HI/BG 10.38

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 38

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥३८॥

शब्दार्थ

दण्ड:—दण्ड; दमयताम्—दमन के समस्त साधनों में से; अस्मि—हूँ; नीति:—सदाचार; अस्मि—हूँ; जिगीषताम्—विजय की आकांक्षा करने वालों में; मौनम्—चुह्रश्वपी, मौन; च—तथा; एव—भी; अस्मि—हूँ; गुह्यानाम्—रहस्यों में; ज्ञानम्—ज्ञान; ज्ञान-वताम्—ज्ञानियों में; अहम्—मैं हूँ।

अनुवाद

अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मैं नीति हूँ | रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ |

तात्पर्य

वैसे तो दमन के अनेक साधन हैं, किन्तु इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है दुष्टों का नाश | जब दुष्टों को दण्डित किया जाता है तो दण्ड देने वाला कृष्णस्वरूप होता है | किसी भी क्षेत्र में विजय की आकांक्षा करने वाले में नीति की ही विजय होती है | सुनने, सोचने तथा ध्यान करने की गोपनीय क्रियाओं में मौन ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मौन रहने से जल्दी उन्नति मिलती है | ज्ञानी व्यक्ति वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में, भगवान् की परा तथा अपरा शक्तियों में भेद कर सके | ऐसा ज्ञान साक्षात् कृष्ण है |