HI/Prabhupada 0580 - हम भगवान की मंजूरी के बिना हमारी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं: Difference between revisions

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सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो: मैं हर किसी के हृदय में अासीन हूँ ।" भगवान का पता लगाअो, कृष्ण का पता लगाअो । कई स्थानों में, सभी वैदिक साहित्य, गुहायाम । गुहायाम का मतलब है हृदय में । सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो: मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ([[Vanisource:BG 18.61|भ गी १८।६१]]) परम निदेशक, श्री कृष्ण, वहाँ अासीन हैं, और वे निर्देशन कर रहे हैं, "अब यह जीव अपनी इच्छा इस तरह से पूरा करना चाहता है ।" वह भौतिक प्रकृति को दिशा दे रहे हैं । "अब, इस तरह एक वाहन तैयार करो, शरीर, इस बदमाश के लिए । वह आनंद लेना चाहता है । ठीक है, उसे आनंद लेने दो ।" यह चल रहा है । हम सभी दुष्ट हैं, हम हमारे जीवन के अलग अलग तरीकों का निर्माण कर रहे हैं । "मुझे लगता है ।" तो तुम सोच रहे हो । जैसे ही तुम सोच रहे हो... लेकिन हम भगवान की मंजूरी के बिना हमारी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं । यह संभव नहीं है । लेकिन क्योंकि हम ज़ोर दे रहे हैं, कि "मैं इस तरह से अपनी इच्छा को पूरा करना चाहता हूँ," कृष्ण मंजूरी दे रहे हैं, "ठीक है ।" जैसे कि एक बच्चा कुछ पाने के लिए हठ करता है । पिता देते हैं, "ठीक है, ले लो ।" तो हमें जो यह शरीर मिल रहे हैं, हालांकि परम भगवान की मंजूरी से, लेकिन वे अनिच्छा के साथ मंजूरी दे रहे हैं कि "क्यों यह बदमाश इस तरह से चाहता है ?" यह हमारी स्थिति है । इसलिए, अंत में कृष्ण कहते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) "'इस धूर्तता को छोडो, 'मुझे इस तरह का शरीर चाहिए, मैं इस तरह से जीवन का आनंद लेना चाहता हूँ' यह सब बकवास छोड दो ।"
सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्टो: मैं हर किसी के हृदय में अासीन हूँ ।" भगवान का पता लगाअो, कृष्ण का पता लगाअो । कई स्थानों में, सभी वैदिक साहित्य, गुहायाम । गुहायाम का मतलब है हृदय में । सर्वस्य चाहम ह्रदि सन्निविष्टो: मत्त: स्मृतिर ज्ञानम अपोहनम च ([[HI/BG 15.15|भ.गी. १५.१५]]) | परम निदेशक, श्री कृष्ण, वहाँ अासीन हैं, और वे निर्देशन कर रहे हैं, "अब यह जीव अपनी इच्छा इस तरह से पूरा करना चाहता है ।" वह भौतिक प्रकृति को दिशा दे रहे हैं । "अब, इस तरह एक वाहन, शरीर, तैयार करो, इस बदमाश के लिए । वह आनंद लेना चाहता है । ठीक है, उसे आनंद लेने दो ।" यह चल रहा है ।  


