HI/BG 10.33

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 33

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥३३॥

शब्दार्थ

अक्षराणाम्—अक्षरों में; अ-कार:—अकार अर्थात् पहला अक्षर; अस्मि—हूँ; द्वन्द्व:—द्वन्द्व समास; सामासिकस्य—सामासिक शब्दों में; च—तथा; अहम्—मैं हूँ; एव—निश्चय ही; अक्षय:—शाश्वत; काल:—काल, समय; धाता—स्रष्टा; अहम्—मैं; विश्वत:-मुख:—ब्रह्मा।

अनुवाद

अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ | मैं शाश्र्वत काल भी हूँ और स्त्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ |

तात्पर्य

अ-कार अर्थात् संस्कृत अक्षर माला का प्रथम अक्षर (अ) वैदिक साहित्य का शुभारम्भ है | अकार के बिना कोई स्वर नहीं हो सकता, इसीलिए यह आदि स्वर है | संस्कृत में कई तरह के सामसिक शब्द होते हैं, जिनमें से राम-कृष्ण जैसे दोहरे शब्द द्वन्द्व कहलाते हैं | इस समास में राम तथा कृष्ण अपने उसी रूप में हैं, अतः यह समास द्वन्द्व कहलाता है |

समस्त मारने वालों में काल सर्वोपरि है, क्योंकि वह सबों को मारता है | काल कृष्णस्वरूप है, क्योंकि समय आने पर प्रलयाग्नि से सब कुछ लय हो जाएगा |

सृजन करने काले जीवों में चतुर्मुखब्रह्मा प्रधान हैं, अतः वे भगवान् कृष्ण के प्रतिक हैं |