HI/Prabhupada 0675 - एक भक्त दया का सागर है । वह दया वितरित करना चाहता है: Difference between revisions

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प्रभुपाद: पृष्ठ एक सौ छप्पन ।  
प्रभुपाद: पृष्ठ एक सौ छप्पन ।  


विष्णुजन : "धीरे धीरे, क्मश: पूर्ण विश्वासपूर्वक, बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए अौर इस प्रकार मन को अात्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए ([[Vanisource:BG 6.25|भ गी ६।२५]]) ।"  
विष्णुजन: "धीरे धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक, व्यक्ति बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए, अौर इस प्रकार मन को अात्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए ([[HI/BG 6.25|भ.गी. ६.२५]]) ।"  


प्रभुपाद: हाँ । आत्मा ... मन को अात्मा में स्थित करना चाहिए । हम अात्मा हैं और कृष्ण भी अात्मा हैं । तो, जैसे कि अगर तुम सूरज पर अपनी आंखों को स्थिर करते हो, तो तुम सूरज को अौर अपने आप को देख सकते हो । कभी कभी घने अंधेरे में हम अपने अाप को भीf नहीं देख सकते हैं । यह तुमने अनुभव किया है । तो मैं घने अंधेरे में अपने शरीर को नहीं देख सकता । हालांकि शरीर मेरे साथ है, मैं शरीर हूँ या मैं जो कुछ भी हूँ, मैं अपने आप को नहीं देख सकता । यह अनुभव तुम्हे मिला है । तो अगर तुम धूप, सूरज की रोशनी में हो, तो तुम सूर्य को देखते हो अौर अपने आप को भी । एसा नहीं है? इसलिए अात्मा को देखने का मतलब है सबसे पहले परमात्मा को देखना । परमात्मा कृष्ण हैं । वेदों में यह कहा जाता है, कथोपनिषद, नित्यो निगयानाम् चेतनश चेतनानाम ( कथा उपनिषद २।२।१३) परमात्मा सभी शाश्वत जीवों के मुख्य शाश्वत जीव हैं । वे मुख्य जीव हैं सभी जीवों में । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मतलब है - अात्मा में स्थिर होना । वही उदाहरण । अगर तुम मन को कृष्ण में स्थिर करते हो, तो फिर तुम सब में अपने मन को स्थिर कर सकते हो । वही उदाहरण फिर से , अगर तुम अपने पेट का ध्यान रखते हो, तो तुम सभी शारीरिक अंगों का ख्याल रखते हो । अगर तुम्हारे पेट को अच्छे पौष्टिक भोजन की आपूर्ति की जाती है, तो पेट सब गड़बड़ी से दूर है, तो तुम अच्छा स्वास्थ्य रखते हो । तो अगर तुम पेड़ की जड़ में पानी डालते हो तो तुम स्वत: ही सभी शाखाओं, पत्ते, फूल, टहनियाँ, सब कुछ का ख्याल रखते हो । तो अगर तुम कृष्ण का ख्याल रखते हो, तो तुम दूसरों के लिए सबसे अच्छी सेवा करते हो । स्वचालित रूप से । ये लड़के, वे कीर्तन पार्टी के साथ जा रहे हैं । क्योंकि वे कृष्ण भावनाभावित हैं, एसा नहीं है कि वे इस मंदिर में आलसी होकर बैठे हैं । वे बाहर जा रहे हैं, इस तत्वज्ञान का उपदेश दे रहे हैं ताकि दूसरे इसका लाभ लें । तो एक कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति आलसी होकर नहीं बैठ सकता । वह सोचता है कि जीवन का ऐसा एक अच्छा तत्वज्ञान, यह क्यों वितरित नहीं किया जाना चाहिए । यही उसका मिशन है । एक योगी अपनी उन्नती से संतुष्ट हो सकता है । वह एक सुनसान जगह में बैठा है, योग का अभ्यास करते हुए, दिव्य जीवन की तरफ उन्नती करते हुए । यह उसका निजी मामला है । लेकिन एक भक्त केवल खुद की उन्नती से संतुष्ट नहीं है, अपने व्यक्तिगत । हम वैश्णवों को हमारे सम्मान प्रदान करते हैं: वांछा कल्पतरुभय्श च कृपा सिंधुभ्य एव च पतितानाम् पावनेभ्यो वैश्णवेभ्यो नमो नम: वही वैश्णव है, वही भक्त है, जो बहुत दयालु है सशर्त मनुष्य के प्रति । कृपा सिंधुभ्य एव च । कृपा का मतलब है दया, और सिंधु का मतलब है सागर । एक भक्त दया का सागर है । वह दया वितरित करना चाहता है । प्रभु यीशु मसीह की तरह, वे भगवान भावनाभावित थे, कृष्ण भावनाभावित, लेकिन वे अपने अाप में ही संतुष्ट नहीं थे । अगर वे भगवान भावनाभावित बने रहते अकेले, वे सूलो पर नहीं चढते । लेकिन, नहीं । वे दूसरों की भी देखभाल करना चाहते थे दूसरों को भगवान भावनाभावित होना चाहिए. दूसरों को कृष्ण भावनाभावित होना चाहिए । उनको राजा ने मना किया था - एसा न करने के लिए । अपने जीवन के जोखिम पर उन्होंने वह किया । यही भक्त का स्वभाव है । इसलिए उपदेशक भक्त भगवान का सबसे, सबसे प्रिय भक्त है । यही भगवद-गीता में कहा गया है । वे बाहर जा रहे हैं, प्रचार कर रहे हैं, वे विरोधी तत्वों से मिल रहे हैं । कभी कभी वे हार रहे हैं, कभी कभी निराश, कभी कभी समझाने में सक्षम, विभिन्न प्रकार के लोगों होते हैं । तो, एसा नहीं है कि हर भक्त बहुत अच्छी तरह से सुसज्जित है । तीन वर्गों के भक्त होते हैं । लेकिन वह प्रयास, कि "मैं जाकर कृष्ण भावनामृत का प्रचार करूँगा," प्रभु की बेहतरीन सेवा है । क्योंकि वे विपरीत परिस्थितियों में कोशिश कर रहे हैं, लोगों को उन्नत करने के लिए आत्म-साक्षात्कार में । तो जिसने अनुभव किया है, आत्म-साक्षात्कार की मदहोशी में है जो, वह आलस्य में नहीं बैठ सकता है । उसे बाहर आना होगा । वह ... जैसे रामानुजाचार्य की तरह । उन्होंने सार्वजनिक रूप से मंत्र की घोषणा की । उनके आध्यात्मिक गुरु नें कहा कि यह मंत्र ... जैसे महर्षि तुम्हारे देश में आया । वह कुछ निजी मंत्र देना चाहता था । अगर उस मंत्र में कोई भी शक्ति होती, तो क्यों वह निजी होना चाहिए? अगर उस मंत्र में कुछ है, तो क्यों सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया जाना चाहिए ताकि हर कोई इस मंत्र रका लाभ ले सके ? वह असली है । यह धोखा है, समझे ? यहाँ कोई धोखा प्रक्रिया नहीं है । हम कहते हैं कि यह महा-मंत्र आपको बचा सकता है, सार्वजनिक रूप से वितरण कर रहे हैं, नहीं (अस्पष्ट) । नि: शुल्क, किसी भी शुल्क के बिना । लेकिन लोग मूर्ख हैं, वे इसे लेने के लिए तैयार नहीं हैं ।वे उस मंत्र के पीछे लालायित होते हैं, महर्षि के पीछे । पैंतीस डॉलर का भुगतान करो और कुछ निजी मंत्र लो, समझे? जैतो लोग धोखा खाना चाहते हैं । और यहाँ, हरे कृष्ण मंत्र, ये लोग बिना किसी शूल्क के प्रचार कर रहे हैं सड़क में घोषित कर रहे हैं, पार्क में, हर जगह, "इसे लो ।" "ओह, यह अच्छा नहीं है ।" यह माया है, इसे भ्रम कहा जाता है । यह माया का जादू है । अौर अगर तुम शुल्क लेते हो, अगर तुम धोखा देते हो, ओह, लोग अनुसरण करेंगे । सच्चा बोले तोमारे लात जूता जगत हरै, धन कलियुग दुख लालगे हस्पै (?) यह एक भक्त द्वारा हिन्दी कविता है इस कलयुग इतना घृणित है कि अगर तुम सच बोलते हो तो लोग तुम्हे मारने के लिए ड़डा लेकर अाऍगे । लेकिन अगर तुम उन्हें धोखा दो, झूठ बोलो, वे भ्रमित हो जाऍगे, उन्हें पसंद अाएगा । अगर मैं कहता हूँ मैं भगवान हूँ, लोग कहेंगे "ओह, यहां स्वामीजी हैं, भगवान ।" वे पूछेंगे नहीं कि "कैसे तुम भगवान बन गए ? भगवान के लक्षण क्या हैं ? तुममे सभी लक्षण हैं ?" कोई भी नहीं पूछता है । तो ये बातेम होती हैं, जब तक हम अात्मा में स्थित नहीं होते जब तक हम समझते नहीं है कि वास्तविक आत्म क्या है जब तक हम नहीं समझते हैं िक परमात्मा क्या है । तो, योग का मतलब है इस आत्म साकार की प्रक्रिया को समझना । यही योग है । अागे पढो ।
प्रभुपाद: हाँ । आत्मा... मन को अात्मा में स्थित करना चाहिए । हम अात्मा हैं और कृष्ण भी अात्मा हैं । तो, जैसे कि अगर तुम सूर्य पर अपनी आंखों को स्थिर करते हो, तो तुम सूर्य को अौर अपने आप को देख सकते हो । कभी कभी घने अंधेरे में हम अपने अाप को भी नहीं देख सकते हैं । यह तुमने अनुभव किया है । तो मैं घने अंधेरे में अपने शरीर को नहीं देख सकता । हालांकि शरीर मेरे साथ है, मैं शरीर हूँ या मैं जो कुछ भी हूँ, मैं अपने आप को नहीं देख सकता । यह अनुभव तुम्हे मिला है ।  
 
