HI/Prabhupada 0216 - कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं: Difference between revisions
(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0216 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1976 Category:HI-Quotes - Lec...") |
m (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->") |
||
Line 7: | Line 7: | ||
[[Category:HI-Quotes - in India, Vrndavana]] | [[Category:HI-Quotes - in India, Vrndavana]] | ||
<!-- END CATEGORY LIST --> | <!-- END CATEGORY LIST --> | ||
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE --> | |||
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0215 - आपको पढ़ना होगा । तो आप समझ पाअोगे|0215|HI/Prabhupada 0217 - देवहुति का पद एक आदर्श महिला का पद है|0217}} | |||
<!-- END NAVIGATION BAR --> | |||
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK--> | <!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK--> | ||
<div class="center"> | <div class="center"> | ||
Line 15: | Line 18: | ||
<!-- BEGIN VIDEO LINK --> | <!-- BEGIN VIDEO LINK --> | ||
{{youtube_right| | {{youtube_right|zsuPo9g9bgQ|कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं - Prabhupāda 0216}} | ||
<!-- END VIDEO LINK --> | <!-- END VIDEO LINK --> | ||
<!-- BEGIN AUDIO LINK --> | <!-- BEGIN AUDIO LINK --> | ||
<mp3player> | <mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/761006SB.VRN_clip.mp3</mp3player> | ||
<!-- END AUDIO LINK --> | <!-- END AUDIO LINK --> | ||
Line 27: | Line 30: | ||
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT --> | <!-- BEGIN TRANSLATED TEXT --> | ||
यह | यह वैष्णव का रवैया है । पर-दुःख-दुखी । वैष्णव है पर-दुःख-दुखी । यही वैष्णव की योग्यता है । वह अपने व्यक्तिगत तकलीफों या असुविधा की परवाह नहीं करता । लेकिन वह, एक वैष्णव, पीड़ित होता है, व्यथित, जब अन्य कोई पीडित होता है । यही वैष्णव है । प्रहलाद महाराज ने कहा | ||
:नैवोद्विजे पर दुरत्यय- | :नैवोद्विजे पर दुरत्यय-वैतरण्यास | ||
:त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्त: | :त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्त: | ||
:शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ- | :शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ- | ||
:माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढान | :माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढान | ||
:([[Vanisource:SB 7.9.43| | :([[Vanisource:SB 7.9.43|श्रीमद भागवतम ७.९.४३]]) | ||
प्रहलाद महाराज इतने परेशान | प्रहलाद महाराज इतने परेशान किये गए थे अपने पिता द्वारा, और उनके पिता को मार डाला गया था । और फिर भी, जब उन्हें भगवान नरसिंह-देव द्वारा आशीर्वाद मागने को कहा गया, उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया । उन्होंने कहा, स वै वणिक | मेरे प्रभु, हम रजो-गुण, तमो-गुण के परिवार में पैदा हुए हैं । रजो-गुण, तमो-गुण, असुर, वे दो निम्न गुण, रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित होते हैं । और जो देवता हैं, वे सत्व-गुण से प्रभावित होते हैं । तीन गुण हैं भौतिक संसार में । सत्व-गुण ... त्रि-गुणमयी | दैवी हि एषा गुणमयी ([[HI/BG 7.14|भ.गी. ७.१४]]) | गुणमयी, त्रैगुणमयी । इस भौतिक दुनिया में, सत्व-गुण, रजो-गुण, तमो-गुण । तो जो लोग सत्व-गुण से प्रभावित हैं, वे प्रथम श्रेणी के हैं । प्रथम श्रेणी का मतलब है इस भौतिक संसार में प्रथम श्रेणी । आध्यात्मिक दुनिया में नहीं । | ||
: | आध्यात्मिक दुनिया अलग है । वह निर्गुण है, कोई भौतिक गुण नहीं । कोई प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी नहीं है वहाँ । हर कोई प्रथम श्रेणी का है । यही पूर्णता है । कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं । पेड़ प्रथम श्रेणी के हैं, पक्षी प्रथम श्रेणी के हैं, गाऍ प्रथम श्रेणी की हैं, बछड़े प्रथम श्रेणी के हैं । इसलिए उसे निरपेक्ष कहा जाता है । सापेक्ष की कोई अवधारणा नहीं है, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी, चौथी श्रेणी । नहीं । सब कुछ प्रथम श्रेणी का है । आनंद-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभि: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) | हर चीज़ की रचना है आनंद-चिन्मय-रस । कोई वर्गीकरण नहीं है । या तो हम दास्य-रस में स्थित हैं, हम साख्य-रस में स्थित हैं, या वात्सल्य-रस में या माधुर्य-रस में, वे सब एक हैं । कोई भेद नहीं है । लेकिन विविधता है । | ||
