HI/BG 10.37

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 37

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥३७॥

शब्दार्थ

वृष्णीनाम्—वृष्णि कुल में; वासुदेव:—द्वारकावासी कृष्ण; अस्मि—हूँ; पाण्डवानाम्—पाण्डवों में; धनञ्जय:—अर्जुन; मुनीनाम्—मुनियों में; अपि—भी; अहम्—मैं हूँ; व्यास:—व्यासदेव, समस्त वेदों के संकलनकर्ता; कवीनाम्—महान विचारकों में; उशना—उशना, शुक्राचार्य; कवि:—विचारक।

अनुवाद

मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ | मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ |

तात्पर्य

कृष्ण आदि भगवान् हैं और बलदेव कृष्ण के निकटतम अंश-विस्तार हैं | कृष्ण तथा बलदेव दोनों ही वासुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, अतः दोनों को वासुदेव कहा जा सकता है | दूसरी दृष्टि से चूँकि कृष्ण कभी वृन्दावन नहीं त्यागते, अतः उनके जितने भी रूप अन्यत्र पाये जाते हैं वे उनके विस्तार हैं | वासुदेव कृष्ण के निकटतम अंश-विस्तार हैं, अतः वासुदेव कृष्ण से भिन्न नहीं है | अतः इस श्लोक में आगत वासुदेव शब्द का अर्थ बलदेव या बलराम माना जाना चाहिए क्योंकि वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं और इस प्रकार वासुदेव के एकमात्र उद्गम हैं | भगवान् के निकटतम अंशों को स्वांश (व्यक्तिगत या स्वकीय अंश) कहते हैं और अन्य प्रकार के भी अंश हैं, जो विभिन्नांश (पृथकीकृत अंश) कहलाते हैं |

पाण्डुपुत्रों में अर्जुन धनञ्जय नाम से विख्यात है | वह समस्त पुरुषों में श्रेष्ठतम है, अतः कृष्णस्वरूप है | मुनियों अर्थात् वैदिक ज्ञान में पटु विद्वानों में व्यास सबसे बड़े हैं, क्योंकि उन्होंने कलियुग में लोगों को समझाने के लिए वैदिक ज्ञान को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया | और व्यास को कृष्ण के एक अवतार भी माने जाते हैं | अतः वे कृष्णस्वरूप हैं | कविगण किसी विषय पर गंभीरता से विचार करने में समर्थ होते हैं | कवियों में उशना अर्थात् शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे, वे अत्यधिक बुद्धिमान तथा दूरदर्शी राजनेता थे | इस प्रकार सुक्राचय कृष्ण के ऐश्र्वर्य के दूसरे स्वरूप हैं |