HI/Prabhupada 0275 - धर्म का मतलब है कर्तव्य: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0275 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1973 Category:HI-Quotes - Lec...")
 
(Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
 
Line 6: Line 6:
[[Category:HI-Quotes - in United Kingdom]]
[[Category:HI-Quotes - in United Kingdom]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0274 - वैसे ही जैसे हम ब्रह्म सम्प्रदाय के हैं|0274|HI/Prabhupada 0276 - गुरु का कार्य है कृष्ण देना, न कि भौतिक सामग्री देना|0276}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 14: Line 17:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|P9LqKrFVDnc|धर्म का मतलब है कर्तव्य - Prabhupāda 0275}}
{{youtube_right|TOIOytjmNf0|धर्म का मतलब है कर्तव्य - Prabhupāda 0275}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<mp3player>http://vaniquotes.org/w/images/730807BG.LON_clip6.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/730807BG.LON_clip6.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 26: Line 29:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
तो गुरु कृष्ण हैं । यहाँ अर्जुन द्वारा दिए गया उदाहरण है । प्रच्छामि त्वाम । यह त्वाम कौन है? कृष्ण । "तुम मुझे क्यों पूछ रहे हो?" धर्म-सम्मूढा-चेता: ([[Vanisource:BG 2.7|भ गी २।७]]) "मैं अपने कर्तव्यों में व्यग्र हूँ, धर्म ।" धर्म का मतलब है कर्तव्य । धर्मन तू साक्शाद भगवत प्रनीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रश्री भ ६।३।१९]]) सम्मूढ-चेता: "तो मुझे क्या करना है?" यच श्रेय: "क्या वास्तव में मेरा कर्तव्य है?" श्रेय: । श्रेय: और प्रेय: । प्रय: ... वे दो बातें हैं । प्रेय: का मतलब मुझे तुरंत अच्छा लगता है, बहुत अच्छा । और श्रेय का मतलब है अंतिम लक्ष्य । वे दो बातें कर रहे हैं । वैसे ही जैसे एक बच्चा पूरे दिन खेलना चाहता है । यही बचकाना स्वभाव है । यही श्रेय है । और प्रेय मतलब है कि उसे शिक्षा लेनी चाहिए ताकि भविष्य में उसका जीवन िक रहे । यही प्रेय श्रेय । तो अर्जुन प्रेय नहीं पूछ रहे हैं । वह कृष्ण से निर्देश पूछ रहा है अपने श्रेय की पुष्टि करने के उद्देश्य से नहीं । श्रेय इसका मतलब है कि वे तुरंत सोच रहे थे कि : "मैं खुश हो जाऊँगा न लड़ कर, मेरे भाइयों की हत्या से नहीं। " यही, वह थे, एक बच्चे की तरह, वे सोच रहा थे । श्रेय । लेकिन जब वह अपनी चेतना में वापस अाए ... वास्तव में चेतना नहीं, क्योंकि वह बुद्धिमान हैं, वे श्रेय के लिए पूछ रहे हैं, श्रेय । यच श्रेय स्यात । "वास्तव में, जीवन का मेरा अंतिम लक्ष्य क्या है?" यच श्रेय स्यात । यच श्रेय स्यात निश्चितम ([[Vanisource:BG 2.7|भ गी २।७]]) निश्चितम का मतलब है निश्चित, किसी भी गलती के बिना, निश्चितम । भागवत में, वहाँ है, निश्चितम । निश्चितम का मतलब है तुम्हे अनुसंधान करने की ज़रूरत नहीं है । यह पहले से ही तय हो चुका है । "यह निर्णय है ।" क्योंकि हम, हमारे नन्हे मस्तिष्क के साथ, हम वास्तविक निश्चितम का पता नहीं लगा सकते हैं, तय श्रेय । हम नहीं जानते है। यह तुम्हे कृष्ण से पूछना होगा । या उनके प्रतिनिधि से । ये बातें हैं । यच श्रेय स्यात निश्चितम ब्रूहि तन मे
तो गुरु कृष्ण हैं । यहाँ अर्जुन द्वारा दिया गया उदाहरण है । पृच्छामि त्वाम । यह त्वाम कौन है? कृष्ण । "तुम मुझे क्यों पूछ रहे हो?" धर्म-सम्मूढा-चेता: ([[HI/BG 2.7|भ.गी. २.७]]) | "मैं अपने कर्तव्यों में, धर्म में, व्यग्र हूँ ।" धर्म का मतलब है कर्तव्य । धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]] | सम्मूढ-चेता: | "तो मुझे क्या करना है?" यच श्रेय: "वास्तव में मेरा कर्तव्य क्या है?" श्रेय:। श्रेय: और प्रेय:। प्रेय: ... दो चीज़े होती हैं । प्रेय: का मतलब मुझे तुरंत अच्छा लगता है, बहुत अच्छा । और श्रेय का मतलब है अंतिम लक्ष्य । वे दो चीज़े हैं । वैसे ही जैसे एक बच्चा पूरे दिन खेलना चाहता है । यही बचकाना स्वभाव है । यही श्रेय है । और प्रेय मतलब है कि उसे शिक्षा लेनी चाहिए ताकि भविष्य में उसका जीवन ठीक रहे । यही प्रेय है, श्रेय ।  


