HI/Prabhupada 0394 - निताई-पद -कमल तात्पर्य
Purport to Nitai-Pada-Kamala -- Los Angeles, January 31, 1969
निताई-पद, कमल, कोटि-चंद्र-सुशीतल, जे छायाय जगत जुराय । यह नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित गीत है, गौड़ीय-वैष्णव-सम्प्रदाय के एक महान आचार्य । उन्होंने कई गीत लिखे हैं वैष्णव तत्त्वज्ञान के बारे में, और वे वैदिक निर्देशों के साथ पूरी तरह ताल-मेल खाते हैं । तो यहाँ नरोत्तम दास ठाकुर गा रहे हैं कि, "पूरी दुनिया भौतिक अग्नि से पीड़ित है । इसलिए, अगर कोई व्यक्ति प्रभु नित्यानंद के चरणकमलों का आश्रय लेता हैं ... " जिनका आज जन्मदिन है, ३१ जनवरी, १९६९ । इसलिए हमें नरोत्तम दास ठाकुर के इस निर्देश का आस्वादन करना चाहिए इस भौतिक अग्नि के कष्ट से राहत पाने के लिए, हमें, भगवान नित्यानंद के चरणकमलों का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि यह चाँदनी की तरह ठंडा है, जो की संयुक्त है, लाखों चाँद की चाँदनी तरह । इसका मतलब है हमें तुरंत शांतिपूर्ण वातावरण मिलेगा । जैसे एक आदमी पूरे दिन काम करता है, और वह चाँदनी के नीचे आता है, उसे आराम मिलता है । उसी प्रकार, जब भौतिकतावादी व्यक्ति भगवान नित्यानंद की शरण मे आता है तो, उसे तुरंत आराम मिलता है ।
फिर वे कहते हैं, निताई-पद, कमल, कोटि-चंद्र-सुशीतल, जे छायाय जगत जुराय, हेनो निताई बिने भाई, राधा कृष्ण पाइते नाइ, धरो- निताई चरण दुखानि । वे कहते हैं कि, "अगर तुम घर वापस जाने के लिए उत्सुक हो, भगवान के धाम वापस, और राधा और कृष्ण के सहयोगी बनना चाहते हो, तो सबसे अच्छी नीति नित्यानंद की शरण लेना है । " फिर वे कहते हैं, से सम्बन्ध नाही जार, वृथा जन्म गेलो तार । "जो नित्यानंद से संपर्क करने में सक्षम नहीं होता है, तो उसे सोचना चाहिए कि उसने अपना बहुमूल्य जीवन सिर्फ व्यर्थ किया है ।'
वृथा जन्म गेलो, वृथा का मतलब है व्यर्थ ही, और जन्म का अर्थ है जीवन । गेलो तार, व्यर्थ । क्योंकि उसने नित्यानंद के साथ संबंध नहीं बनाया है । नित्यानंद, यह नाम ही, बताता है... नित्य का मतलब है शाश्वत । आनंद का मतलब है सुख । भौतिक सुख शाश्वत नहीं है । यही भेद है । इसलिए जो लोग बुद्धिमान हैं, उन्हें भौतिक दुनिया के इस चंचल सुख मे कोई रुचि नहीं है । हम में से हर एक, जीव, हम आनंद खोज रहे हैं । लेकिन जो आनंद हम खोज रहे हैं, वह अस्थायी, चंचल है । यह आनंद नहीं है । असली आनंद है नित्यानंद, शाश्वत सुख । तो जो कोई भी नित्यानंद के संपर्क में नहीं है, समझ जाना चाहिए कि उसका जीवन व्यर्थ है ।
से सम्बन्ध नाही जार, वृथा जन्म गेलो तार, सेई पशु बोड़ो दुराचार । नरोत्तम दास ठाकुर यहाँ बहुत कठोर शब्द का उपयोग करते हैं । वे कहते हैं कि इस तरह का इंसान एक जानवर है, एक बेकाबू जानवर । जैसे कुछ जानवरों को शिक्षित नहीं किया जा सकता है , तो जो कोई भी नित्यानंद के संपर्क में नहीं अाया है, उसे एक अदम्य पशु समझना चाहिए । सेई पशु बोड़ो दुराचार । क्यों ? निताई ना बलिल मुखे: "उसने नित्यानंद के पवित्र नाम का कभी उच्चारण नहीं किया ।" और मजिल संसार-सुखे, "और इस भौतिक सुख मे लिप्त हो गया ।" विद्या-कुले कोरिबे तार । "वह मूर्ख नहीं जानता है कि, उसकी शिक्षा, और परिवार, और परंपरा और राष्ट्रीयता उसकी क्या सहायता करेगी ? " ये वस्तुएँ उसकी सहायता नहीं कर सकती हैं । ये सभी अस्थायी वस्तुएँ हैं । केवल, अगर हम शाश्वत आनंद चाहते हैं, हमें नित्यानंद के संपर्क में आना चाहिए ।