तो अगर तुम सूर्यप्रकाश में हो, तो तुम सूर्य को देखते हो अौर अपने आप को भी । एसा नहीं है? इसलिए अात्मा को देखने का मतलब है सबसे पहले परमात्मा को देखना । परमात्मा कृष्ण हैं । वेदों में यह कहा जाता है, कठोपनिषद में, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | परमात्मा सभी शाश्वत जीवों के मुख्य शाश्वत जीव हैं । वे मुख्य जीव हैं सभी जीवों में । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मतलब है - अात्मा में स्थिर होना ।  
 
वही उदाहरण । अगर तुम मन को कृष्ण में स्थिर करते हो, तो फिर तुम सब में अपने मन को स्थिर कर सकते हो । वही उदाहरण फिर से, अगर तुम अपने पेट का ध्यान रखते हो, तो तुम सभी शारीरिक अंगों का ख्याल रखते हो । अगर तुम्हारे पेट को अच्छे पौष्टिक भोजन की आपूर्ति की जाती है तो, पेट सब गड़बड़ी से दूर है, तो तुम अच्छा स्वास्थ्य रखते हो । तो अगर तुम पेड़ की जड़ में पानी डालते हो, तो तुम स्वत: ही सभी शाखाओं, पत्ते, फूल, टहनियाँ, हर किसी का ख्याल रखते हो ।  
 
तो अगर तुम कृष्ण का ख्याल रखते हो, तो तुम दूसरों के लिए सबसे अच्छी सेवा करते हो । स्वचालित रूप से । ये लड़के, वे कीर्तन पार्टी के साथ जा रहे हैं । क्योंकि वे कृष्ण भावनाभावित हैं, एसा नहीं है कि वे इस मंदिर में आलसी होकर बैठे हैं । वे बाहर जा रहे हैं, इस तत्वज्ञान का उपदेश दे रहे हैं ताकि दूसरे इसका लाभ लें सके । तो एक कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति आलसी होकर नहीं बैठ सकता । वह सोचता है कि जीवन का एक ऐसा अच्छा तत्वज्ञान, यह क्यों वितरित नहीं किया जाना चाहिए । यही उसका मिशन है ।  
 
एक योगी अपनी उन्नती से संतुष्ट हो सकता है । वह एक सुनसान जगह में बैठा है, योग का अभ्यास करते हुए, दिव्य जीवन की तरफ उन्नती करते हुए । यह उसका निजी मामला है । लेकिन एक भक्त केवल खुद की व्यक्तिगत उन्नती से संतुष्ट नहीं है । हम वैष्णवों को हमारा सम्मान प्रदान करते हैं:
 
:वांछा कल्पतरुभ्यश च कृपा सिंधुभ्य एव च  
:पतितानाम पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: |
 