तो ... "कृपया मुझे यह बताइए ।" "तो क्यों मैं तुम से बात करूँ?" यहाँ कहते हैं: शिष्यस ते अहम ([[Vanisource:BG 2.7|भ गी २।७]]) "अब मैं अापको गुरु के रूप में स्वीकार कर रहा हूँ । मैं अापका शिष्य बनता हूँ ।" शिष्य का अर्थ है: "जो भी आप कहोगे, मैं स्वीकार करता हूँ ।" यही शिष्य है । शिष्य शब्द श्श-धातु से आता है । श्श धातु । शास्त्र । शास्त्र । शासन । शिष्य । ये एक ही जड़ से अा रहे हैं । श्श धातु । श्श धातु मतलब है, राज, राज करना । तो हम विभिन्न तरीकों से शासन कर सकते हैं । हम एक उचित गुरु के शिष्य बान कर शासन कर सकते हैं । यही श्श-धातु है । या हम शस्त्र, हथियार से शासित हो सकते हैं । वैसे ही जैसे राजा के पास हथियार है । अगर तुम राजा का अादेश या सरकार के निर्देश का पालन नहीं करते हो तब पुलिस बल, सैन्य बल है । यही शस्त्र है. । और शास्त्र भी है । शास्त्र का मतलब है, पुस्तक । वैसे ही जैसे भगवद गीता । सब कुछ है । तो हमें या तो शस्त्र, शास्त्र या गुरु से, शासन किया जाना चाहिए । या शिष्य बन कर । इसलिए यह कहा जाता है: शिष्यस ते अहम ([[Vanisource:BG 2.7|भ गी २।७]]) "मैं स्वेच्छा से बन ... मैं आप को आत्मसमर्पण करता हूँ ।" "अब तुम शिष्य बन गए हो। मेरे शिष्य होने का क्या सबूत है ?" शाधि माम त्वाम प्रपन्नम । "अब मैं पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर रहा हूँ ।" प्रपन्नम ।
तो अर्जुन प्रेय नहीं पूछ रहा हैं । वह कृष्ण से निर्देश पूछ रहा है अपने श्रेय की पुष्टि करने के उद्देश्य से नहीं । श्रेय इसका मतलब है कि वो तुरंत सोच रहा थे कि: "मैं न लड़ के खुश हो जाऊँगा, मेरे भाइयों की हत्या से नहीं। " यही, वो था, एक बच्चे की तरह, वो सोच रहा था । श्रेय । लेकिन जब वह अपनी चेतना में वापस आया ... वास्तव में चेतना नहीं,  क्योंकि वह बुद्धिमान हैं, वे श्रेय के लिए पूछ रहे हैं, श्रेय । यच श्रेय स्यात । "वास्तव में, जीवन का मेरा अंतिम लक्ष्य क्या है?" यच श्रेय स्यात । यच श्रेय स्यात निश्चितम ([[HI/BG 2.7|भ.गी. २.७]]) | निश्चितम का मतलब है निश्चित, किसी भी गलती के बिना, निश्चितम । भागवत में है, निश्चितम । निश्चितम का मतलब है तुम्हे अनुसंधान करने की ज़रूरत नहीं है । यह पहले से ही तय हो चुका है । "यह निर्णय है ।" क्योंकि हम, हमारे नन्हे मस्तिष्क के साथ, हम वास्तविक निश्चितम का पता नहीं लगा सकते हैं, तय श्रेय । हम नहीं जानते है।  यह तुम्हे कृष्ण से पूछना होगा । या उनके प्रतिनिधि से । ये बातें हैं ।
 
