HI/Prabhupada 0982 - जैसे ही हमें एक गाडी मिलती है, कितनी भी खराब क्यों न हो, हमें लगता है कि यह बहुत अच्छा है: Difference between revisions
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तो भागवत कहता है यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके मैं यह शरीर नहीं हूँ । यह एक वाहन है । जैसे हम एक गाडी में सवारी करते हैं, गाडी चलाते हैं । मैं यह गाडी नहीं हूँ । इसी तरह, यह एक यंत्र है, गाडी, यांत्रिक गाडी । | तो भागवत कहता है यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके, मैं यह शरीर नहीं हूँ । यह एक वाहन है । जैसे हम एक गाडी में सवारी करते हैं, गाडी चलाते हैं । मैं यह गाडी नहीं हूँ । इसी तरह, यह एक यंत्र है, गाडी, यांत्रिक गाडी । कृष्ण या भगवान नें मुझे यह गाडी दी है, मुझे यह गाडी चाहिए थी । यह भगवद गीता में कहा गया है, ईश्वर: सर्व भूतानाम हृदेशे अर्जुन तिष्ठति ([[HI/BG 18.61|भ.गी. १८.६१]]) । "मेरे प्रिय अर्जुन, भगवान परमात्मा के रूप में हर किसी के दिल में बैठे हैं ।" भ्रामयन सर्व भूतानि यंत्रारूढानि मायया ([[HI/BG 18.61|भ.गी. १८.६१]]): "और वे मौका दे रहे हैं हर जीव को यात्रा करने की, भटकने की," सर्व-भूतानि, "पूरे ब्रह्मांड में ।" | ||
यंत्रारूढानि मायया, एक गाडी पर सवार होकर, भौतिक प्रकृति द्वारा दी गई एक गाडी को चलाते हुए । तो हमारी वास्तविक स्थिति है कि मैं आत्मा हूं, मुझे एक अच्छी गाडी दी गई है - यह एक अच्छी गाडी नहीं है, लेकिन जैसे ही हमें एक गाडी मिलती है, कितनी भी बेकार क्यूं न हो, हम सोचते हैं कि यह बहुत अच्छी है, (हंसी) और उस गाडी के साथ अपने को जोड लेते हैं । "मुझे यह गाडी मिली है, मुझे यह गाडी मिली है ।" | |||
हम जाते हैं, | हम भूल जाते हैं... अगर कोई एक बहुत महँगी गाडी चलाता है, तो वह अपने अाप को भूल जाता है कि वह एक गरीब आदमी है । वह सोचता है कि, "मैं यह गाडी हूँ।" यह पहचान है । तो यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]]) | जो सोचता है कि शरीर स्वयं है, अात्मा, और शारीरिक संबंध, स्व धी:, "वे मेरे अपने हैं । मेरा भाई, मेरा परिवार, मेरा देश, मेरा समुदाय, मेरा समाज," ऐसी बहुत सी बातें, मेरा, मैं और मेरा । | ||
ग़लतफ़हमी "मैं" की इस शरीर के रूप में और ग़लतफ़हमी "मेरे" की शरीर के साथ संबंध में । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]]) | भौम इज्य धी:, भूमि, भूमि मतलब ज़मीन । इज्य धी:, इज्य मतलब पूजनीय । तो वर्तमान समय में यह बहुत प्रचलित है सोचना कि, "मैं यह शरीर हूँ," और "मैं अमेरीकी हूँ,," अौर "मैं भारतीय हूँ", "मैं यूरोपी हूँ", "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूँ," "मैं ब्राह्मण हूं", "मैं क्षत्रिय हूँ ", " मैं शूद्र हूँ ", " मैं यह हूँ " ...," इतने सारे । यह बहुत प्रचलित है और भौम इज्य धी:, की क्योंकि मैं एक खास प्रकार के शरीर के साथ पहचान बना रहा हूँ, अौर जहॉ से यह शरीर आया है, वह भूमि पूजनीय है । यही राष्ट्रवाद है । | |||
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। अभिज्ञ, जो जानता है । (अस्पष्ट) हमें एक एसे व्यक्ति की शरण लेना चाहिए जो बहुत अच्छी तरह से चीजों को जानता है, अभिज्ञ: श्री कृष्ण अभीज्ञ: हैं, स्वराट । तो इसी प्रकार श्री कृष्ण का प्रतिनिधि भी अभिज्ञ: है, स्वाभाविक रूप से । अगर कोई | तो यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]]) , यत-तीर्थ बुद्धि: सलिले और तीर्थ, तीर्थयात्रा की जगह । हम जाते हैं, हम नदी में स्नान लेने जाते हैं, जैसे ईसाई, वे जॉर्डन नदी में स्नान लेने जाते हैं, या हिंदू, वे हरिद्वार जाते हैं, गंगा में स्नान लेने जाते हैं, या वृन्दावन, स्नान लेते हैं । लेकिन वे सोचते हैं कि स्नान लेने से उस पानी में, उनका काम...