वही वैष्णव है, वही भक्त है, जो बहुत दयालु है बद्ध मनुष्य के प्रति । कृपा सिंधुभ्य एव च । कृपा का मतलब है दया, और सिंधु का मतलब है सागर । एक भक्त दया का सागर है । वह दया वितरित करना चाहता है । प्रभु यीशु मसीह की तरह, वे भगवद भावनाभावित थे, कृष्ण भावनाभावित, लेकिन वे अपने अाप में ही संतुष्ट नहीं थे । अगर वे भगवद भावनाभावित बने रहते अकेले, वे सूली पर नहीं चढते । लेकिन, नहीं । वे दूसरों की भी देखभाल करना चाहते थे, दूसरों को भगवद भावनाभावित होना चाहिए | दूसरों को कृष्ण भावनाभावित होना चाहिए । उनको राजा ने मना किया था - एसा न करने के लिए । अपने जीवन के जोखिम पर उन्होंने वह किया । यही भक्त का स्वभाव है ।  
 
इसलिए प्रचारक भक्त भगवान का सबसे, सबसे प्रिय भक्त है । यही भगवद-गीता में कहा गया है । वे बाहर जा रहे हैं, प्रचार कर रहे हैं, वे विरोधी तत्वों से मिल रहे हैं । कभी कभी वे हार रहे हैं, कभी कभी निराश हो रहे है, कभी कभी समझाने में सक्षम, विभिन्न प्रकार के लोग होते हैं । तो, एसा नहीं है कि हर भक्त बहुत अच्छी तरह से सुसज्जित है । तीन वर्ग के भक्त होते हैं । लेकिन वह प्रयास, की "मैं जाकर कृष्ण भावनामृत का प्रचार करूँगा," प्रभु की बेहतरीन सेवा है । क्योंकि वे विपरीत परिस्थितियों में लोगों को आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्च स्तर पे उन्नत करने के लिए कोशिश कर रहे हैं।
 
तो जिसने अनुभव किया है, जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की दिव्यता में है, वह आलस्य में नहीं बैठ सकता । उसे बाहर आना होगा । वह... जैसे रामानुजाचार्य की तरह । उन्होंने सार्वजनिक रूप से मंत्र की घोषणा की । उनके आध्यात्मिक गुरु नें कहा कि यह मंत्र... जैसे महर्षि तुम्हारे देश में आया । वह कुछ गुप्त मंत्र देना चाहता था । अगर उस मंत्र में थोड़ी भी शक्ति होती, तो क्यों वह गुप्त होना चाहिए ? अगर उस मंत्र में कुछ है, तो क्यों सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया जाना चाहिए ताकि हर कोई इस मंत्र का लाभ ले सके ? वह असली है । यह धोखा है, समझे ?  
 
यहाँ कोई धोखा प्रक्रिया नहीं है । हम कहते हैं कि यह महा-मंत्र आपको बचा सकता है, सार्वजनिक रूप से वितरण कर रहे हैं (अस्पष्ट) । नि:शुल्क, किसी भी शुल्क के बिना । लेकिन लोग मूर्ख हैं, वे इसे लेने के लिए तैयार नहीं हैं । वे उस मंत्र के पीछे लालायित होते हैं, महर्षि के पीछे । पैंतीस डॉलर का भुगतान करो और कुछ गुप्त मंत्र लो, समझे ? तो लोग धोखा खाना चाहते हैं । और यहाँ, हरे कृष्ण मंत्र, ये लोग बिना किसी शूल्क के प्रचार कर रहे हैं, सड़क में घोषित कर रहे हैं, पार्क में, हर जगह, "इसे लो ।" "ओह, यह अच्छा नहीं है ।" यह माया है, इसे भ्रम कहा जाता है । यह माया का जादू है । अौर अगर तुम शुल्क लेते हो, अगर तुम धोखा देते हो, ओह, लोग अनुसरण करेंगे ।  
 
सच्चा बोले तोमारे लात जूता जगत हरै, धन कलियुग दुख लालगे हस्पै (?) | यह एक भक्त द्वारा हिन्दी कविता है, इस कलयुग इतना घृणित है कि अगर तुम सच बोलते हो, तो लोग तुम्हे मारने के लिए डंडा लेकर अाऍगे । लेकिन अगर तुम उन्हें धोखा दो, झूठ बोलो, वे भ्रमित हो जाऍगे, उन्हें पसंद अाएगा । अगर मैं कहता हूँ, मैं भगवान हूँ, लोग कहेंगे "ओह, यहां स्वामीजी हैं, भगवान ।" वे पूछेंगे नहीं कि "कैसे तुम भगवान बन गए ? भगवान के लक्षण क्या हैं ? तुम में सभी लक्षण हैं ?" कोई भी नहीं पूछता है । तो ये चीज़े होती हैं, जब तक हम अात्मा में स्थित नहीं होते, जब तक हम समझते नहीं है कि वास्तविक आत्मा क्या है, जब तक हम नहीं समझते हैं की परमात्मा क्या है । तो, योग का मतलब है इस आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया को समझना । यही योग है । अागे पढो ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 6.25-29 -- Los Angeles, February 18, 1969

