HI/BG 12.8

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 8

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥८॥

शब्दार्थ

मयि—मुझमें; एव—निश्चय ही; मन:—मन को; आधत्स्व—स्थिर करो; मयि—मुझमें; बुद्धिम्—बुद्धि को; निवेशय—लगाओ; निवसिष्यसि—तुम निवास करोगे; मयि—मुझमें; एव—निश्चय ही; अत: ऊध्र्वम्—तत्पश्चात्; न—कभी नहीं; संशय:—सन्देह।

अनुवाद

मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ | इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे |

तात्पर्य

जो भगवान् कृष्ण की भक्ति में रत रहता है, उसका परमेश्र्वर के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है | अतएव इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि प्रारम्भ से ही उसकी स्थिति दिव्य होती है | भक्त कभी भौतिक धरातल पर नहीं रहता – वह सदैव कृष्ण में वास करता है | भगवान् का पवित्र नाम तथा भगवान् अभिन्न हैं | अतः जब भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करता है, तो कृष्ण तथा उनकी अन्तरंगाशक्ति भक्त की जिह्वा पर नाचते रहते हैं | जब वह कृष्ण को भोग चढ़ाता है, जो कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करते हैं और इस तरह इस उच्छिष्ट (जूठन) को खाकर कृष्णमाय हो जाता है | जो इस प्रकार सेवा में ही नहीं लगता, वह नहीं समझ पाता कि यह सब कैसे होता है, यद्यपि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में इसी विधि की संस्तुति की गई है |