उनका काम खत्म । नहीं । वास्तव में काम यह है कि ऐसे तीर्थों में जाना, पवित्र स्थानों में, जिज्ञासा करना, अनुभव, आध्यात्मिक उन्नति करना । क्योंकि कई आध्यात्मिक उन्नत पुरुष, वे वहाँ रहते हैं । इसलिए हमें ऐसी जगहों पर जाना चाहिए और अनुभवी संतों का पता लगाना चाहिए, और उनसे शिक्षा लेनी चाहिए । यही वास्तव में तीर्थ यात्रा पर जाना है । ऐसा नहीं है कि केवल स्नान करना अौर काम खत्म । नहीं । तो | ||
:यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके | |||
:स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: | |||
:यत तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचिज | |||
:जनेषु अभिज्ञेषु.... | |||
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अभिज्ञ, जो जानता है । (अस्पष्ट) हमें एक एसे व्यक्ति की शरण लेना चाहिए जो बहुत अच्छी तरह से चीजों को जानता है, अभिज्ञ: | श्री कृष्ण अभीज्ञ: हैं, स्वराट । तो इसी प्रकार श्री कृष्ण का प्रतिनिधि भी अभिज्ञ: है, स्वाभाविक रूप से । अगर कोई कृष्ण के साथ संग करता है, अगर कोई कृष्ण के साथ बात करता है, उसे बहुत अभिज्ञ होना चाहिए, बहुत विद्वान, क्योंकि वह श्री कृष्ण से सीखता है । इसलिए... श्री कृष्ण का ज्ञान पूर्ण है, इसलिए, क्योंकि वह श्री कृष्ण से ज्ञान लेता है, उसका ज्ञान भी पूर्ण है । अभिज्ञ: । और कृष्ण बात करते हैं । ऐसा नहीं है कि यह काल्पनिक है, नहीं । | |||
श्री कृष्ण - जैसा कि मैंने पहले से ही कहा है - की श्री कृष्ण हर किसी के दिल में बैठे हैं और वे प्रामाणिक व्यक्ति के साथ बात करते हैं । जैसे एक बड़ा आदमी, वह किसी प्रामाणिक व्यक्ति के साथ बात करता है, बेकार के अादमी के साथ बात करके वह अपना समय बर्बाद नहीं करता है । वे बात करते हैं, यह एक तथ्य है, लेकिन वे बेकारों के साथ बात नहीं करते हैं, वे प्रामाणिक प्रतिनिधि के साथ बात करते हैं । यह कैसे जाना जाता है ? यह भगवद गीता में कहा गया है, तेषाम सतत युक्तानाम ([[HI/BG 10.10|भ.गी. १०.१०]]), जो प्रामाणिक प्रतिनिधि है । | |||
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020
720905 - Lecture SB 01.02.06 - New Vrindaban, USA
तो भागवत कहता है यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके, मैं यह शरीर नहीं हूँ । यह एक वाहन है । जैसे हम एक गाडी में सवारी करते हैं, गाडी चलाते हैं । मैं यह गाडी नहीं हूँ । इसी तरह, यह एक यंत्र है, गाडी, यांत्रिक गाडी । कृष्ण या भगवान नें मुझे यह गाडी दी है, मुझे यह गाडी चाहिए थी । यह भगवद गीता में कहा गया है, ईश्वर: सर्व भूतानाम हृदेशे अर्जुन तिष्ठति (भ.गी. १८.६१) । "मेरे प्रिय अर्जुन, भगवान परमात्मा के रूप में हर किसी के दिल में बैठे हैं ।" भ्रामयन सर्व भूतानि यंत्रारूढानि मायया (भ.गी. १८.६१): "और वे मौका दे रहे हैं हर जीव को यात्रा करने की, भटकने की," सर्व-भूतानि, "पूरे ब्रह्मांड में ।"
यंत्रारूढानि मायया, एक गाडी पर सवार होकर, भौतिक प्रकृति द्वारा दी गई एक गाडी को चलाते हुए । तो हमारी वास्तविक स्थिति है कि मैं आत्मा हूं, मुझे एक अच्छी गाडी दी गई है - यह एक अच्छी गाडी नहीं है, लेकिन जैसे ही हमें एक गाडी मिलती है, कितनी भी बेकार क्यूं न हो, हम सोचते हैं कि यह बहुत अच्छी है, (हंसी) और उस गाडी के साथ अपने को जोड लेते हैं । "मुझे यह गाडी मिली है, मुझे यह गाडी मिली है ।"
