HI/BG 9.18
श्लोक 18
- गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
- प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥१८॥
शब्दार्थ
गति:—लक्ष्य; भर्ता—पालक; प्रभु:—भगवान्; साक्षी—गवाह; निवास:—धाम; शरणम्—शरण; सु-हृत्—घनिष्ठ मित्र; प्रभव:—सृष्टि; प्रलय:—संहार; स्थानम्—भूमि, स्थिति; निधानम्—आश्रय, विश्राम स्थल; बीजम्—बीज, कारण; अव्ययम्—अविनाशी।
अनुवाद
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्तप्रिय मित्र हूँ | मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ|
तात्पर्य
गति का अर्थ है गन्तव्य या लक्ष्य, जहाँ हम जाना चाहते हैं| लेकिन चरमलक्ष्य तो कृष्ण हैं, यद्यपि लोग इसे जानते नहीं | जो कृष्ण को नहींजानता वह पथभ्रष्ट हो जाता है और उसकी तथाकथित प्रगति या तो आंशिक होती है या फिरभ्रमपूर्ण | ऐसे अनेक लोग हैं जो देवताओं को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं और तदानुसारकठोर नियमों का पालन करते हुए चन्द्रलोक, सूर्यलोक, इन्द्रलोक, महर्लोक जैसे विभिन्न लोकों को प्राप्त होते हैं | किन्तु ये सारे लोक कृष्ण की ही सृष्टि होनेके कारण कृष्ण हैं और नहीं भी हैं | ऐसे लोक भी कृष्ण की शक्ति की अभिव्यक्तियाँ होने के कारण कृष्ण हैं, किन्तु वस्तुतः वे कृष्ण की अनुभूति की दिशा में सोपान का कार्य करते हैं | कृष्ण की विभिन्न शक्तियों तक पहुँचने का अर्थ है अप्रत्यक्षतःकृष्ण तक पहुँचना | अतः मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण तक सीधे पहुँचे, क्योंकि इससे समय तथा शक्ति की बचत होगी | उदाहरणार्थ, यदि किसी ऊँची इमारत की चोटी तक एलीवेटर(लिफ्ट) के द्वारा पहुँचने की सुविधा हो तो फिर एक-एक सीढ़ी करके ऊपर क्यों चढ़ाजाये? सब कुछ कृष्ण की शक्ति पर आश्रित है | प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित होनेके कारण कृष्ण परम साक्षी हैं | हमारा घर, देश या लोक जहाँ पर हम रह रहें हैं, सबकुछ कृष्ण का है | शरण के लिए कृष्ण परम गन्तव्य हैं, अतः मनुष्य को चाहिए कि अपनीरक्षा या अपने कष्टों के विनाश के लिए कृष्ण की शरण ग्रहण करे | हम चाहें जहाँ भीशरण लें हमें जानना चाहिए कि हमारा आश्रय कोई जीवित शक्ति होनी चाहिए | कृष्ण परमजीव हैं | चूँकि कृष्ण हमारी उत्पत्ति के कारण या हमारे परमपिता हैं, अतः उनसेबढ़कर न तो कोई मित्र हो सकता है, न शुभचिन्तक | कृष्ण सृष्टि के आदि उद्गम और पलेके पश्चात् परम विश्रामस्थल हैं | अतः कृष्ण सभी कारणों के शाश्र्वत कारण हैं |