HI/Prabhupada 0581 - अगर तुम कृष्ण की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तुम्हे नया प्रोत्साहन मिलेगा: Difference between revisions
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यन मैथुनादि गृहमेधि सुखम हि तुच्छम ([[Vanisource:SB 7.9.45| | यन मैथुनादि गृहमेधि सुखम हि तुच्छम ([[Vanisource:SB 7.9.45|श्रीमद भागवतम ७.९.४५]]) | तो यह भौतिकवादी जीवन का अर्थ है यौन जीवन । बहुत, बहुत घृणित, तुच्छम । अगर कोई यह समझ गया है, तो वह मुक्त है । लेकिनअगर, जब तक कोई आकर्षित है, तो यह समझ में आ सकता है कि मुक्ति में अभी भी देरी है | और जो यह समझ गया और त्याग देता है, इस शरीर में भी वह मुक्त है । उसे जीवन-मुक्त: स उच्यते कहा जाता है | | ||
:ईहा यस्य हरेर दास्ये | :ईहा यस्य हरेर दास्ये | ||
:कर्मणा मनसा गिरा | :कर्मणा मनसा गिरा | ||
:निखिलास्व अपि अवस्थासु | :निखिलास्व अपि अवस्थासु | ||
:जिवन-मुक्त: स उच्यते | :जिवन-मुक्त: स उच्यते | ||
तो कैसे हम इस इच्छा से मुक्त हो सकते हैं ? | तो कैसे हम इस इच्छा से मुक्त हो सकते हैं ? इहा यस्य हरेर दास्ये, अगर तुम बस कृष्ण की सेवा करने की इच्छा करते हो, तो तुम बाहर निकल सकते हो । अन्यथा, नहीं । यह संभव नहीं है । अगर तुम भगवान की सेवा को छोड़कर कुछ और इच्छा करते हो, तब माया तुम्हे प्रलोभन देगी "क्यों इसका आनंद नहीं लेते हो ?" इसलिए यामुनाचार्य कहते हैं, | ||
:यद-अवधि मम चेत: कृष्ण-पदारविन्दे | :यद-अवधि मम चेत: कृष्ण-पदारविन्दे | ||
:नव नव रस धाम्नि उदयतम रंतुम अासीत | :नव नव रस धाम्नि उदयतम रंतुम अासीत | ||
:तद-अवधि बत नारी संगमे स्मर्यमाने | :तद-अवधि बत नारी संगमे स्मर्यमाने | ||
:भवति मुख-विकार: | :भवति मुख-विकार: सुष्ठु निष्ठिवनम च | ||
"यद-अवधि, जब से, मम चेत: मैंने अपने जीवन और आत्मा को संल्ग्न किया है, मेरी चेतना को, कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में ... " यह श्लोक | "यद-अवधि, जब से, मम चेत: मैंने अपने जीवन और आत्मा को संल्ग्न किया है, मेरी चेतना को, कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में... " यह श्लोक यमुनाचार्य द्वारा दिया गया है । वे एक महान राजा थे, और राजा, वे आम तौर पर अनैतिक होते हैं, लेकिन वे बाद में एक संत भक्त बन गए । तो अपना निजी अनुभव, वे कह रहे हैं कि "जब से मैंने कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में अपने को संलग्न किया है, यद-अवधि मम चेत: कृष्ण-पदारविन्दे..." नव-नव । और सेवा, आध्यात्मिक सेवा का मतलब है हर पल नया । यह साधारण नहीं है । जो आध्यात्म साक्षात्कारी हैं, वे पाऍगे कि कृष्ण की सेवा का अर्थ है नया ज्ञानोदय, नया ज्ञानोदय । नव नव रस धाम्नि उदयतम रंतुम अासीत । | ||
