HI/Prabhupada 0513 - कई अन्य शरीर हैं, ८४,००,००० अलग प्रकार के शरीर: Difference between revisions

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जब पूछा जा रहा है कि, क्यों एक को राजा का शरीर मिला है, वह क्यों उसे मिला है, एक सुअर का शरीर मिला है । तो कई अन्य शरीर हैं, ,४००,००० अलग प्रकार के शरीर । तो क्यों अंतर है? यह अंतर भगवद गीता में स्पष्ट किया गया है । कारणम । कारणम का मतलब है कारण । ये किस्में क्यों हैं ..., कारणम गुण-संगो अस्य । अस्य, जीवस्य । वह गुणों के विभिन्न प्रकार के साथ जुड़ रहा है, और इसलिए उसे अलग प्रकार का शरीर मिल रहा है । कारणम गुण-संगो अस्य । इसलिए हमारा काम है भौतिक गुणों के साथ संबद्ध न रखने का । यहां तक ​​कि सत्व गुण तक भी । भौतिक गुणवत्ता, सत्व का मतलब है ब्राह्मणवादी गुणवत्ता । सत्व सम दमस तितिक्शवा । तो भक्ति सेवा इन सत्व गुणों से भी उत्कृष्ट है । इस भौतिक दुनिया में, अगर किसी न किसी तरह से, उसे एक ब्राह्मण परिवार में जन्म मिला है या वह अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन कर रहा है एक सख्त ब्राह्मण की तरह, फिर भी वह इस भौतिक प्रकृति के नियमों के तहत सशर्त है, अभी भी । और दूसरों की क्या बात करें, जो रजस और तमस में हैं । उनकी स्थिति सबसे घृणित है । जघन्य-गुण-वृत्ति-स्था अधो गच्छन्ति तामसा: ([[Vanisource:BG 14.18|भ गी १४।१८]]) जो तामसिक गुण में हैं, जघन्य, बहुत घृणित अवस्था में हैं । तो वर्तमान समय में ... यही शूद्र है । कलौ शूद्र-सम्भव: कली के इस युग में, हर कोई तामसिक गुण में है । शूद्र । वे नहीं जानते क्योंकि ... जो जानता है कि "मैं आत्मा हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ," वह ब्राह्मण है । और जो नहीं जानता है, वह शूद्र, कृपण है । एतद विदित प्राये स ब्राह्मण । हर कोई मर जाता है, यह ठीक है, लेकिन आध्यात्मिक सच्चाई जानने के बाद जो मरता है, ... जैसे यहाँ, जो छात्र आध्यात्मिक जीवन क्या है यह समझने की कोशिश कर रहे हैं, और, किसी न किसी तरह से, वे समझ जाता है कि वह अात्मा है, कम से कम, तब वह ब्राह्मण बन जाता है । वह ब्राह्मण बन जाता है । एतद विदित । और जो नहीं समझता हैं, वह एक कृपण है । कृपण का मतलब है कंजूस । ब्राह्मण का मतलब है उदार । ये शस्त्रिक अादेश है । तो सब से पहले, हमें ब्राह्मण बनना है । फिर वैष्णव । ब्राह्मण बस जानता है कि "मैं आत्मा हूँ " अहम् ब्रह्मास्मि । ब्रह्म जानाती इति ब्राह्मण । + ऐसे ज्ञान से हम प्रसन्नात्मा बन जाते हैं । मतलब राहत महसूस करते हैं । जैसे तुम राहत महसूस करते हो... अगर तुम्हारे सिर पर बोझ है, और बोझ हटा दिया जाया है, तो तुम राहत महसूस करते हो, इसी प्रकार, यह अज्ञान कि "मैं यह शरीर नहीं हूँ " एक महान बोझ है, हम पर एक बोझ है । तो जब इश्र बोझ से हम बाहर निकलते हैं, तो तुम्हे सुकून मिलता है । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]) मतलब है कि वास्तव में हब हम समझते हैं कि "मैं आत्मा हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ" तब उसे इस शरीर को बनाए रखने के लिए इतनी मेहनत से काम करना पडता है, तो उसे राहत मिलती है कि " क्यों मैं भौतिक चीज़ों के लिए इतनी मेहनत से काम कर रहा हूँ? मुझे मेरे जीवन की वास्तविक आवश्यकता पर अमल करना है, आध्यात्मिक जीवन ।" यही बड़ी राहत है । यही बड़ी राहत है । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न सोचति काक्शति ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]) राहत का मतलब है, कोई उत्कंठा नहीं, कोई विलाप नहीं । ये ब्रह्म भूत: है ।
जब पूछा जा रहा है कि, क्यों एक को राजा का शरीर मिला है, वह क्यों उसे मिला है, एक को सुअर का शरीर मिला है । तो कई अन्य शरीर हैं, ८४,००,००० अलग प्रकार के शरीर । तो क्यों अंतर है ? यह अंतर भगवद गीता में स्पष्ट किया गया है । कारणम । कारणम का मतलब है कारण । ये किस्में क्यों हैं..., कारणम गुण-संगो अस्य । अस्य, जीवस्य । वह गुणों के विभिन्न प्रकार के साथ जुड़ रहा है, और इसलिए उसे अलग प्रकार का शरीर मिल रहा है । कारणम गुण-संगो अस्य । इसलिए हमारा काम है भौतिक गुणों के साथ संबद्ध न रखने का । यहां तक ​​कि सत्व गुण तक भी । भौतिक गुण, सत्व का मतलब है ब्राह्मणवादी गुणवत्ता ।  
 
