HI/Prabhupada 0160 - कृष्ण विरोध कर रहे हैं



Conversation at Airport -- October 26, 1973, Bombay

तो हमारा कृष्णभावनामृत आंदोलन, लोगों को जीवन के मूल्य को समझाने के लिए, शिक्षित करना है। शिक्षा और सभ्यता की आधुनिक प्रणाली इतनी अपमानित है कि लोग जीवन के मूल्य को भूल गए हैं। साधारणतया, इस भौतिक संसार में हर कोई जीवन के मूल्य को भूल जाता है, परन्तु मनुष्य जीवन एक अवसर है, जीवन के महत्व को समझने के लिए। श्रीमदभागवतम् में यह कहा गया है, पराभवस् तावद् अबोध-जातो यावानद न जिज्ञासत अात्म-तत्वम् (श्रीमदभागवतम् ५.५.५)| तो जब तक व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की चेतना के प्रति जागरूक नहीं होता, मूर्ख जीव, वह जो कुछ कार्य कर रहा है, उसके लिए निष्फल है। यह निष्फलता जीवन की निम्नतर प्रजातियों में चल रही हैं, क्योंकि वे नहीं समझ सकते जीवन का मूल्य क्या है। उनकी चेतना विकसित नहीं है। लेकिन मनुष्य जीवन में भी, यह निष्फलता बनी हुई है, यह बहुत अच्छी सभ्यता नहीं है। यह लगभग पशु-सभ्यता है।

अाहार-निद्रा-भय-मैथुनम् च समान्या एतत् पशूभिर् नराणाम्। यदि लोग केवल शारीरिक ज़रूरतों के चार सिद्धांतों को पूरा करने में व्यस्त हैं- खाना, सोना, संभोग तथा बचाव करना। यह पशु जीवन में भी दिखाई देता है, अतः यह सभ्यता की अधिक उन्नति नहीं है। तो हमारा प्रयास कृष्णभावनामृत आंदोलन में, लोगों को मानव जीवन की ज़िम्मेदारी लेने के लिए शिक्षित करना है। यह हमारी वैदिक सभ्यता है। इस जीवन अवधि में, कुछ वर्षों की कठिनाइयाँ, जीवन की वास्तविक समस्याएँ नहीं है। जीवन की वास्तविक समस्या है- जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग की पुनरावृत्ति का समाधान करना।

भगवद्गीता में यह निर्देशित है। जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुःख-दोषानुदर्शनम् (भ गी १३.९) लोग जीवन की कई समस्याओं से घिरे हैं। परन्तु जीवन की वास्तविक समस्या है- जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग को कैसे रोकें। तो लोग कठोर हैं। वे इतने मंद बुद्धि हो गए हैं कि, वे जीवन की समस्याओं को नहीं समझ पाते हैं। बहुत समय पहले, जब विश्वामित्र मुनि ने महाराज दशरथ को देखा, तो महाराजा दशरथ नें विश्वामित्र मुनि से पूछा, ऐहिस्तम् यत तम् पुनर् जन्म जयय : "मेरे प्रिय महोदय, आप मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की जो चेष्टा कर रहे हैं, वह कार्य अच्छी तरह से चल रहा है ? क्या कोई रुकावट है ?" तो यह हमारी वैदिक सभ्यता है। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग पर कैसे विजय प्राप्त करें। लेकिन आधुनिक समय में ऐसी कोई जानकारी नहीं है, न ही किसी को दिलचस्पी है। यहाँ तक कि बड़े-बड़े प्रोफेसरों को नहीं पता कि, इस जीवन के बाद क्या है। वे विश्वास नहीं करते कि मृत्यु के बाद भी जीवन है।

तो यह एक अंधी सभ्यता चल रही है। हम उन्हें शिक्षित करने के लिए थोड़ा प्रयास कर रहे हैं कि, जीवन का उद्देश्य, विशेषकर मनुष्य जीवन में, जीवन की शारीरिक आवश्यकताएँ- खाना, सोना, संभोग तथा बचाव करने से अलग है। भगवद्गीता में भी यह कहा गया है, मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये (भ गी ७.३) "लाखों मनुष्यों में से कोई एक अपने जीवन को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील होता है।" सिद्धये,अर्थात् सिद्धि। यह सिद्धि है जन्म, मृत्यु, बूढ़ापा अौर बिमारी पर कैसे विजय प्राप्त करें। तथा मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। आधुनिक सभ्यता में व्यक्ति इतना सुस्त है, वह नहीं जानता कि सिद्धि क्या है। वे सोचते हैं कि "यदि मुझे कुछ पैसे और एक बंगला और एक कार मिलती है, यह सिद्धी है।" यह सिद्धि नहीं है। आपको कुछ वर्षों के लिए एक बहुत अच्छा बंगला, एक कार, अच्छा परिवार मिल सकता है। परन्तु किसी भी समय यह व्यवस्था समाप्त हो जाएगी और आपको एक अन्य शरीर स्वीकार करना होगा। यह आप नहीं जानते और न ही वे इसे जानने की परवाह करते हैं। तो वे इतने मंद बुद्धि हो गए हैं, हालाँकि उन्हें बहुत गर्व है शिक्षा पर, सभ्यता की उन्नति पर। लेकिन हम विरोध कर रहे हैं। हम विरोध कर रहे हैं। मैं विरोध नहीं कर रहा हूँ। कृष्ण विरोध कर रहे हैं।

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा:
प्रपद्यन्ते नराधमा:
माययापह्रतज्ञाना
अासुरं भावमाश्रिता:
(भ गी ७.१५)

ये दुष्ट, मनुष्यों में अधम तथा सदैव पापमय कार्यों में लगे हुए, ऐसे व्यक्ति कृष्णभावनामृत को स्वीकार नहीं करते। "नहीं। इतने सारे शिक्षित एम.ए, पी.एच.डी हैं।" कृष्ण कहते हैं, माययापह्रतज्ञाना। "प्रत्यक्ष रूप से वे बहुत शिक्षित हैं, किन्तु उनका वास्तविक ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है।" अासुरं भावमाश्रिता:। यह नास्तिक सभ्यता बहुत खतरनाक है। लोग इसी कारण से पीड़ित हैं परन्तु वे अत्यधिक गंभीर नहीं हैं। इसलिए वे कृष्ण के द्वारा मूढा: अर्थात् मूर्ख संबोधित किए गए हैं। न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा:। अतः हम थोड़ा प्रयास कर रहे हैं इन मूढ़ों को, मूढ़ सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन के प्रकाश में लाने का। यह हमारा विनम्र प्रयास है। लेकिन यह पहले ही कहा जा चुका है, मनुष्याणां सहस्रेषु (भ गी ७.३) "लाखों मनुष्यों में से कोई एक, वे इसे ले सकते हैं।"

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम रुक जाएँगे। जैसे हमारे स्कूल, कॉलेज के दिनों में, महोदय आशुतोष मुखर्जी ने विश्वविद्यालय में कुछ उच्च अध्ययन, स्नातकोत्तर अध्ययन कक्षाएँ आरंभ कीं, छात्र एक या दो थे लेकिन फिर भी, कक्षा को हजारों रुपयों की लागत से बनाए रखा गया था। इस पर विचार नहीं किया कि, केवल एक छात्र या दो छात्र हैं। इसी प्रकार यह कृष्णभावनामृत आंदोलन चलते रहना चाहिए । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मूर्ख लोग इसे न समझें या इसे स्वीकार न करें। हमें अपना प्रचार करना है।

बहुत बहुत धन्यवाद।