इधर, इस भौतिक संसार में, तुम आनंद लेते हो, यह मामूली हो जाता है । पुन: पनश चर्वित, इसलिए तुम निराश हो जाते हो । लेकिन अगर तुम कृष्ण की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तुम्हे नया और नया प्रोत्साहन मिलेगा । यही आध्यात्मिक है । अगर तुम इसे साधारण पाते हो, तो तुम्हें पता होना चाहिए तो तुम अभी तक आध्यात्मिक सेवा नहीं कर रहे हो, तुम भौतिक सेवा कर रहे हो । औपचारिकता, स्टीरियोटाइप । लेकिन अगर तुम नयी और नयी ऊर्जा महसूस करते हो, तो तुम्हे पता है कि तुम आध्यात्मिक सेवा कर रहे हो । यही परीक्षण है । तुम्हारे उत्साह में वृद्धि होगी, कमी नहीं । | |||
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Latest revision as of 14:15, 15 October 2018
Lecture on BG 2.21-22 -- London, August 26, 1973
यन मैथुनादि गृहमेधि सुखम हि तुच्छम (श्रीमद भागवतम ७.९.४५) | तो यह भौतिकवादी जीवन का अर्थ है यौन जीवन । बहुत, बहुत घृणित, तुच्छम । अगर कोई यह समझ गया है, तो वह मुक्त है । लेकिनअगर, जब तक कोई आकर्षित है, तो यह समझ में आ सकता है कि मुक्ति में अभी भी देरी है | और जो यह समझ गया और त्याग देता है, इस शरीर में भी वह मुक्त है । उसे जीवन-मुक्त: स उच्यते कहा जाता है |
- ईहा यस्य हरेर दास्ये
- कर्मणा मनसा गिरा
- निखिलास्व अपि अवस्थासु
- जिवन-मुक्त: स उच्यते
तो कैसे हम इस इच्छा से मुक्त हो सकते हैं ? इहा यस्य हरेर दास्ये, अगर तुम बस कृष्ण की सेवा करने की इच्छा करते हो, तो तुम बाहर निकल सकते हो । अन्यथा, नहीं । यह संभव नहीं है । अगर तुम भगवान की सेवा को छोड़कर कुछ और इच्छा करते हो, तब माया तुम्हे प्रलोभन देगी "क्यों इसका आनंद नहीं लेते हो ?" इसलिए यामुनाचार्य कहते हैं,
- यद-अवधि मम चेत: कृष्ण-पदारविन्दे
- नव नव रस धाम्नि उदयतम रंतुम अासीत
- तद-अवधि बत नारी संगमे स्मर्यमाने
- भवति मुख-विकार: सुष्ठु निष्ठिवनम च
"यद-अवधि, जब से, मम चेत: मैंने अपने जीवन और आत्मा को संल्ग्न किया है, मेरी चेतना को, कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में... " यह श्लोक यमुनाचार्य द्वारा दिया गया है । वे एक महान राजा थे, और राजा, वे आम तौर पर अनैतिक होते हैं, लेकिन वे बाद में एक संत भक्त बन गए । तो अपना निजी अनुभव, वे कह रहे हैं कि "जब से मैंने कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में अपने को संलग्न किया है, यद-अवधि मम चेत: कृष्ण-पदारविन्दे..." नव-नव । और सेवा, आध्यात्मिक सेवा का मतलब है हर पल नया । यह साधारण नहीं है । जो आध्यात्म साक्षात्कारी हैं, वे पाऍगे कि कृष्ण की सेवा का अर्थ है नया ज्ञानोदय, नया ज्ञानोदय । नव नव रस धाम्नि उदयतम रंतुम अासीत ।
इधर, इस भौतिक संसार में, तुम आनंद लेते हो, यह मामूली हो जाता है । पुन: पनश चर्वित, इसलिए तुम निराश हो जाते हो । लेकिन अगर तुम कृष्ण की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तुम्हे नया और नया प्रोत्साहन मिलेगा । यही आध्यात्मिक है । अगर तुम इसे साधारण पाते हो, तो तुम्हें पता होना चाहिए तो तुम अभी तक आध्यात्मिक सेवा नहीं कर रहे हो, तुम भौतिक सेवा कर रहे हो । औपचारिकता, स्टीरियोटाइप । लेकिन अगर तुम नयी और नयी ऊर्जा महसूस करते हो, तो तुम्हे पता है कि तुम आध्यात्मिक सेवा कर रहे हो । यही परीक्षण है । तुम्हारे उत्साह में वृद्धि होगी, कमी नहीं ।