HI/BG 10.34

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 34

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥३४॥

शब्दार्थ

मृत्यु:—मृत्यु; सर्व-हर:—सर्वभक्षी; च—भी; अहम्—मैं हूँ; उद्भव:—सृष्टि; च—भी; भविष्यताम्—भावी जगतों में; कीॢत:—यश; श्री:—ऐश्वर्य या सुन्दरता; वाक्—वाणी; च—भी; नारीणाम्—स्त्रियों में; स्मृति:—स्मृति, स्मरणशक्ति; मेधा—बुद्धि; धृति:—²ढ़ता; क्षमा—क्षमा, धैर्य।

अनुवाद

मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ | स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा हूँ |

तात्पर्य

ज्योंही मनुष्य जन्म लेता है, वह क्षण क्षण मरता रहता है | इस प्रकार मृत्यु समस्त जीवों का हर क्षण भक्षण करती रहती है, किन्तु अन्तिम आघात मृत्यु कहलाता है | यह मृत्यु कृष्ण ही है | जहाँ तक भावी विकास का सम्बन्ध है, सारे जीवों में छह परिवर्तन होते हैं – वे जन्मते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक संसार में रहते हैं, सन्तान उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं | इन छहों परिवर्तनों में पहला गर्भ से मुक्ति है और यह कृष्ण है | प्रथम उत्पत्ति ही भावी कार्यों का शुभारम्भ है |

यहाँ जिन सात ऐश्र्वर्यों का उल्लेख है, वे स्त्रीवाचक हैं – कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा | यदि किसी व्यक्ति के पास ये सभी, या इनमें से कुछ ही होते हैं, तो वह यशस्वी होता है | यदि कोई मनुष्य धर्मात्मा है, तो वह यशस्वी होता है | संस्कृत पूर्ण भाषा है, अतः यह अत्यन्त यशस्विनी है | यदि कोई पढ़ने के बाद विषय को स्मरण रख सकता है तो उसे उत्तम स्मृति मिली होती है | केवल अनेक ग्रंथों को पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, किन्तु उन्हें समझकर आवश्यकता पड़ने पर उनका प्रयोग मेधा या बुद्धि कहलाती है | यह दूसरा ऐश्र्वर्य है | अस्थिरता पर विजय पाना धृति या दृढ़ता है | पूर्णतया योग्य होकर यदि कोई विनीत भी हो और सुख तथा दुख में समभाव से रहे तो यह ऐश्र्वर्य क्षमा कहलाता है |