HI/BG 3.3

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥

शब्दार्थ

श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; लोके—संसार में; अस्मिन्—इस; द्विविधा—दो प्रकार की; निष्ठा—श्रद्धा; पुरा—पहले; प्रोक्ता—कही गई; मया—मेरे द्वारा; अनघ—हे निष्पाप; ज्ञान-योगेन—ज्ञानयोग के द्वारा; साङ्ख्यानाम्—ज्ञानियों का; कर्म-योगेन—भक्तियोग के द्वारा; योगिनाम्—भक्तों का।

अनुवाद

श्रीभगवान् ने कहा – हे निष्पाप अर्जुन! मैं पहले ही बता चुका हूँ कि आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं | कुछ इसे ज्ञानयोग द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं, तो कुछ भक्ति-मय सेवा के द्वारा |

तात्पर्य

द्वितीय अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक ने दो प्रकार की पद्धतियों का उल्लेख किया है – सांख्ययोग तथा कर्मयोग या बुद्धियोग | इस श्लोक में इनकी और अधिक स्पष्ट विवेचना की गई है | सांख्ययोग अथवा आत्मा तथा पदार्थ की प्रकृति का वैश्लेषिक अध्ययन उन लोगों के लिए है जो व्यावहारिक ज्ञान तथा दर्शन द्वारा वस्तुओं का चिन्तन एवं मनन करना चाहते हैं | दूसरे प्रकार के लोग कृष्णभावनामृत में कार्य करते हैं जैसा कि द्वितीय अध्याय के इकसठवें श्लोक में बताया गया है | उन्तालीसवें श्लोक में भी भगवान् ने बताया है कि बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों पर चलते हुए मनुष्य कर्म के बन्धनों से छूट सकता है तथा इस पद्धति में कोई दोष नहीं है | इकसठवें श्लोक में इसी सिद्धान्त को और अधिक स्पष्ट किया गया है – कि बुद्धियोग पूर्णतया परब्रह्म (विशेषतया कृष्ण) पर आश्रित है और इस प्रकार से समस्त इन्द्रियों को सरलता से वश में किया जा सकता है | अतः दोनों प्रकार के योग धर्म तथा दर्शन के रूप में अन्योन्याश्रित हैं | दर्शनविहीन धर्म मात्र भावुकता या कभी-कभी धर्मान्धता है और धर्मविहीन दर्शन मानसिक ऊहापोह है | अन्तिम लक्ष्य तो श्रीकृष्ण हैं क्योंकि जो दार्शनिकजन परम सत्य की खोज करते रहते हैं, वे अन्ततः कृष्णभावनामृत को प्राप्त होते हैं | इसका भी उल्लेख भगवद्गीता में मिलता है | सम्पूर्ण पद्धति का उद्देश्य परमात्मा के सम्बन्ध में अपनी वास्तविक स्थिति को समझ लेना है | इसकी अप्रत्यक्ष पद्धति दार्शनिक चिन्तन है, जिसके द्वारा क्रम से कृष्णभावनामृत तक पहुँचा जा सकता है | प्रत्यक्ष पद्धति में कृष्णभावनामृत में ही प्रत्येक वस्तु से अपना सम्बन्ध जोड़ना होता है | इन दोनों में से कृष्णभावनामृत का मार्ग श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें दार्शनिक पद्धति द्वारा इन्द्रियों को विमल नहीं करना होता | कृष्णभावनामृत स्वयं ही शुद्ध करने वाली प्रक्रिया है और भक्ति की प्रत्यक्ष विधि सरल तथा दिव्य होती है |