HI/BG 18.37: Difference between revisions
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:तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥३७॥ | |||
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Latest revision as of 07:26, 18 August 2020
श्लोक 37
- यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
- तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥३७॥
शब्दार्थ
यत्—जो; तत्—वह; अग्रे—आरम्भ में; विषम् इव—विष के समान; परिणामे—अन्त में; अमृत—अमृत; उपमम्—स²श; तत्—वह; सुखम्—सुख; सात्त्विकम्—सतोगुणी; प्रोक्तम्—कहलाता है; आत्म—अपनी; बुद्धि—बुद्धि की; प्रसाद-जम्—तुष्टि से उत्पन्न।
अनुवाद
जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है औरजो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्त्विक सुख कहलाता है |
तात्पर्य
आत्म-साक्षात्कार के साधन में मन तथा इन्द्रियों को वश में करने तथामन को आत्मलेंद्रित करने के लिए नाना प्रकार के विधि-विधानों का पालन करना पड़ता है| ये सारी विधियाँबहुत कठिन और विष के समान अत्यन्त कड़वी लगने वाली हैं, लेकिनयदि कोई इन नियमों के पालन में सफल हो जाता है और दिव्य पद को प्राप्त हो जाता है,तो वह वास्तविक अमृत का पान करने लगता है और जीवन का सुख प्राप्त करता है |