HI/Prabhupada 0197 - तुम्हे भगवद गीता यथार्थ पेश करना होगा



Lecture on SB 5.5.30 -- Vrndavana, November 17, 1976

अगर तुम अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करते हो, तो कृष्ण तुम्हे शक्ति देगें । कृष्ण हमेशा मदद के लिए तैयार है, अगर तुम उनकी मदद लेना चाहते हो तो । वह तैयार हैं । वह तुम्हारी मदद करने के लिए आए हैं । अन्यथा कृष्ण का यहां पर आना और प्रचार करने का क्या हेतु है, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम (भ.गी. १८.६६) ? यह हमारे हित के लिए है । तुम श्री कृष्ण के प्रति समर्पण करो या न करो, इससे कृष्ण को कोई फर्क नहीं पड़ता । कृष्ण तुम्हारी सेवा पर निर्भर नहीं है । वह पूरी तरह से परिपूर्ण है । वह एक क्षण में तुम जैसे लाखों सेवकों को बना सकते हैं । तो उन्हे क्यों तुम्हारी सेवा की आवश्यकता है? क्यों वह तुम्हारी सेवा के लिए मांग कर रहे हैं? उनकी सेवा में कोई कमी नहीं है तुम्हारे अभाव से । लेकिन यह तुम्हारे हित में है कि तुम आत्मसमर्पण करो कृष्ण को । यह तुम्हारे हित में है । यह कृष्ण देखना चाहते हैं, कि तुम उनको अात्मसमर्पण करो अौर परिपूर्ण होकर भगवद धाम जाओ । यही श्री कृष्ण का मिशन है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन वही मिशन है: प्रचार के लिए ।

दंते निधाय तृणकम पदयोर निपत्य
काकु-शतम कृत्वा चाहम् ब्रवीमि
हे साधव: सकलम एव विहाय दूराद
चैतन्य-चंद्र-चरणे कुरुतानुरागम

यह हमारा मिशन है, चैतन्य महाप्रभु का मिशन । क्यों प्रभोदानन्द सरस्वती अनुरोध कर रहे हैं, चैतन्य-चंद्र-चरणे कुरुतानुरागम: "तुम सिर्फ चैतन्य के चरणकमलों की सेवा करने के लिए इच्छुक हो जाअो "? क्योंकि वह व्यक्तिगत रूप से कृष्ण हैं, और वह हमें सिखाने के लिए आये है कि कैसे कृष्ण के पास जाए । यह चैतन्य हैं । कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विशे नमः । श्रील रूप गोस्वामी, वह समझ गए। सार्वभौम भट्टाचार्य, वह समझ गए ।

वैराग्य विद्या-निज-भक्ति-योग
शिक्षार्थकम एक: पुरुष: पुराण:
श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी
कृपाम्बुधिर यस तम अहम प्रपद्ये
(चैतन्य चरितामृत मध्य ६.२५४)

अगर हम चैतन्य महाप्रभु के माध्यम से कृष्ण को समझते हैं..... चैतन्य महाप्रभु का कहना है कि "तुम गुरु बनो ।" कैसे? यारे देख, तारे कह कृष्ण उपदेश (चैतन्य चरितामृत मध्य ७.१२८) । मत बदलो, परिवर्तन मत करो । तुम केवल कृष्ण ने जो कहा है उसका प्रचार करने का प्रयास करो । यह चैतन्य महाप्रभु का निर्देश है । तुम इस निर्देश का पालन करो ... अपने तथाकथित विद्वान छात्रवृत्ति के तहत तुम कोई भी परिवर्धन और परिवर्तन मत करो । यह तुम्हारी मदद नहीं करेगा । तुम्हे भगवद गीता यथार्थ पेश करना होगा । यारे देख, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश । सब कुछ है, बहुत आसानी से किया जा सकता है, अगर हम परम्परा प्रणाली का पालन करें तो । तो हमारे कृष्ण भावनामृत आंदोलन को बहुत विनम्रतापूर्वक अागे बढाना होगा ।

तृणाद अपि सुनिचेन
तरोर अपि सहिश्नुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीय सदा हरि:
(चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१)
कीर्तनीय । इस उपदेश का मतलब है कीर्तन, एसा नहीं कि बस मृदंग के साथ संगीतमय कीर्तन करना । नहीं । उपदेश भी कीर्तन है । अभवद वैयासकि-कीर्तने । वैयासकि, व्यासदेव का पुत्र, शुकदेव गोस्वामी, उन्होंने बस श्रीमद-भागवत को वर्णित किया और वह पूर्ण बन गए । अभवद वैयासकी-कीर्तने । श्री विष्णु-श्रवणे परीक्षित । परीक्षित महाराज केवल सुने, वह पूर्ण हो गए । और शुकदेव गोस्वामी नें बस वर्णन किया । वह भी कीर्तन है । तो यह भी कीर्तन है । प्रबोधानन्द सरस्वती हमें शिक्षण दे रहे हैं, हे साधव: सकलम एव विहाय दूराद चैतन्य-चंद्र-चरणे कुरुतानुरागम: "तुम साधु हो, सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति, महान, लेकिन यह मेरा अनुरोध है ।" यह विनम्रता है । यदि तुम कहते हो, "ओह, तुम एक कर्मी हैं, तुम एक मूढ हो ..." दरअसल वह एक मूढ है, लेकिन नहीं ... अगर तुम शुरुआत में एसा कहते हो,  तो बात करने का कोई मौका नहीं मिलेगा । वह एक मूढ है, इसमे कोई नहीं,  ... 

सूअर और कुत्तों की तरह काम करते रहता दिन रात इन्द्रिय संतुष्टि के लिए, निश्चित रूप से वह मूढ है, कर्मी है । इसी तरह, ज्ञानी, वे केवल अटकलें लगा रहे हैं । वह तर्क, काका-तलिया न्याय: "सब से पहले कौवा ताड़ के फल पर बैठा, फिर ताड़ का फल नीचे गिर गया? या ताड़ का फल नीचे गिर गया, इसलिए कौवा ताड़ के फल पर नहीं बैठ सका? " तर्क । एक पंडित ने कहा, "नहीं, नहीं । सबसे पहले, ताड़ का फल नीचे गिर गया, और कौवा उस पर बैठना चाहता था, पर वह नहीं कर सका ।" अब एक और पंडित कहता है, "नहीं, नहीं, ताड़ का फल वहाँ था और क्योंकि वह कौवा उस पर बैठा, यह नीचे गिर गया ।" अब यह तर्क है । वे अटकलें करने में समय बर्बाद कर रहे हैं । काका-तलिय न्याय । कुप-मंडुक-न्याय ।