HI/Prabhupada 0148 - हम भगवान का अभिन्न अंग हैं



Lecture on SB 7.6.1 -- Madras, January 2, 1976

यही धर्म है। सम्बन्ध, अभीदेय, प्रयोजन, यह तीन बातें। पूरे वेद तीन स्तर में विभाजित हैं। सम्बन्ध, हमारा रिश्ता क्या है भगवान से? इसे सम्बन्ध कहते हैं। और फिर अभिदेय । उस रिश्ते के अनुसार हमें कार्य करना है। यही अभीदेय कहा जाता है। और हम कार्य क्यों करते हैं? क्योंकि हमारे का एक लक्ष्य है, उस जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए। तो जीवन का लक्ष्य क्या है? जीवन का लक्ष्य वापस घर वापस जाना है, भगवद धाम । यही जीवन का लक्ष्य है। हम भगवान के अभिन्न अंश हैं। भगवान सनातन हैं और उनका अपना निवास है, सनातन। परस् तस्मात् तु भावो अन्यो अव्यक्तो अव्यक्तात् सनातन: (भ गी ८.२०) | एक जगह है जो हमेशा मौजूद रहती है। यह भौतिक दुनिया, यह हमेशा के लिए मौजूद नहीं रहेगी । यह है भूत्वा भूत्वा प्रलियते (भ गी ८।१९)। यह एक निश्चित तिथि पर प्रकट होता है। जैसे तुम्हारा यह शरीर और मेरा शरीर, यह एक निश्चित तारीख पर प्रकट होता है। यह कुछ समय के लिए रहेगा। यह बड़ा हो जाएगा। यह उत्पादन द्वारा कुछ देंगा। तो फिर हम बूढे हो जाते हैं, घटते हैं और उसके बाद समाप्त। इसे षड-विकार कहते हैं, जो कुछ भी भौतिक है।

लेकिन एक और स्वभाव है जहॉ षड विकार नहीं है। यह शाश्वत है। तो इसे सनातन-धाम कहा जाता है। और जीव, हम जीव, हम भी शाश्वत रूप में वर्णित हैं। न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ गी २।२०) और भगवान भी सनातन के रूप में संबोधित किये गए हैं। तो हमारी वास्तविक स्थिति यह है कि हम सनातन हैं, कृष्ण सनातन है, और कृष्ण का निवास, सनातन है। जब हम उस सनातन-धाम को वापस जाऍगे और सर्वोच्च सनातन कृष्ण के साथ रहेंगे ... और हम भी सनातन हैं। वह प्रक्रिया जिसके द्वारा हम जीवन के इस सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं, उसे सनातन-धर्म कहा जाता है। हम सनातन-धर्म यहां क्रियान्वित कर रहे हैं।

तो सनातन-धर्म और यह भागवत-धर्म, एक ही बात है। भागवत, भगवान। भगवान शब्द से, भागवत आता है। तो यह भागवत-धर्म श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा वर्णित किया गया है। वे कहते हैं, जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास (चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०८-१०९) । हम कृष्ण के शाश्वत नौकर हैं। यह है। लेकिन वर्तमान समय में, हमारे भौतिक संबंध के साथ, बजाय भगवान या कृष्ण के नौकर बनने के, हम तो कई अन्य चीजों के सेवक बन गए हैं, माया, और इसलिए हम भुगत रहे हैं। हम संतुष्ट नहीं हैं। यह नहीं हो सकता। यह जुड़ नहीं सकता । जैसे तुम मशीन से एक पेच निकाल दो। पेच किसी भी तरह से नीचे गिर जाता है, तो उसका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन वही पेच, तुम मशीन में फिट करो, या जब एक पेच के अभाव में मशीन काम नहीं कर रहा, यह परेशान हालत में है, तो तुम उसी पेच को लो और उसे फिट करो, और मशीन काम कर रहा है और पेच बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इसलिए हम भगवान, कृष्ण, के अभिन्न अंश हैं। ममैवांशो जीव भूत: (भ गी १५.७), वह कहते हैं, कृष्ण। तो अब हम अलग हो गए हैं। हम नीचे गिर गए हैं। एक अन्य उदाहरण है जैसे बड़ी आग और छोटे स्पार्क्स। छोटी सी चिंगारी भी अाग है जब तक वह आग के साथ है। और अगर यह चिनगारी किसी भी तरह से आग से बाहर गिर जाती है, तो यह बुझ जाती है। उसमे आग के गुण नहीं रहेते है । लेकिन तुम उसे फिर से उसे ले कर आग में डालो, तो वह चिंगारी बन जाती है।

तो हमारी स्थिति ऐसी ही है। किसी तरह से, हम इस भौतिक दुनिया में आ गए हैं। हालॉकि हम एक छोटे कण हैं, परम भगवान का आंशिक भाग, लेकिन क्योंकि हम इस भौतिक दुनिया में हैं, हम परमेश्वर के साथ हमारे संबंधों को भूल गए हैं, और हमारी ... मन: षष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृति-स्थानि कर्षति (भ गी १५.७)। हम भौतिक संसार के नियमों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, तो कई अन्य बातें हैं।. यहाँ भी हम सेवा कर रहे हैं क्योंकि हम सदा दास हैं । क्योंकि हमने परम भगवान की सेवा छोड दी है, हम इतनी सारी चीज़ों के सेवक के रूप में संलग्न हैं। लेकिन कोई भी संतुष्ट नहीं है, जैसे माननीय न्यायमूर्ति ने कहा कि "कोई भी संतुष्ट नहीं है। एक तथ्य है । यह संतुष्ट नहीं किया जा सकता। यह संतुष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि हम भगवान के स्वाभाविकी नौकर हैं, लेकिन हमें इस भीतिक दुनिया में रखा गया है कई अन्य चीजों की सेवा करने के लिए जो उचित नहीं है। इसलिए हम इस सेवा की योजना बना रहे हैं। यही मानसिक मनगढ़ंत कहानी कहा जाता है। मन: षष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृति-स्थानि कर्षति (भ गी १५.७)। संघर्ष, यह एक संघर्ष है।