विद्या कुले कि कोरिबे तार । विद्या का मतलब है शिक्षा, और कुल का मतलब परिवार, राष्ट्रीयता । तो हमारा एक बहुत अच्छा परिवारिक सम्बन्ध हो सकता है, या हमारी बहुत अच्छी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा हो सकती है, लेकिन यह शरीर के समाप्त होने के बाद, इन चीज़ों से मुझे सहायता नहीं मिलेगी । मैं अपने साथ अपने कर्म लेकर जाऊँगा और उस कर्म के अनुसार, मुझे बल द्वारा किसी अन्य प्रकार का शरीर स्वीकार करना होगा । वो मानव शरीर के अलावा भी कुछ हो सकता है । इसलिए ये चीज़ें हमारी रक्षा नहीं कर सकती हैं या हमें असली सुख नहीं दे सकती हैं । तो नरोत्तम दास ठाकुर परामर्श देते हैं कि विद्या कुले कि कोरिबे तार ।
फिर वह कहते हैं, अहंकारे मत्त होइया । "झूठी प्रतिष्ठा और पहचान के पीछे पागल होकर ..." शरीर के साथ झूठी पहचान और शारीरिक संबंध की प्रतिष्ठा, इसे अहंकारे मत्त होइया, कहा जाता है । हम प्रतिष्ठा के पीछे पागल हैं । अहंकारे मत्त होइया, निताई-पद पासरिया । हम इस झूठी प्रतिष्ठा के कारण सोच रहे हैं कि ,"ओह, नित्यानंद क्या हैं ? वे मेरे लिए क्या कर सकते हैं ? मुझे परवाह नहीं है ।" तो ये झूठी प्रतिष्ठा के संकेत हैं । अहंकारे मत्त होइया, निताई-पद पासरिया......असत्येरे सत्य कोरि मानि । निर्णय यह है कि मैं जो अनित्य है उसे स्वीकार कर रहा हूँ । उदाहरण के लिए, मैं इस शरीर को स्वीकार कर रहा हूँ । यह शरीर, मैं यह शरीर नहीं हूँ । इसलिए, झूठी पहचान के साथ मैं अौर अधिक उलझ रहा हूँ । तो जो इस झूठी प्रतिष्ठा के साथ फूला हुअा है, अहंकारे मत्त होइया, निताई-पद पासरिया... असत्येरे सत्य कोरि मानि । वे गलत को सही स्वीकारते हैं ।
फिर वे कहते हैं, निताइयेर करुणा हबे, ब्रजे राधा कृष्ण पाबे । अगर तुम वास्तव में घर, परम धाम, वापस जाने के बारे में गंभीर हो, तो नित्यानंद की दया को प्राप्त करो । निताइयेर करुणा हबे, ब्रजे राधा कृष्ण पाबे, धरो निताई-चरण दुखानि "नित्यानंद के चरण कमलों को पकड़ो ।" फिर वे कहते हैं निताइयेर चरण सत्य । हम सोच सकते हैं कि हमारे इतने सारे आश्रय हैं, लेकिन इस भौतिक संसार में बाद में वे गलत ठहर जाते हैं, इसी तरह, अगर हम नित्यानंद के चरणकमलों को पकड़ते हैं - यह भी गलत साबित हो सकता है । लेकिन नरोत्तम दास ठाकुर आश्वासन देते हैं कि, निताइयेर चरण सत्य: "यह अनित्य नहीं हैं । क्योंकि नित्यानंद शाश्वत हैं, उनके चरण कमल भी शाश्वत हैं ।"
ताँहार सेवक नित्य । और जो नित्यानंद की सेवा करता है, वे भी शाश्वत हो जाता है । शाश्वत हुए बिना, कोई भी शाश्वत की सेवा नही कर सकता है । यही वैदिक आज्ञा है । ब्रह्म बने बिना, परम ब्रह्म के समीप हम नहीं जा सकते हैं । जैसे आग बने बिना, कोई भी आग में प्रवेश नही कर सकता है । पानी बने बिना, कोई भी पानी में प्रवेश नहीं कर सकता है । इसी तरह, पूरी तरह से अाध्यात्मिक हुए बिना, कोई भी आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता है । तो निताइयेर चरण सत्य । अगर तुम नित्यानंद के चरण कमलों को पकड़ते हो, तो तुम तुरंत अाध्यात्मिक बन जाते हो । जैसे कि तुम बिजली को स्पर्श करो, तुरंत आप विद्युतकृत हो जाते हैं । यह स्वाभाविक है । इसी तरह, नित्यानंद शाश्वत सुख हैं, अगर तुम किसी न किसी तरह से नित्यानंद को स्पर्श करते हो, तो तुम भी सदैव प्रसन्न हो जाअोगे ।
ताँहार सेवक नित्य । इसलिए जो नित्यानंद के संपर्क में है, वे शाश्वत बन गए हैं । निताइयेर चरण सत्य, ताँहार सेवक नित्य, दृढ कोरी धारो निताईयेर पाय तो बहुत कसकर उन्हें पकड़ो । नरोत्तम बोड़ो दुखी, निताई मोरे कोरो सुखी । अंत में, नरोत्तम दास ठाकुर, इस गीत के रचियता, वे श्रीनित्यानंद से निवेदन कर रहे हैं, "मेरे प्रिय प्रभु, मैं बहुत दुखी हूँ । अतः अाप कृपया मुझे सुखी करें । और आप कृपया मुझे अपने चरण कमलों के कोने में रखें । " यह इस गीत का सार है ।