HI/BG 9.17
श्लोक 17
- पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
- वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥१७॥
शब्दार्थ
पिता—पिता; अहम्—मैं; अस्य—इस; जगत:—ब्रह्माण्ड का; माता—माता; धाता—आश्रयदाता; पितामह:—बाबा; वेद्यम्—जानने योग्य; पवित्रम्—शुद्ध करने वाला; ॐ-कार—ॐ अक्षर; ऋक्—ऋग्वेद; साम—सामवेद; यजु:—यजुर्वेद; एव—निश्चय ही; च—तथा।
अनुवाद
मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ | मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ | मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ |
तात्पर्य
सारे चराचर विराट जगत की अभिव्यक्ति कृष्ण की शक्ति के विभिन्न कार्यकलापों से होती है | इस भौतिक जगत् में हम विभिन्न जीवों के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जो कृष्ण की शक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं | प्रकृति की सृष्टि में उनमें से कुछ हमारे माता, पिता के रूप में उत्पन्न होते हैं वे कृष्ण के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं | इस श्लोक में आए धाता शब्द का अर्थ स्त्रष्टा है | न केवल हमारे माता पिता कृष्ण के अंश रूप हैं, अपितु इनके स्त्रष्टा दादी तथा दादा कृष्ण हैं | वस्तुतः कोई भी जीव कृष्ण का अंश होने के कारण कृष्ण है | अतः सारे वेदों के लक्ष्य कृष्ण ही हैं | हम वेदों से जो भी जानना चाहते हैं वह कृष्ण को जानने की दिशा में होता है | जिस विषय से हमारी स्वाभाविक स्थिति शुद्ध होती है, वह कृष्ण है | इसी प्रकार जो जीव वैदिक नियमों को जानने के लिए जिज्ञासु रहता है, वह भी कृष्ण का अंश, अतः कृष्ण भी है | समस्त वैदिक मन्त्रों में ॐ शब्द, जिसे प्रणव कहा जाता है, एक दिव्य ध्वनि-कम्पन है और यह कृष्ण भी है | चूँकि चारों वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में प्रणव या ओंकार प्रधान है, अतः इसे कृष्ण समझना चाहिए |