HI/BG 14.9

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 9

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥९॥

शब्दार्थ

सत्त्वम्—सतोगुण; सुखे—सुख में; सञ्जयति—बाँधता है; रज:—रजोगुण; कर्मणि—सकाम कर्म में; भारत—हे भरतपुत्र; ज्ञानम्—ज्ञान को; आवृत्य—ढक कर; तु—लेकिन; तम:—तमोगुण; प्रमादे—पागलपन में; सञ्जयति—बाँधता है; उत—ऐसा कहा जाता है।

अनुवाद

हे भरतपुत्र! सतोगुण मनुष्य को सुख से बाँधता है, रजोगुण सकाम कर्म से बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बाँधता है |

तात्पर्य

सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौद्धिक वृत्ति से उसी तरह सन्तुष्ट रहता है जिस प्रकार दार्शनिक, वैज्ञानिक या शिक्षक अपनी विद्याओं में निरत रहकर सन्तुष्ट रहते हैं | रजोगुणी व्यक्ति सकाम कर्म में लग सकता है, वह यथासम्भव धन प्राप्त करके उसे उत्तम कार्यों में व्यय करता है | कभी-कभी वह अस्पताल खोलता है और धर्मार्थ संस्थाओं को दान देता है | ये लक्षण हैं, रजोगुणी व्यक्ति के, लेकिन तमोगुण तो ज्ञान को ढक देता है | तमोगुण में रहकर मनुष्य जो भी करता है, वह न तो उसके लिए, न किसी अन्य के लिए हितकर होता है |