यच श्रेय स्यात निश्चितम ब्रूहि तन मे । तो ... "कृपया मुझे यह बताइए ।" "तो क्यों मैं तुम से बात करूँ?" यहाँ कहते हैं: शिष्यस ते अहम ([[HI/BG 2.7|भ.गी. २.७]]) | "अब मैं अापको गुरु के रूप में स्वीकार कर रहा हूँ । मैं अापका शिष्य बनता हूँ ।" शिष्य का अर्थ है: "जो भी आप कहोगे, मैं स्वीकार करता हूँ ।" यही शिष्य है । शिष्य शब्द शस-धातु से आता है । शस धातु । शास्त्र । शस्त्र । शासन । शिष्य । ये एक ही जड़ से अा रहे हैं । शस धातु शस धातु मतलब है, राज, राज करना । तो हम विभिन्न तरीकों से शासन कर सकते हैं । हम एक उचित गुरु के शिष्य बन कर शासन किए जा सकते हैं । यही शस-धातु है । या हम शस्त्र, हथियार से शासित हो सकते हैं । वैसे ही जैसे राजा के पास हथियार है ।  
 
अगर तुम राजा का अादेश या सरकार के निर्देश का पालन नहीं करते हो, तब पुलिस बल, सैन्य बल है । यही शस्त्र है । और शास्त्र भी है । शास्त्र का मतलब है, पुस्तक । वैसे ही जैसे भगवद गीता । सब कुछ है । तो हमें या तो शस्त्र, शास्त्र या गुरु से, शासन किया जाना चाहिए । या शिष्य बन कर । इसलिए यह कहा जाता है: शिष्यस ते अहम ([[HI/BG 2.7|भ.गी. २.७]]) | "मैं स्वेच्छा से बन ... मैं आप को आत्मसमर्पण करता हूँ ।" "अब तुम शिष्य बन गए हो। मेरे शिष्य होने का क्या सबूत है ?" शाधि माम त्वाम प्रपन्नम । "अब मैं पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर रहा हूँ ।" प्रपन्नम ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 18:27, 17 September 2020



Lecture on BG 2.7 -- London, August 7, 1973

तो गुरु कृष्ण हैं । यहाँ अर्जुन द्वारा दिया गया उदाहरण है । पृच्छामि त्वाम । यह त्वाम कौन है? कृष्ण । "तुम मुझे क्यों पूछ रहे हो?" धर्म-सम्मूढा-चेता: (भ.गी. २.७) | "मैं अपने कर्तव्यों में, धर्म में, व्यग्र हूँ ।" धर्म का मतलब है कर्तव्य । धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९ | सम्मूढ-चेता: | "तो मुझे क्या करना है?" यच श्रेय: "वास्तव में मेरा कर्तव्य क्या है?" श्रेय:। श्रेय: और प्रेय:। प्रेय: ... दो चीज़े होती हैं । प्रेय: का मतलब मुझे तुरंत अच्छा लगता है, बहुत अच्छा । और श्रेय का मतलब है अंतिम लक्ष्य । वे दो चीज़े हैं । वैसे ही जैसे एक बच्चा पूरे दिन खेलना चाहता है । यही बचकाना स्वभाव है । यही श्रेय है । और प्रेय मतलब है कि उसे शिक्षा लेनी चाहिए ताकि भविष्य में उसका जीवन ठीक रहे । यही प्रेय है, श्रेय ।

