HI/BG 4.17
श्लोक 17
- कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
- अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥१७॥
शब्दार्थ
कर्मण:—कर्म का; हि—निश्चय ही; अपि—भी; बोद्धव्यम्—समझना चाहिए; बोद्धव्यम्—समझना चाहिए; च—भी; विकर्मण:—वॢजत कर्म का; अकर्मण:—अकर्म का; च—भी; बोद्धव्यम्—समझना चाहिए; गहना—अत्यन्त कठिन, दुर्गम; कर्मण:—कर्म की; गति:—प्रवेश, गति।
अनुवाद
कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है |
तात्पर्य
यदि कोई सचमुच ही भव-बन्धन से मुक्ति चाहता है तो उसे कर्म, अकर्म तथा विकर्म के अन्तर को समझना होगा | कर्म, अकर्म तथा विकर्म के विश्लेषण की आवश्यकता है, क्योंकि यह अत्यन्त गहन विषय है | कृष्णभावनामृत को तथा गुणों के अनुसार कर्म को समझने के लिए परमेश्र्वर के साथ सम्बन्ध को जानना होगा | दूसरे शब्दों में, जिसने यह भलीभाँति समझ लिया है, वह जानता है कि जीवात्मा भगवान् का नित्य दास है और फलस्वरूप उसे कृष्णभावनामृत में कार्य करना है | सम्पूर्ण भगवद्गीता का यही लक्ष्य है | इस भावनामृत के विरुद्ध सारे निष्कर्ष एवं परिणाम विकर्म या निषिद्ध कर्म हैं | इसे समझने के लिए मनुष्य को कृष्णभावनामृत के अधिकारियों की संगति करनी होती है और उनसे रहस्य को समझना होता है | यह साक्षात् भगवान् से समझने के समान है | अन्यथा बुद्धिमान् से बुद्धिमान् मनुष्य भी मोहग्रस्त हो जाएगा |