HI/BG 13.14

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 14

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१४॥

शब्दार्थ

सर्वत:—सर्वत्र; पाणि—हाथ; पादम्—पैर; तत्—वह; सर्वत:—सर्वत्र; अक्षि—आँखें; शिर:—सिर; मुखम्—मुँह; सर्वत:—सर्वत्र; श्रुति-मत्—कानों से युक्त; लोके—संसार में; सर्वम्—हर वस्तु; आवृत्य—व्याह्रश्वत करके; तिष्ठति—अवस्थित है।

अनुवाद

उनके हाथ, पाँव, आखें, सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं | इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है |

तात्पर्य

जिस प्रकार सूर्य अपनी अनन्त रश्मियों को विकर्ण करके स्थित है, उसी प्रकार परमात्मा या भगवान् भी हैं | वे अपने सर्वव्यापी रूप में स्थित रहते हैं, और उनमें आदि शिक्षक ब्रह्मा से लेकर छोटी सी चींटी तक के सारे जीव स्थित हैं | उनके अनन्त शिर, हाथ , पाँव तथा नेत्र हैं, और अनन्त जीव हैं | ये सभी परमात्मा में ही स्थित हैं | अतएव परमात्मा सर्वव्यापक है | लेकिन आत्मा यह नहीं कह सकता कि उसके हाथ, पाँव तथा नेत्र चारों दिशाओं में हैं | यह सम्भव नहीं है | यदि वह अज्ञान के कारण यह सोचता है कि उसे इसका ज्ञान नहीं है कि उसके हाथ तथा पैर चतुर्दिक प्रसरित हैं, किन्तु समुचित ज्ञान होने पर ऐसी स्थिति में आ जायेगा तो उसका सोचना उल्टा है | इसका अर्थ यही होता है कि प्रकृति द्वारा बद्ध होने के कारण आत्मा परम नहीं है | परमात्मा आत्मा से भिन्न है | परमात्मा अपना हाथ असीम दूरी तक फैला सकता है, किन्तु आत्मा ऐसा नहीं कर सकता | भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि यदि कोई उन्हें पत्र, पुष्प या जल अर्पित करता है, तो वे उसे स्वीकार करते हैं | यदि भगवान् दूर होते तो फिर इन वस्तुओं को वे कैसे स्वीकार कर पाते? यही भगवान् की सर्वशक्तिमता है | यद्यपि वे पृथ्वी से बहुत दूर अपने धाम में स्थित हैं, तो भी वे किसी के द्वारा अर्पित कोई भी वस्तु अपना हाथ फैला कर ग्रहण कर सकते हैं | यही उनकी शक्तिमता है | ब्रह्मसंहिता में (५.३७) कहा गया है – गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः – यद्यपि वे अपने दिव्य लोक में लीला-रत रहते हैं, फिर भी वे सर्वव्यापी हैं | आत्मा ऐसा घोषित नहीं कर सकता कि वह सर्वव्याप्त है | अतएव इस श्लोक में आत्मा (जीव) नहीं, अपितु परमात्मा या भगवान् का वर्णन हुआ है |