तो अर्जुन प्रेय नहीं पूछ रहा हैं । वह कृष्ण से निर्देश पूछ रहा है अपने श्रेय की पुष्टि करने के उद्देश्य से नहीं । श्रेय इसका मतलब है कि वो तुरंत सोच रहा थे कि: "मैं न लड़ के खुश हो जाऊँगा, मेरे भाइयों की हत्या से नहीं। " यही, वो था, एक बच्चे की तरह, वो सोच रहा था । श्रेय । लेकिन जब वह अपनी चेतना में वापस आया ... वास्तव में चेतना नहीं, क्योंकि वह बुद्धिमान हैं, वे श्रेय के लिए पूछ रहे हैं, श्रेय । यच श्रेय स्यात । "वास्तव में, जीवन का मेरा अंतिम लक्ष्य क्या है?" यच श्रेय स्यात । यच श्रेय स्यात निश्चितम (भ.गी. २.७) | निश्चितम का मतलब है निश्चित, किसी भी गलती के बिना, निश्चितम । भागवत में है, निश्चितम । निश्चितम का मतलब है तुम्हे अनुसंधान करने की ज़रूरत नहीं है । यह पहले से ही तय हो चुका है । "यह निर्णय है ।" क्योंकि हम, हमारे नन्हे मस्तिष्क के साथ, हम वास्तविक निश्चितम का पता नहीं लगा सकते हैं, तय श्रेय । हम नहीं जानते है। यह तुम्हे कृष्ण से पूछना होगा । या उनके प्रतिनिधि से । ये बातें हैं ।

यच श्रेय स्यात निश्चितम ब्रूहि तन मे । तो ... "कृपया मुझे यह बताइए ।" "तो क्यों मैं तुम से बात करूँ?" यहाँ कहते हैं: शिष्यस ते अहम (भ.गी. २.७) | "अब मैं अापको गुरु के रूप में स्वीकार कर रहा हूँ । मैं अापका शिष्य बनता हूँ ।" शिष्य का अर्थ है: "जो भी आप कहोगे, मैं स्वीकार करता हूँ ।" यही शिष्य है । शिष्य शब्द शस-धातु से आता है । शस धातु । शास्त्र । शस्त्र । शासन । शिष्य । ये एक ही जड़ से अा रहे हैं । शस धातु । शस धातु मतलब है, राज, राज करना । तो हम विभिन्न तरीकों से शासन कर सकते हैं । हम एक उचित गुरु के शिष्य बन कर शासन किए जा सकते हैं । यही शस-धातु है । या हम शस्त्र, हथियार से शासित हो सकते हैं । वैसे ही जैसे राजा के पास हथियार है ।

अगर तुम राजा का अादेश या सरकार के निर्देश का पालन नहीं करते हो, तब पुलिस बल, सैन्य बल है । यही शस्त्र है । और शास्त्र भी है । शास्त्र का मतलब है, पुस्तक । वैसे ही जैसे भगवद गीता । सब कुछ है । तो हमें या तो शस्त्र, शास्त्र या गुरु से, शासन किया जाना चाहिए । या शिष्य बन कर । इसलिए यह कहा जाता है: शिष्यस ते अहम (भ.गी. २.७) | "मैं स्वेच्छा से बन ... मैं आप को आत्मसमर्पण करता हूँ ।" "अब तुम शिष्य बन गए हो। मेरे शिष्य होने का क्या सबूत है ?" शाधि माम त्वाम प्रपन्नम । "अब मैं पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर रहा हूँ ।" प्रपन्नम ।