हम भूल जाते हैं... अगर कोई एक बहुत महँगी गाडी चलाता है, तो वह अपने अाप को भूल जाता है कि वह एक गरीब आदमी है । वह सोचता है कि, "मैं यह गाडी हूँ।" यह पहचान है । तो यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) | जो सोचता है कि शरीर स्वयं है, अात्मा, और शारीरिक संबंध, स्व धी:, "वे मेरे अपने हैं । मेरा भाई, मेरा परिवार, मेरा देश, मेरा समुदाय, मेरा समाज," ऐसी बहुत सी बातें, मेरा, मैं और मेरा ।
ग़लतफ़हमी "मैं" की इस शरीर के रूप में और ग़लतफ़हमी "मेरे" की शरीर के साथ संबंध में । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) | भौम इज्य धी:, भूमि, भूमि मतलब ज़मीन । इज्य धी:, इज्य मतलब पूजनीय । तो वर्तमान समय में यह बहुत प्रचलित है सोचना कि, "मैं यह शरीर हूँ," और "मैं अमेरीकी हूँ,," अौर "मैं भारतीय हूँ", "मैं यूरोपी हूँ", "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूँ," "मैं ब्राह्मण हूं", "मैं क्षत्रिय हूँ ", " मैं शूद्र हूँ ", " मैं यह हूँ " ...," इतने सारे । यह बहुत प्रचलित है और भौम इज्य धी:, की क्योंकि मैं एक खास प्रकार के शरीर के साथ पहचान बना रहा हूँ, अौर जहॉ से यह शरीर आया है, वह भूमि पूजनीय है । यही राष्ट्रवाद है ।
तो यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी: (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) , यत-तीर्थ बुद्धि: सलिले और तीर्थ, तीर्थयात्रा की जगह । हम जाते हैं, हम नदी में स्नान लेने जाते हैं, जैसे ईसाई, वे जॉर्डन नदी में स्नान लेने जाते हैं, या हिंदू, वे हरिद्वार जाते हैं, गंगा में स्नान लेने जाते हैं, या वृन्दावन, स्नान लेते हैं । लेकिन वे सोचते हैं कि स्नान लेने से उस पानी में, उनका काम...उनका काम खत्म । नहीं । वास्तव में काम यह है कि ऐसे तीर्थों में जाना, पवित्र स्थानों में, जिज्ञासा करना, अनुभव, आध्यात्मिक उन्नति करना । क्योंकि कई आध्यात्मिक उन्नत पुरुष, वे वहाँ रहते हैं । इसलिए हमें ऐसी जगहों पर जाना चाहिए और अनुभवी संतों का पता लगाना चाहिए, और उनसे शिक्षा लेनी चाहिए । यही वास्तव में तीर्थ यात्रा पर जाना है । ऐसा नहीं है कि केवल स्नान करना अौर काम खत्म । नहीं । तो
- यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके
- स्व धी: कलत्रादिषु भौम इज्य धी:
- यत तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचिज
- जनेषु अभिज्ञेषु....
- (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) ।
अभिज्ञ, जो जानता है । (अस्पष्ट) हमें एक एसे व्यक्ति की शरण लेना चाहिए जो बहुत अच्छी तरह से चीजों को जानता है, अभिज्ञ: | श्री कृष्ण अभीज्ञ: हैं, स्वराट । तो इसी प्रकार श्री कृष्ण का प्रतिनिधि भी अभिज्ञ: है, स्वाभाविक रूप से । अगर कोई कृष्ण के साथ संग करता है, अगर कोई कृष्ण के साथ बात करता है, उसे बहुत अभिज्ञ होना चाहिए, बहुत विद्वान, क्योंकि वह श्री कृष्ण से सीखता है । इसलिए... श्री कृष्ण का ज्ञान पूर्ण है, इसलिए, क्योंकि वह श्री कृष्ण से ज्ञान लेता है, उसका ज्ञान भी पूर्ण है । अभिज्ञ: । और कृष्ण बात करते हैं । ऐसा नहीं है कि यह काल्पनिक है, नहीं ।
श्री कृष्ण - जैसा कि मैंने पहले से ही कहा है - की श्री कृष्ण हर किसी के दिल में बैठे हैं और वे प्रामाणिक व्यक्ति के साथ बात करते हैं । जैसे एक बड़ा आदमी, वह किसी प्रामाणिक व्यक्ति के साथ बात करता है, बेकार के अादमी के साथ बात करके वह अपना समय बर्बाद नहीं करता है । वे बात करते हैं, यह एक तथ्य है, लेकिन वे बेकारों के साथ बात नहीं करते हैं, वे प्रामाणिक प्रतिनिधि के साथ बात करते हैं । यह कैसे जाना जाता है ? यह भगवद गीता में कहा गया है, तेषाम सतत युक्तानाम (भ.गी. १०.१०), जो प्रामाणिक प्रतिनिधि है ।