HI/Prabhupada 0907 - आध्यात्मिक दुनिया में, तथाकथित अनैतिकता भी अच्छी है



730419 - Lecture SB 01.08.27 - Los Angeles

भक्त: "...जो भौतिक दृष्टि से दरिद्र लोगों की संपत्ति हैं । आपका प्रकृति की भौतिक गुणों की क्रिया और प्रतिक्रिया के साथ कुछ लेना देना नहीं है । आप स्वयं संतुष्ट हैं, और इसलिए आप सबसे कोमल हैं और अद्वैतवादों के मालिक हैं ।"

प्रभुपाद: तो नमः अकिन्चन वित्ताय । भौतिक दृष्टि से दरिद्र । यह एक भक्त की पहली योग्यता है । जिसके पास इस भौतिक दुनिया का कुछ भी नहीं है । उसके पास केवल कृष्ण हैं । यही अकिन्चन वित्त है। अकिन्चन मतलब जिसने हर भौतिक संपत्ति खो दी है । क्योंकि अगर तुम्हें लगता है, एक छोटा सा विचार, कि "मैं भौतिक दृष्टि से इस तरह से खुश बनना चाहता हूँ," तब तक तुम्हे एक शरीर को स्वीकार करना होगा । प्रकृति इतनी दयालू है कि जिस तरह से तुम भौतिक जगत का अानंद लेना चाहते हो, वह भगवान के निर्देशन में तुम्हे एक उपयुक्त शरीर देगी । भगवान हर किसी के दिल में स्थित हैं । तो वे सब कुछ जानते हैं, कि तुम अब भी कुछ भौतिक चाहते हो । वह तुम्हें देंगे । "हाँ, तुम इसे ले लो ।"

कृष्ण चाहते हैं कि तुम्हे पूरा अनुभव मिले की भौतिक लाभ से तुम कभी खुश नहीं हो सकते हो । यह श्री कृष्ण का काम है। यह पूर्ण स्वतंत्रता है । हालांकि तुम्हें थोड़ी से आजादी मिली है, क्योंकि हम श्री कृष्ण के अंशस्वरूप हैं । श्री कृष्ण पूर्ण स्वतंत्र हैं, लेकिन मुझमें स्वतंत्रता की गुणवत्ता है क्योंकि मैं कृष्ण का अंशस्वरूप हूँ । रासायणिक संरचना । समुद्र के पानी की बूंद में भी नमक की एक बूंद मिलती है। हालांकि इसकी तुलना समुद्र के पानी में जो नमक है उस के साथ नहीं की जा सकती । लेकिन नमक रासायणिक है । यह हमारी समझ है। जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१) | जो हमारे में छोटी मात्रा में है, वही, परिपूर्णता में श्री कृष्ण में हैं । परिपूर्णता में ।

जैसे श्री कृष्ण कहते हैं मृत्यु: सर्व हरश च अहम । अब हममें दूसरे की चीज़ें लेने की एक प्रवृत्ति है । तुम कह सकते हो यह चोरी है । हममे यह प्रवृत्ति है । क्यूँ ? श्री कृष्ण में है । श्री कृष्ण माखन-चोर के रूप में जाने जाते हैं । बचपन में, चोरी, चोरी । तो जब तक यह चोरी प्रवृत्ति वहाँ नहीं है, मैं कैसे पा सकता हूँ ? लेकिन श्री कृष्ण का चोरी करना और मेरा चोरी करना अलग है । क्योंकि मैं दूषित हूँ, इसलिए मेरा चोरी करना घृणित है । लेकिन वही चोरी करना आध्यात्मिक पूर्ण मंच में इतना अच्छा है, सुखद । माँ यशोदा श्री कृष्ण द्वारा चोरी के कार्यो का आनंद लेती है | यही अंतर है । भोतिक और आध्यात्मिक । कोई भी आध्यात्मिक गतिविधि, वह अच्छा है, और कोई भी भौतिक गतिविधि, वह खराब है । यह अंतर है ।

इधर, तथाकथित नैतिकता, अच्छाई, वे सब बुरे हैं । और आध्यात्मिक दुनिया में, तथाकथित अनैतिकता भी अच्छी है । यह तुम्हे समझना होगा । जैसे अाधी रात में दूसरे की पत्नी के साथ नृत्य करना, यह अनैतिक है । हर कोई जानता है । कम से कम वैदिक सभ्यता में, इसकी अनुमति नहीं है । एक युवती एक युवक के पास जा रही है अाधी रात को नाचने के लिए उसके साथ । भारत में इसे कभी अनुमति नहीं दी जाएगी । अभी भी यह वर्जित है । लेकिन हम दखते हैं कि सभी गोपियॉ, जैसे ही वे बांसुरी सुनती हैं, वे तुरन्त आती हैं । तो भौतिक दृष्टि से यह अनैतिक है, लेकिन आध्यात्मिक अवधारणा से, यह सबसे बड़ी नैतिकता है ।

जैसे चैतन्य महाप्रभु कहते हैं: रम्या काचिद उपासना व्रज वधू वर्गेणा या कल्पिता | "ओह, व्रज-वधु, वृन्दावन की गोपियॉ, द्वारा नियोजित की गई पूजा की विधि से कोई बेहतर विधि नहीं है ।" चैतन्य महाप्रभु महिलाओं के बारे में बहुत सख्त थे । उनके पारिवारिक जीवन में भी, वे महिलाओं के साथ कभी मजाक नहीं करते थे । वे बहुत मजाकिया थे । लेकिन पुरुषों के साथ ही । उन्होंने महिलाओं के साथ मजाक कभी नहीं किया । नहीं । शायद केवल एक बार अपनी पत्नी के साथ मजाक किया, विष्णु प्रिया । जब सचीमाता कुछ खोज रही थी, वह, उन्होंने बस एक मजाकिया शब्द बोला: "हो सकता है आपकी बहू नें लिया है ।" यही एकमात्र मजाक हम उनके पूरे जीवन में पाते है। अन्यथा, वे बहुत सख्त थे । कोई औरत नहीं आ सकती थी, जब वे सन्यासी थे, प्रणाम करने के लिए उनके पास । वे दूर से ही प्रणाम करती । लेकिन वे कहते हैं: रम्या काचिद उपासना व्रज वधू वर्गेणा कल्पिता । वे कहते हैं कि व्रज-वधूअों द्वारा नियोजित की गई पूजा से कोई बेहतर अवधारणा नहीं है । और व्रज-वधूअों की अवधारणा क्या थी ? कि वे श्री कृष्ण से प्रेम करना चाहती थीं, किसी भी मोल पर । तो यह अनैतिक नहीं है । यह हमें समझना होगा ।