HI/Prabhupada 0103 - भक्तों के समाज से दूर जाने की कोशिश कभी नहीं करो



Lecture on CC Adi-lila 7.91-2 -- Vrndavana, March 13, 1974

नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं, " प्रत्येक जीवन ।" क्योंकि एक भक्त कभी-भी वैकुण्ठ अथवा गोलोक जाने के विषय में नहीं सोचता । कोई भी स्थान हो, इससे उसे अंतर नहीं पड़ता । वह केवल भगवान का गुणगान करना चाहता है । यही उसका कार्य है । ऐसा नहीं कि भक्त नृत्य और गायन और अन्य सेवाएँ केवल भगवद्धाम जाने के लिए कर रहा है । ये श्रीकृष्ण की इच्छा है, "यदि उनकी इच्छा है, तो वे मुझे स्वीकार करेंगे । " जैसा भक्तिविनोद ठाकुर ने भी कहा, इच्छा यदि तोर । जन्माओबि यदि मोरे इच्छा यदि तोर, भक्त-गृहेते जन्म हउप मोर । एक भक्त केवल यह प्रार्थना करता है कि... वह यह अनुरोध नहीं करता, "वैकुण्ठ या गोलोक वृन्दावन में मुझे वापस ले ले ।" नहीं । यदि आपको लगता है कि मुझे पुनः जन्म लेना चाहिए, तो यह ठीक है । लेकिन मेरा अनुरोध हैं कि एक भक्त के घर में जन्म देना । बस । जिससे मैं आपको भूल न पाऊँ । "

बस भक्त की यही प्रार्थना है । क्योंकि... इस बच्चे की तरह । इसने वैष्णव पिता और माता से जन्म लिया है । तो यह अपने पिछले जन्म में एक वैष्णवी या एक वैष्णव रही होगी । यह एक अवसर है क्योंकि... हमारे सभी बच्चे, जो वैष्णव माता पिता से जन्मे हैं, वह अत्यंत, अत्यंत भाग्यशाली हैं । जीवन की शुरुआत से ही, वे हरे कृष्ण महामंत्र सुन रहे हैं । वे नाच रहे हैं, जप कर रहे हैं और वैष्णवों का संग कर रहे हैं । अनुकृत हो अथवा तथ्य, अंतर नहीं पड़ता । वे बहुत, बहुत भाग्यशाली बच्चे हैं । शुचीनां श्रीमतां गेहे योग​-भ्रष्टः-सञ्जायते (भ गी ६.४१) । इसलिए वे साधारण बच्चे नहीं हैं । वे... ये बच्चे, ये सर्वदा भक्तों की संगति के लिए लालायित रहते हैं । जप करने के लिए वे हमारे पास आते हैं । इसलिए वे साधारण बच्चे नहीं हैं । भक्ति-सङ्गे वास​... यह बहुत अच्छा अवसर है, भक्ति-सङ्गे वास​ ।

अतः हमारा कृष्ण भावनामृत संघ, भक्तों का समाज है । कभी दूर जाने की कोशिश न करें । कभी दूर जाने की कोशिश न करें । भेद हो सकते हैं । आपको सुलझाना चाहिए । और भक्तों के समूह में, भक्तों के साथ नृत्य अथवा जप, अति गुणकारी है । यहाँ इसकी पुष्टि की गई है, अन्य वैष्णवों ने भी इसकी पुष्टि की है ।

ताञ्देर चरण​-सेवि-भक्त​-सने वास​
जनमे जनमे मोर एइ अभिलाष​
(श्रील नरोत्तम दास ठाकुर​)

जनमे जनमे मोर अर्थात् वह वापस नहीं जाना चाहते । यह उनकी इच्छा नहीं है । "जब श्रीकृष्ण की इच्छा होगी, श्रीकृष्ण मुझे अनुमति देंगे । तो यह अलग विषय है । अन्यथा, मुझे इस तरह से जीवन यापन करना है । भक्तों के समाज में जीवन और नृत्य और जप ही मेरे कार्य हैं ।" यह आवश्यक है और कुछ नहीं । अन्याभिलाष अर्थात और कोई इच्छा । अन्याभिलाषिता-शून्यम् (भक्ति रसामृत सिन्धु १.१.११) । एक भक्त को इसके अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं करनी चाहिए, "मुझे भक्तों के समाज में रहना है और हरे कृष्ण मंत्र का जप करना हैं । " यही हमारा जीवन है ।

आप सबका बहुत-बहुत धन्यवाद ।