सत्व सम दमस तितिक्षा । तो भक्ति सेवा इन सत्व गुणों से भी उत्कृष्ट है । इस भौतिक दुनिया में, अगर किसी न किसी तरह से, उसे एक ब्राह्मण परिवार में जन्म मिला है या वह अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन कर रहा है एक सख्त ब्राह्मण की तरह, फिर भी वह इस भौतिक प्रकृति के नियमों के तहत बद्ध है, अभी भी । और दूसरों की क्या बात करें, जो रजस और तमस में हैं । उनकी स्थिति सबसे घृणित है । जघन्य-गुण-वृत्ति-स्था अधो गच्छन्ति तामसा: ([[HI/BG 14.18|भ.गी. १४.१८]]) जो तामसिक गुण में हैं, जघन्य, बहुत घृणित अवस्था में हैं । तो वर्तमान समय में... यही शूद्र है । कलौ शूद्र-सम्भव: |
 
कली के इस युग में, हर कोई तामसिक गुण में है । शूद्र । वे नहीं जानते क्योंकि... जो जानता है कि "मैं आत्मा हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ," वह ब्राह्मण है । और जो नहीं जानता है, वह शूद्र, कृपण है । एतद विदित प्राये स ब्राह्मण । हर कोई मर जाता है, यह ठीक है, लेकिन आध्यात्मिक सच्चाई जानने के बाद जो मरता है... जैसे यहाँ, जो छात्र आध्यात्मिक जीवन क्या है यह समझने की कोशिश कर रहे हैं, और, किसी न किसी तरह से, वे समझ जाता है कि वह अात्मा है, कम से कम, तब वह ब्राह्मण बन जाता है । वह ब्राह्मण बन जाता है । एतद विदित । और जो नहीं समझता हैं, वह एक कृपण है । कृपण का मतलब है कंजूस । ब्राह्मण का मतलब है उदार । ये शास्त्रिक अादेश है ।  
 
तो सब से पहले, हमें ब्राह्मण बनना है । फिर वैष्णव । ब्राह्मण बस जानता है कि "मैं आत्मा हूँ " अहम ब्रह्मास्मि । ब्रह्म जानाती इति ब्राह्मण । ब्रह्म भूत प्रसन्नात्मा ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) | ऐसे ज्ञान से हम प्रसन्नात्मा बन जाते हैं । मतलब राहत महसूस करते हैं । जैसे तुम राहत महसूस करते हो... अगर तुम्हारे सिर पर बोझ है, और बोझ हटा दिया जाया है, तो तुम राहत महसूस करते हो, इसी प्रकार, यह अज्ञान कि "मैं यह शरीर नहीं हूँ" एक महान बोझ है, हम पर एक बोझ है । तो जब इस बोझ से हम बाहर निकलते हैं, तो तुम्हे सुकून मिलता है । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) |
 
मतलब है कि वास्तव में हब हम समझते हैं कि "मैं आत्मा हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ," तब उसे इस शरीर को बनाए रखने के लिए इतनी मेहनत से काम करना पडता है, तो उसे राहत मिलती है कि "क्यों मैं भौतिक चीज़ों के लिए इतनी मेहनत से काम कर रहा हूँ? मुझे मेरे जीवन की वास्तविक आवश्यकता पर अमल करना है, आध्यात्मिक जीवन ।" यही बड़ी राहत है । यही बड़ी राहत है । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति कांक्षति ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) | राहत का मतलब है, कोई उत्कंठा नहीं, कोई विलाप नहीं । ये ब्रह्म-भूत: है ।  
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Latest revision as of 18:47, 17 September 2020