:तरोर अपि | |||
:अमानिना मानदेन | तुम्हे यह रस पसंद है, मुझे यह रस, इसकी अनुमति है । तो यहाँ इस भौतिक संसार में, वे तीन रसों से प्रभावित हैं, और प्रहलाद महाराज, हिरण्यकश्यपु के पुत्र होने के नाते वे मानते थे कि, "मैं रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित हूँ । " वे वैष्णव हैं, वे सब गुणों से ऊपर हैं, लेकिन एक वैष्णव अपने गुणों पर गर्व नहीं करते है । दरअसल, वह उस तरह महसूस नहीं करता है, वह बहुत उन्नत है, वह बहुत ही प्रबुद्ध है । वह हमेशा सोचता है "मैं सबसे निम्न हूँ ।" | ||
:तृणाद अपि सुनिचेन | |||
:तरोर अपि सहिष्णुना | |||
:अमानिना मानदेन | |||
:कीर्तनीय सदा हरि: | :कीर्तनीय सदा हरि: | ||
:([[Vanisource:CC Adi 17.31| | :([[Vanisource:CC Adi 17.31|चैतन्य चरितामृत आदि १७.३१]]) | ||
यह | यह वैष्णव है । | ||
<!-- END TRANSLATED TEXT --> | <!-- END TRANSLATED TEXT --> |
Latest revision as of 17:39, 1 October 2020
Lecture on SB 1.7.47-48 -- Vrndavana, October 6, 1976
यह वैष्णव का रवैया है । पर-दुःख-दुखी । वैष्णव है पर-दुःख-दुखी । यही वैष्णव की योग्यता है । वह अपने व्यक्तिगत तकलीफों या असुविधा की परवाह नहीं करता । लेकिन वह, एक वैष्णव, पीड़ित होता है, व्यथित, जब अन्य कोई पीडित होता है । यही वैष्णव है । प्रहलाद महाराज ने कहा
- नैवोद्विजे पर दुरत्यय-वैतरण्यास
- त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्त:
- शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ-
- माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढान
- (श्रीमद भागवतम ७.९.४३)
प्रहलाद महाराज इतने परेशान किये गए थे अपने पिता द्वारा, और उनके पिता को मार डाला गया था । और फिर भी, जब उन्हें भगवान नरसिंह-देव द्वारा आशीर्वाद मागने को कहा गया, उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया । उन्होंने कहा, स वै वणिक | मेरे प्रभु, हम रजो-गुण, तमो-गुण के परिवार में पैदा हुए हैं । रजो-गुण, तमो-गुण, असुर, वे दो निम्न गुण, रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित होते हैं । और जो देवता हैं, वे सत्व-गुण से प्रभावित होते हैं । तीन गुण हैं भौतिक संसार में । सत्व-गुण ... त्रि-गुणमयी | दैवी हि एषा गुणमयी (भ.गी. ७.१४) | गुणमयी, त्रैगुणमयी । इस भौतिक दुनिया में, सत्व-गुण, रजो-गुण, तमो-गुण । तो जो लोग सत्व-गुण से प्रभावित हैं, वे प्रथम श्रेणी के हैं । प्रथम श्रेणी का मतलब है इस भौतिक संसार में प्रथम श्रेणी । आध्यात्मिक दुनिया में नहीं ।
आध्यात्मिक दुनिया अलग है । वह निर्गुण है, कोई भौतिक गुण नहीं । कोई प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी नहीं है वहाँ । हर कोई प्रथम श्रेणी का है । यही पूर्णता है । कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं । पेड़ प्रथम श्रेणी के हैं, पक्षी प्रथम श्रेणी के हैं, गाऍ प्रथम श्रेणी की हैं, बछड़े प्रथम श्रेणी के हैं । इसलिए उसे निरपेक्ष कहा जाता है । सापेक्ष की कोई अवधारणा नहीं है, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी, चौथी श्रेणी । नहीं । सब कुछ प्रथम श्रेणी का है । आनंद-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभि: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) | हर चीज़ की रचना है आनंद-चिन्मय-रस । कोई वर्गीकरण नहीं है । या तो हम दास्य-रस में स्थित हैं, हम साख्य-रस में स्थित हैं, या वात्सल्य-रस में या माधुर्य-रस में, वे सब एक हैं । कोई भेद नहीं है । लेकिन विविधता है ।
तुम्हे यह रस पसंद है, मुझे यह रस, इसकी अनुमति है । तो यहाँ इस भौतिक संसार में, वे तीन रसों से प्रभावित हैं, और प्रहलाद महाराज, हिरण्यकश्यपु के पुत्र होने के नाते वे मानते थे कि, "मैं रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित हूँ । " वे वैष्णव हैं, वे सब गुणों से ऊपर हैं, लेकिन एक वैष्णव अपने गुणों पर गर्व नहीं करते है । दरअसल, वह उस तरह महसूस नहीं करता है, वह बहुत उन्नत है, वह बहुत ही प्रबुद्ध है । वह हमेशा सोचता है "मैं सबसे निम्न हूँ ।"
- तृणाद अपि सुनिचेन
- तरोर अपि सहिष्णुना
- अमानिना मानदेन
- कीर्तनीय सदा हरि:
- (चैतन्य चरितामृत आदि १७.३१)
यह वैष्णव है ।