HI/BG 12.9

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 9

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥९॥

शब्दार्थ

अथ—यदि, अत:; चित्तम्—मन को; समाधातुम्—स्थिर करने में; न—नहीं; शक्नोषि—समर्थ नहीं हो; मयि—मुझ पर; स्थिरम्—स्थिर भाव से; अभ्यास-योगेन—भक्ति के अभ्यास से; तत:—तब; माम्—मुझको; इच्छा—इच्छा करो; आह्रश्वतुम्—प्राह्रश्वत करने की; धनम्-जय—हे सम्पति के विजेता, अर्जुन।

अनुवाद

हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो | इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो |

तात्पर्य

इस श्लोक में भक्तियोग की दो पृथक्-पृथक् विधियाँ बताई गई हैं | पहली विधि उस व्यक्ति पर लागू होती है, जिसने दिव्य प्रेम द्वारा भगवान् कृष्ण के प्रति वास्तविक आसक्ति उत्पन्न कर ली है | दूसरी विधि उसके लिए है जिसने इस प्रकार से भगवान् कृष्ण के प्रति आसक्ति नहीं उत्पन्न की | इस द्वितीय श्रेणी के लिए नाना प्रकार के विधि-विधान हैं, जिनका पालन करके मनुष्य अन्ततः कृष्ण-आसक्ति अवस्था को प्राप्त हो सकता है | भक्तियोग इन्द्रियों का परिष्कार (संस्कार) है | संसार में इस समय सारी इन्द्रियाँ सदा अशुद्ध हैं, क्योंकि वे इन्द्रियतृप्ति में लगी हुई हैं | लेकिन भक्तियोग के अभ्यास से ये इन्द्रियाँ शुद्ध की जा सकती हैं, और शुद्ध हो जाने पर वे परमेश्र्वर के सीधे सम्पर्क में आ जाती हैं | इस संसार में रहते हुए मैं किसी अन्य स्वामी की सेवा में रत हो सकता हूँ, लेकिन मैं सचमुच उसकी प्रेमपूर्ण सेवा नहीं करता | मैं केवल धन के लिए सेवा करता हूँ | और वह स्वामी भी मुझसे प्रेम नहीं करता, वह मुझसे सेवा कराता है और मुझे धन देता है | अतएव प्रेम का प्रश्न ही नहीं उठता | लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए मनष्य को प्रेम की शुद्ध अवस्था तक ऊपर उठना होता है | यह प्रेम अवस्था इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा भक्ति के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है|

यह ईश्र्वरप्रेम अभी प्रत्येक हृदय में सुप्त अवस्था में है | वहाँ पर यह ईश्र्वरप्रेम अनेक रूपों में प्रकट होता है, लेकिन भौतिक संगति से दूषित हो जाता है | अतएव उस भौतिक संगति से हृदय को विमल बनाना होता है और उस सुप्त स्वाभाविक कृष्ण-प्रेम को जागृत करना होता है | यही भक्तियोग की पुरु विधि है | भक्तियोग के विधि-विधानों का अभ्यास करने के लिए मनुष्य को किसी सुविज्ञ गुरु के मार्गदर्शन में कतिपय नियमों का पालन करना होता है – यथा ब्रह्ममुहूर्त में जागना, स्नान करना, मन्दिर में जाना तथा प्रार्थना करना एवं हरे कृष्ण कीर्तन करना, फिर अर्चा-विग्रह पर चढ़ाने के लिए फूल चुनना, अर्चा-विग्रह पर भोग चढ़ाने के लिए भोजन बनाना, प्रसाद ग्रहण करना अदि | ऐसे अनेक विधि-विधान हैं, जिनका पलान आवश्यक है | मनुष्य को शुद्ध भक्तों से नियमित रूप से भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत सुनना चाहिए | इस अध्याय से कोई भी ईश्र्वर-प्रेम के स्तर तक उठ सकता है और तब भगवद्धाम तक उसका पहुँचना ध्रुव है | विधि-विधानों के अन्तर्गत गुरु के आदेशानुसार भक्तियोग का यह अभ्यास करके मनुष्य निश्चय ही भगवत्प्रेम की अवस्था को प्राप्त हो सकेगा |