Lecture on BG 2.25 -- London, August 28, 1973

जब पूछा जा रहा है कि, क्यों एक को राजा का शरीर मिला है, वह क्यों उसे मिला है, एक को सुअर का शरीर मिला है । तो कई अन्य शरीर हैं, ८४,००,००० अलग प्रकार के शरीर । तो क्यों अंतर है ? यह अंतर भगवद गीता में स्पष्ट किया गया है । कारणम । कारणम का मतलब है कारण । ये किस्में क्यों हैं..., कारणम गुण-संगो अस्य । अस्य, जीवस्य । वह गुणों के विभिन्न प्रकार के साथ जुड़ रहा है, और इसलिए उसे अलग प्रकार का शरीर मिल रहा है । कारणम गुण-संगो अस्य । इसलिए हमारा काम है भौतिक गुणों के साथ संबद्ध न रखने का । यहां तक ​​कि सत्व गुण तक भी । भौतिक गुण, सत्व का मतलब है ब्राह्मणवादी गुणवत्ता ।

सत्व सम दमस तितिक्षा । तो भक्ति सेवा इन सत्व गुणों से भी उत्कृष्ट है । इस भौतिक दुनिया में, अगर किसी न किसी तरह से, उसे एक ब्राह्मण परिवार में जन्म मिला है या वह अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन कर रहा है एक सख्त ब्राह्मण की तरह, फिर भी वह इस भौतिक प्रकृति के नियमों के तहत बद्ध है, अभी भी । और दूसरों की क्या बात करें, जो रजस और तमस में हैं । उनकी स्थिति सबसे घृणित है । जघन्य-गुण-वृत्ति-स्था अधो गच्छन्ति तामसा: (भ.गी. १४.१८) जो तामसिक गुण में हैं, जघन्य, बहुत घृणित अवस्था में हैं । तो वर्तमान समय में... यही शूद्र है । कलौ शूद्र-सम्भव: |

कली के इस युग में, हर कोई तामसिक गुण में है । शूद्र । वे नहीं जानते क्योंकि... जो जानता है कि "मैं आत्मा हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ," वह ब्राह्मण है । और जो नहीं जानता है, वह शूद्र, कृपण है । एतद विदित प्राये स ब्राह्मण । हर कोई मर जाता है, यह ठीक है, लेकिन आध्यात्मिक सच्चाई जानने के बाद जो मरता है... जैसे यहाँ, जो छात्र आध्यात्मिक जीवन क्या है यह समझने की कोशिश कर रहे हैं, और, किसी न किसी तरह से, वे समझ जाता है कि वह अात्मा है, कम से कम, तब वह ब्राह्मण बन जाता है । वह ब्राह्मण बन जाता है । एतद विदित । और जो नहीं समझता हैं, वह एक कृपण है । कृपण का मतलब है कंजूस । ब्राह्मण का मतलब है उदार । ये शास्त्रिक अादेश है ।

तो सब से पहले, हमें ब्राह्मण बनना है । फिर वैष्णव । ब्राह्मण बस जानता है कि "मैं आत्मा हूँ " अहम ब्रह्मास्मि । ब्रह्म जानाती इति ब्राह्मण । ब्रह्म भूत प्रसन्नात्मा (भ.गी. १८.५४) | ऐसे ज्ञान से हम प्रसन्नात्मा बन जाते हैं । मतलब राहत महसूस करते हैं । जैसे तुम राहत महसूस करते हो... अगर तुम्हारे सिर पर बोझ है, और बोझ हटा दिया जाया है, तो तुम राहत महसूस करते हो, इसी प्रकार, यह अज्ञान कि "मैं यह शरीर नहीं हूँ" एक महान बोझ है, हम पर एक बोझ है । तो जब इस बोझ से हम बाहर निकलते हैं, तो तुम्हे सुकून मिलता है । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा (भ.गी. १८.५४) |

मतलब है कि वास्तव में हब हम समझते हैं कि "मैं आत्मा हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ," तब उसे इस शरीर को बनाए रखने के लिए इतनी मेहनत से काम करना पडता है, तो उसे राहत मिलती है कि "क्यों मैं भौतिक चीज़ों के लिए इतनी मेहनत से काम कर रहा हूँ? मुझे मेरे जीवन की वास्तविक आवश्यकता पर अमल करना है, आध्यात्मिक जीवन ।" यही बड़ी राहत है । यही बड़ी राहत है । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति (भ.गी. १८.५४) | राहत का मतलब है, कोई उत्कंठा नहीं, कोई विलाप नहीं । ये ब्रह्म-भूत: है ।