HI/BG 10.36

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 36

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥३६॥

शब्दार्थ

द्यूतम्—जुआ; छलयताम्—समस्त छलियों या धूर्तों में; अस्मि—हूँ; तेज:—तेज, चमकदमक; तेजस्विनाम्—तेजस्वियों में; अहम्—मैं हूँ; जय:—विजय; अस्मि—हूँ; व्यवसाय:—जोखिम या साहस; अस्मि—हूँ; सत्त्वम्—बल; सत्त्व-वताम्—बलवानों का; अहम्—मैं हूँ।

अनुवाद

मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ | मैं विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ |

तात्पर्य

ब्रह्माण्ड में अनेक प्रकार के छलियाँ हैं | समस्त छल-कपट कर्मों में द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) सर्वोपरि है और यह कृष्ण का प्रतीक है | परमेश्र्वर के रूप में कृष्ण किसी भी सामान्य पुरुष की अपेक्षा अधिक कपटी (छल करने वाले) हो सकते हैं | यदि कृष्ण किसी से छल करने की सोच लेते हैं तो उनसे कोई पार नहीं पा सकता | उनकी महानता एकांगी न होकर सर्वांगी है |

वे विजयी पुरुषों की विजय हैं | वे तेजस्वियों का तेज हैं | साहसी तथा कर्मठों में वे सर्वाधिक साहसी और कर्मठ हैं | वे बलवानों में सर्वाधिक बलवान हैं | जब कृष्ण इस धराधाम में विद्यमान थे तो कोई भी उन्हें बल में हरा नहीं सकता था | यहाँ तक कि अपने बाल्यकाल में उन्होंने गोवर्धन उठा लिया था | उन्हें न तो कोई छल में हरा सकता है, न तेज में, न विजय में, न साहस तथा बल में |