प्रभुपाद: पृष्ठ एक सौ छप्पन ।

विष्णुजन: "धीरे धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक, व्यक्ति बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए, अौर इस प्रकार मन को अात्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए (भ.गी. ६.२५) ।"

प्रभुपाद: हाँ । आत्मा... मन को अात्मा में स्थित करना चाहिए । हम अात्मा हैं और कृष्ण भी अात्मा हैं । तो, जैसे कि अगर तुम सूर्य पर अपनी आंखों को स्थिर करते हो, तो तुम सूर्य को अौर अपने आप को देख सकते हो । कभी कभी घने अंधेरे में हम अपने अाप को भी नहीं देख सकते हैं । यह तुमने अनुभव किया है । तो मैं घने अंधेरे में अपने शरीर को नहीं देख सकता । हालांकि शरीर मेरे साथ है, मैं शरीर हूँ या मैं जो कुछ भी हूँ, मैं अपने आप को नहीं देख सकता । यह अनुभव तुम्हे मिला है ।

तो अगर तुम सूर्यप्रकाश में हो, तो तुम सूर्य को देखते हो अौर अपने आप को भी । एसा नहीं है? इसलिए अात्मा को देखने का मतलब है सबसे पहले परमात्मा को देखना । परमात्मा कृष्ण हैं । वेदों में यह कहा जाता है, कठोपनिषद में, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | परमात्मा सभी शाश्वत जीवों के मुख्य शाश्वत जीव हैं । वे मुख्य जीव हैं सभी जीवों में । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मतलब है - अात्मा में स्थिर होना ।

वही उदाहरण । अगर तुम मन को कृष्ण में स्थिर करते हो, तो फिर तुम सब में अपने मन को स्थिर कर सकते हो । वही उदाहरण फिर से, अगर तुम अपने पेट का ध्यान रखते हो, तो तुम सभी शारीरिक अंगों का ख्याल रखते हो । अगर तुम्हारे पेट को अच्छे पौष्टिक भोजन की आपूर्ति की जाती है तो, पेट सब गड़बड़ी से दूर है, तो तुम अच्छा स्वास्थ्य रखते हो । तो अगर तुम पेड़ की जड़ में पानी डालते हो, तो तुम स्वत: ही सभी शाखाओं, पत्ते, फूल, टहनियाँ, हर किसी का ख्याल रखते हो ।

तो अगर तुम कृष्ण का ख्याल रखते हो, तो तुम दूसरों के लिए सबसे अच्छी सेवा करते हो । स्वचालित रूप से । ये लड़के, वे कीर्तन पार्टी के साथ जा रहे हैं । क्योंकि वे कृष्ण भावनाभावित हैं, एसा नहीं है कि वे इस मंदिर में आलसी होकर बैठे हैं । वे बाहर जा रहे हैं, इस तत्वज्ञान का उपदेश दे रहे हैं ताकि दूसरे इसका लाभ लें सके । तो एक कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति आलसी होकर नहीं बैठ सकता । वह सोचता है कि जीवन का एक ऐसा अच्छा तत्वज्ञान, यह क्यों वितरित नहीं किया जाना चाहिए । यही उसका मिशन है ।

एक योगी अपनी उन्नती से संतुष्ट हो सकता है । वह एक सुनसान जगह में बैठा है, योग का अभ्यास करते हुए, दिव्य जीवन की तरफ उन्नती करते हुए । यह उसका निजी मामला है । लेकिन एक भक्त केवल खुद की व्यक्तिगत उन्नती से संतुष्ट नहीं है । हम वैष्णवों को हमारा सम्मान प्रदान करते हैं:

वांछा कल्पतरुभ्यश च कृपा सिंधुभ्य एव च
पतितानाम पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: |

वही वैष्णव है, वही भक्त है, जो बहुत दयालु है बद्ध मनुष्य के प्रति । कृपा सिंधुभ्य एव च । कृपा का मतलब है दया, और सिंधु का मतलब है सागर । एक भक्त दया का सागर है । वह दया वितरित करना चाहता है । प्रभु यीशु मसीह की तरह, वे भगवद भावनाभावित थे, कृष्ण भावनाभावित, लेकिन वे अपने अाप में ही संतुष्ट नहीं थे । अगर वे भगवद भावनाभावित बने रहते अकेले, वे सूली पर नहीं चढते । लेकिन, नहीं । वे दूसरों की भी देखभाल करना चाहते थे, दूसरों को भगवद भावनाभावित होना चाहिए | दूसरों को कृष्ण भावनाभावित होना चाहिए । उनको राजा ने मना किया था - एसा न करने के लिए । अपने जीवन के जोखिम पर उन्होंने वह किया । यही भक्त का स्वभाव है ।

