध्यात्मिक जगत में है । भगवान सुझाव देते हैं कि हम निम्नलिखित प्रकार से अाध्यात्मिक जगत की प्राप्ति कर सकते हैं, निरमान मोहा ।

निर्मान मोहा जित संग दोषा
अध्यात्म नित्या विनिवृत कामा:
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:ख संज्ञैर
गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्
(भ गी १५।५)

पदमव्ययं अर्थात सनातन राज्य (धाम) की प्राप्ती हो सकती है उनसे जो निर्मान मोहा हैं । निर्मान मोहा । निरमान का अर्थ है कि हम उपाधियों के पीछे पडे रहते हैं । कृत्रिम रूप से हम कुछ उपाधि चाहते हैं । कोई 'महाशय' बनना चाहता है, कोई 'प्रभु' बनना चाहता है, कोई राष्ट्रपति बनना चाहता है, या कोई धनवान, कोई राजा, या कोई कुछ और । ये सभी उपाधियॉ, जब तक हम इन उपाधियों से चिपके रहते हैं... क्योंकि ये सभी उपाधीयॉ शरीर से सम्बन्धित हैं, लेकिन हम यह शरीर नहीं हैं । यह अात्मसाक्षात्कार की प्रथम अवस्था है । तो उपाधियों के लिए कोई आकर्षण नहीं होता है । अौर जित संग, संग-दोषा । हम प्रकृति के तीन गुणों से जुड़े हुए हैं, और अगर हम भगवद्भक्तिमय सेवा करके इससे छूट जाते हैं ... तो जब तक हम भगवदभक्ति सेवा से आकर्षित नहीं होते हैं, प्रकृति के तीन गुणों से छूट पाना दुष्कर है । इसलिए भगवान कहते हैं, विनिवृत्त कामा: ये उपाधियॉ या ये अासक्तियॉ हमारी कामवासना, इच्छाअों के कारण है । हम भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहते हैं । जब तक हम प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति को नहीं त्यागते हैं, तक तक भगवान के धाम, सनातन धाम, को वापस जाने की कोई सम्भावना नहीं है । द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:ख संज्ञैर गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् (भ गी १५।५) । वह नित्य अविनाशी धाम, जो यह भौतिक जगत नहीं है, अमूढा: को प्राप्त होता है । अमूढा:, मोहग्रस्त, जो इस झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों द्वारा मोहग्रस्त नहीं है । और जो भगवान की सर्वोच्च सेवा में स्थित रहता है एसा व्यक्ति सहज ही परम धाम को प्राप्त होता है । और उस नित्य धाम में किसी भी सूरज, किसी भी चंद्रमा, या किसी भी बिजली की आवश्यकता नहीं होती है । यह एक झलक है नित्य धाम को प्राप्त करने की ।