इसलिए प्रचारक भक्त भगवान का सबसे, सबसे प्रिय भक्त है । यही भगवद-गीता में कहा गया है । वे बाहर जा रहे हैं, प्रचार कर रहे हैं, वे विरोधी तत्वों से मिल रहे हैं । कभी कभी वे हार रहे हैं, कभी कभी निराश हो रहे है, कभी कभी समझाने में सक्षम, विभिन्न प्रकार के लोग होते हैं । तो, एसा नहीं है कि हर भक्त बहुत अच्छी तरह से सुसज्जित है । तीन वर्ग के भक्त होते हैं । लेकिन वह प्रयास, की "मैं जाकर कृष्ण भावनामृत का प्रचार करूँगा," प्रभु की बेहतरीन सेवा है । क्योंकि वे विपरीत परिस्थितियों में लोगों को आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्च स्तर पे उन्नत करने के लिए कोशिश कर रहे हैं।

तो जिसने अनुभव किया है, जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की दिव्यता में है, वह आलस्य में नहीं बैठ सकता । उसे बाहर आना होगा । वह... जैसे रामानुजाचार्य की तरह । उन्होंने सार्वजनिक रूप से मंत्र की घोषणा की । उनके आध्यात्मिक गुरु नें कहा कि यह मंत्र... जैसे महर्षि तुम्हारे देश में आया । वह कुछ गुप्त मंत्र देना चाहता था । अगर उस मंत्र में थोड़ी भी शक्ति होती, तो क्यों वह गुप्त होना चाहिए ? अगर उस मंत्र में कुछ है, तो क्यों सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया जाना चाहिए ताकि हर कोई इस मंत्र का लाभ ले सके ? वह असली है । यह धोखा है, समझे ?

यहाँ कोई धोखा प्रक्रिया नहीं है । हम कहते हैं कि यह महा-मंत्र आपको बचा सकता है, सार्वजनिक रूप से वितरण कर रहे हैं (अस्पष्ट) । नि:शुल्क, किसी भी शुल्क के बिना । लेकिन लोग मूर्ख हैं, वे इसे लेने के लिए तैयार नहीं हैं । वे उस मंत्र के पीछे लालायित होते हैं, महर्षि के पीछे । पैंतीस डॉलर का भुगतान करो और कुछ गुप्त मंत्र लो, समझे ? तो लोग धोखा खाना चाहते हैं । और यहाँ, हरे कृष्ण मंत्र, ये लोग बिना किसी शूल्क के प्रचार कर रहे हैं, सड़क में घोषित कर रहे हैं, पार्क में, हर जगह, "इसे लो ।" "ओह, यह अच्छा नहीं है ।" यह माया है, इसे भ्रम कहा जाता है । यह माया का जादू है । अौर अगर तुम शुल्क लेते हो, अगर तुम धोखा देते हो, ओह, लोग अनुसरण करेंगे ।

सच्चा बोले तोमारे लात जूता जगत हरै, धन कलियुग दुख लालगे हस्पै (?) | यह एक भक्त द्वारा हिन्दी कविता है, इस कलयुग इतना घृणित है कि अगर तुम सच बोलते हो, तो लोग तुम्हे मारने के लिए डंडा लेकर अाऍगे । लेकिन अगर तुम उन्हें धोखा दो, झूठ बोलो, वे भ्रमित हो जाऍगे, उन्हें पसंद अाएगा । अगर मैं कहता हूँ, मैं भगवान हूँ, लोग कहेंगे "ओह, यहां स्वामीजी हैं, भगवान ।" वे पूछेंगे नहीं कि "कैसे तुम भगवान बन गए ? भगवान के लक्षण क्या हैं ? तुम में सभी लक्षण हैं ?" कोई भी नहीं पूछता है । तो ये चीज़े होती हैं, जब तक हम अात्मा में स्थित नहीं होते, जब तक हम समझते नहीं है कि वास्तविक आत्मा क्या है, जब तक हम नहीं समझते हैं की परमात्मा क्या है । तो, योग का मतलब है इस आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया को समझना । यही योग है । अागे पढो ।