Nepali

एस भग्वाद गीतको पन्ध्रौँ अध्यायमा भौतिक दुनियाको सहि चित्रण गरिएकोछ भनिन्छ उर्ध्व-मूलम अधःसखम अस्भत्थम प्रहुर अव्ययम चंदम्सी यस्य पर्नानी यस तम वेद स वेद-वित् एस भग्वाद गीतको पन्ध्रौँ अध्यायमा भौतिक दुनियाको व्याख्या गरिएकोछ जुन रुखको जरा माथितिर फर्किएको हुन्छ, उर्ध्व-मूलम के तपाईले कहिले जरा माथितिर फर्किएको रुख देख्नु भएकोछ? तर हामीले प्रतिबिम्ब को आधारले जरा माथितिर फर्किएको रुख देखनसक्छौं येदि हामी कुनै नदि वा तलावुको किनारमा गई रुखको छायाँ हेर्नेहो भने. कुनै नदि वा तलावुको किनारमा रहेको रुखको छायाँ हेर्नेहो भने, त्यो रुखको टुप्पो मुनितिर र जरा माथितिर देखन सकिन्छ. त्यसैगरि भौतिक संसार पनि बास्तवमा आध्यात्मिक संसारको प्रतिबिम्ब हो. जसरि कुनै नदि वा तलावुको किनारमा रहेको रुखको छायाँमा टुप्पो मुनितिर भएको देखन सकिन्छ त्यसरीनै भौतिक संसारलाइ छायाँ भनिन्छ. छायाँ. छायाँमा कुनै सत्य हुन सक्दैन तर छायाँबाट हामीले यो बुझन सक्छौ कि अन्त कुनै ठाउँ मा सत्य रहेको छ छायाँको एउटा उदाहरण लिदा, मरुभूमिमा पानि को छायाँले यो सुझाउ दिन्छकि मरुभूमिमा कुनै पानि हुदैन, तर मरुभूमिमा पानि हुन्छ त्यसै गरि आध्यात्मिक संसारको छायाँमा वा भौतिक संसारमा निस्चयनै यहाँ कुनै खुसि छैन, पानि छैन तर त्यो साँचो पानि, वा साँचो खुसि आध्यात्मिक संसारमा रहेको हुन्छ. प्रभुले भन्नु हुन्छकि हामी आध्यात्मिक संसारमा पुग्न येसो गर्नुपर्छ, निर्माण-मोह निर्माण-मोह जित-संग-दोस अध्यात्म-नित्य विनिव्रत्ता-कमः द्वंद्वैर विमुक्तः सुख-दुख-सम्ज्नैर गछंटी अमुधः पदम अव्ययम तट पदम अव्ययम अथवा अनन्त राज्य त्यो पुग्न सक्छ जो मानिस निर्माण-मोह हुन्छ निर्माण-मोह, निर्माणको मतलब हामी सबै कुनै प्रकारको पदको पछाडी लाग्छौँ हामी सबै कुनै प्रकारको पद चाहन्छौं कोहि सर बन्न चाहन्छन त कोहि भगवान कोहि रास्ट्रपति बन्न चाहन्छन कोहि धनि बन्न चाहन्छन त कोहि राजा यी सब पदहरु, यी पदहरुसंग हाम्रो लगाव हुन्छ किनकि जब यी सब पदहरु हाम्रो सरिरको भैसक्छन तब हामी यो सरिरनै रहदैनौ यो नै हाम्रो पहिलो आध्यात्मिकताको अनुभूति हो अनि हाम्रो पद हरुसंगको चाहना हुदैन र जित-संग-दोस, संग-दोस अनि हामी भौतिक गुणका तिन सैलीहरुसंग सम्बन्धित हुन्छौं र येदि हामी प्रभुको धार्मिक उपासनाबाट अलग भयौ भने जबसम्म हामी प्रभुको धार्मिक उपासनासंग आकर्सित हुदैनौ हामी भौतिक गुणका तिन सैलीहरुबाट अलग हुन सक्दैनौ त्यसकारण प्रभु भन्नुहुन्छ, विनिव्र्त्ता-कमः यी पद अथवा यी लगावहरु हाम्रो चाहनाक कारण ले उत्पन्न हुन्छन हामीहरु एस भौतिक प्रबिक्ति माथि हाबी हुन खोज्छौं त्येसैले, जबसम्म हामी भौतिक प्रबिक्ति माथि हाबी हुन खोज्ने लगावलाइ त्याग्न सक्दैनौ तबसम्म हामीहरु त्यो सर्वश्रेष्ठ राज्य अथवा सनातन- धाम पुग्न सम्भव हुदौन द्वंद्वैर विमुक्तः सुख-दुख-सम्ज्नैर गछंटी अमुधः पदम अव्ययम तट त्यो अनन्त राज्य, जुन कहिल्यै पनि भौतिक संसार जसरि नस्ट हुनसक्दैन अमुदः को माध्यम बाट पाउन सकिन्छ, अमुदः को अर्थ नहड्बडाउनु हो जो एस झुटो रमाइलोको आकर्सन बाट हड्बडाउदैन जो प्रभुको सर्वश्रेष्ठ सेवामा लागेको हुन्छ उनै त्यो अनन्त राज्यमा पुग्ने सहि मान्छे हुन्छ र त्येस अनन्त राज्यमा कुनै सुर्य चन्द्रमा वा बिजुलीको आवस्येकता पर्दैन येहीनै त्यो अनन्त राज्यमा पुग्ने एउटा जुक्ति हो