तो यहाँ वैदिक साहित्य में हम पता लगता है कि भगवान और जीव, दोनों वे ह्दय में स्थित हैं । जीव, इच्छा करता है, और मालिक मंजूरी देता है, और प्रकृति या भौतिक प्रकृति यह शरीर दे रही है । "यहाँ शरीर है, तैयार, श्रीमान । यहां आओ ।" इसलिए हमारे उलझाव या मुक्ति का मूल कारण हमारी इच्छा है । हम जैसे इच्छा कर रहे हैं । अगर तुम चाहते हो, अगर तुम इच्छा करते हो जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग के इस निहितार्थ से मुक्त होने की, तो यह तैयार है । और अगर तुम इस निहितार्थ को जारी रखना चाहते हो, शरीर का परिवर्तन, तो वासांसि जीर्णानि ... क्योंकि तुम इस भौतिक शरीर में आध्यात्मिक जीवन का आनंद नहीं ले सकते हो । तुम इस भौतिक शरीर के साथ इस भौतिक संसार का आनंद ले सकते हो । अौर अगर तुम आध्यात्मिक जीवन का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हे आध्यात्मिक शरीर में आनंद लेना होगा । लेकिन क्योंकि हमें आध्यात्मिक जीवन की कोई जानकारी नहीं है, आध्यात्मिक आनंद, हम सिर्फ इस दुनिया का आनंद लेने के इच्छुक हैं । पुन: पुनश् चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्री भ ७।५।३०]]) चबाए हुए को चबाना । वही यौण, वही आदमी और औरत, वे घर पर आनंद ले रहे हैं । वही फिर से नग्न नृत्य के लिए जाते हैं । वस्तु वही है, सेक्स, यहॉ या वहॉ । लेकिन वे सोच रहे हैं "अगर मैं थिएटर या नग्न नृत्य के लिए जाऊँ, यह बहुत ही सुखद होगा ।" तो यह कहा जाता है पुन: पुनश् चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्री भ ७।५।३०]]) चबाए हुए को चबाना । घर पर वही सेक्स जीवन, चबाना, और नग्न क्लब में जाना, चबाना । चबाए हुए को ही चबाना । कोई रस नहीं है । कोई रस नहीं है, इसलिए वे निराश हो जाते हैं । क्योंखि बात वही है । जैसे तुम एक गन्ने को चूसते हो और उसका रस बाहर निकालते हो, अौर अगर तुम फिर से चूसोगे, तो तुम्हे क्या मिलेगा ? लेकिन वे इतनी मंद बुद्धि के हैं, बदमाश, वे नहीं जानते । वे पाने की कोशिश कर रहे हैं, मेरे कहने का मतलब है, खुशी जो पहले से भोग की जा चुकी है, पहले से ही चखी गई है । पुन: पुनश् चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्री भ ७।५।३०]]) । अदान्त-गोभिर विशताम तमिश्रम पुन: पुनश् चर्वित-चर्वणानाम । एक इंसान ... तुम पाअोगे कि जब कुत्ते, वे यौन जीवन करते हैं, उन्हे कोई शर्म नहीं है । तो, कई कामुक लोग खड़े होकर देखते हैं । देखने का मतलब है कि वे तैयार हैं, " काश मैं इस तरह से सड़क में मजा ले सकता ।" और कभी कभी वे लेते भी हैं । यह चल रहा है । पुनश् चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्री भ ७।५।३०]]) ।
हम सभी दुष्ट हैं, हम हमारे जीवन के अलग अलग तरीकों का निर्माण कर रहे हैं । "मुझे लगता है ।"  तो तुम सोच रहे हो । जैसे ही तुम सोच रहे हो... लेकिन हम भगवान की मंजूरी के बिना हमारी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं । यह संभव नहीं है । लेकिन क्योंकि हम ज़ोर दे रहे हैं, कि "मैं इस तरह से अपनी इच्छा को पूरा करना चाहता हूँ," कृष्ण मंजूरी दे रहे हैं, "ठीक है ।" जैसे कि एक बच्चा  कुछ पाने के लिए हठ करता है । पिता देते हैं, "ठीक है, ले लो ।"
 
तो हमें जो यह शरीर मिल रहे हैं, हालांकि परम भगवान की मंजूरी से, लेकिन वे अनिच्छा के साथ मंजूरी दे रहे हैं कि "क्यों यह बदमाश इस तरह से चाहता है ?" यह हमारी स्थिति है । इसलिए, अंत में कृष्ण कहते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) "'इस धूर्तता को छोडो, 'मुझे इस तरह का शरीर चाहिए, मैं इस तरह से जीवन का आनंद लेना चाहता हूँ' - यह सब बकवास छोड दो ।"
 
तो यहाँ वैदिक साहित्य में हमें पता लगता है कि भगवान और जीव, दोनों वे हृदय में स्थित हैं । जीव, इच्छा करता है, और मालिक मंजूरी देता है, और प्रकृति या भौतिक प्रकृति यह शरीर दे रही है । "यहाँ शरीर है, तैयार, श्रीमान । यहां आओ ।" इसलिए हमारे उलझाव या मुक्ति का मूल कारण हमारी इच्छा है । हम जैसे इच्छा कर रहे हैं । अगर तुम चाहते हो, अगर तुम इच्छा करते हो जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग के इस निहितार्थ से मुक्त होने की, तो यह तैयार है । और अगर तुम इस निहितार्थ को जारी रखना चाहते हो, शरीर का परिवर्तन, तो वासांसि जीर्णानि... क्योंकि तुम इस भौतिक शरीर में आध्यात्मिक जीवन का आनंद नहीं ले सकते हो । तुम इस भौतिक शरीर के साथ इस भौतिक संसार का आनंद ले सकते हो । अौर अगर तुम आध्यात्मिक जीवन का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हे आध्यात्मिक शरीर में आनंद लेना होगा । लेकिन क्योंकि हमें आध्यात्मिक जीवन, आध्यात्मिक आनंद, की कोई जानकारी नहीं है, हम सिर्फ इस दुनिया का आनंद लेने के इच्छुक हैं ।  
 
पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्रीमद भागवतम ७.५.३०]]), चबाए हुए को चबाना । वही यौन, वही आदमी और औरत, वे घर पर आनंद ले रहे हैं । वही फिर से नग्न नृत्य के लिए जाते हैं । वस्तु वही है, यौन सम्बन्ध, यहॉ या वहॉ । लेकिन वे सोच रहे हैं "अगर मैं थिएटर या नग्न नृत्य के लिए जाऊँ, यह बहुत ही सुखद होगा ।" तो यह कहा जाता है पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्रीमद भागवतम ७.५.३०]]), चबाए हुए को चबाना । घर पर वही यौन जीवन, चबाना, और नग्न क्लब में जाना, चबाना । चबाए हुए को ही चबाना । कोई रस नहीं है । कोई रस नहीं है, इसलिए वे निराश हो जाते हैं । क्योंकि चीज़ वही है । जैसे तुम एक गन्ने को चूसते हो और उसका रस बाहर निकालते हो, अौर अगर तुम फिर से चूसोगे, तो तुम्हे क्या मिलेगा ? लेकिन वे इतनी मंद बुद्धि के हैं, बदमाश, वे नहीं जानते । वे पाने की कोशिश कर रहे हैं, मेरे कहने का मतलब है, खुशी जो पहले से भोग की जा चुकी है, पहले से ही चखी गई है ।  
 
पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्रीमद भागवतम ७.५.३०]]) । अदान्त-गोभिर विशताम तमिश्रम पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम । एक इंसान... तुम पाअोगे कि जब कुत्ते, वे यौन जीवन करते हैं, उन्हे कोई शर्म नहीं है । तो, कई कामुक लोग खड़े होकर देखते हैं । देखने का मतलब है कि वे तैयार हैं, "काश मैं इस तरह से सड़क में मजा ले सकता ।" और कभी कभी वे लेते भी हैं । यह चल रहा है । पुनश चर्वित-चर्वणानाम ([[Vanisource:SB 7.5.30|श्रीमद भागवतम ७.५.३०]]) ।  
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Latest revision as of 18:53, 17 September 2020



Lecture on BG 2.21-22 -- London, August 26, 1973

सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्टो: मैं हर किसी के हृदय में अासीन हूँ ।" भगवान का पता लगाअो, कृष्ण का पता लगाअो । कई स्थानों में, सभी वैदिक साहित्य, गुहायाम । गुहायाम का मतलब है हृदय में । सर्वस्य चाहम ह्रदि सन्निविष्टो: मत्त: स्मृतिर ज्ञानम अपोहनम च (भ.गी. १५.१५) | परम निदेशक, श्री कृष्ण, वहाँ अासीन हैं, और वे निर्देशन कर रहे हैं, "अब यह जीव अपनी इच्छा इस तरह से पूरा करना चाहता है ।" वह भौतिक प्रकृति को दिशा दे रहे हैं । "अब, इस तरह एक वाहन, शरीर, तैयार करो, इस बदमाश के लिए । वह आनंद लेना चाहता है । ठीक है, उसे आनंद लेने दो ।" यह चल रहा है ।

हम सभी दुष्ट हैं, हम हमारे जीवन के अलग अलग तरीकों का निर्माण कर रहे हैं । "मुझे लगता है ।" तो तुम सोच रहे हो । जैसे ही तुम सोच रहे हो... लेकिन हम भगवान की मंजूरी के बिना हमारी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं । यह संभव नहीं है । लेकिन क्योंकि हम ज़ोर दे रहे हैं, कि "मैं इस तरह से अपनी इच्छा को पूरा करना चाहता हूँ," कृष्ण मंजूरी दे रहे हैं, "ठीक है ।" जैसे कि एक बच्चा कुछ पाने के लिए हठ करता है । पिता देते हैं, "ठीक है, ले लो ।"

तो हमें जो यह शरीर मिल रहे हैं, हालांकि परम भगवान की मंजूरी से, लेकिन वे अनिच्छा के साथ मंजूरी दे रहे हैं कि "क्यों यह बदमाश इस तरह से चाहता है ?" यह हमारी स्थिति है । इसलिए, अंत में कृष्ण कहते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य (भ.गी. १८.६६) "'इस धूर्तता को छोडो, 'मुझे इस तरह का शरीर चाहिए, मैं इस तरह से जीवन का आनंद लेना चाहता हूँ' - यह सब बकवास छोड दो ।"

तो यहाँ वैदिक साहित्य में हमें पता लगता है कि भगवान और जीव, दोनों वे हृदय में स्थित हैं । जीव, इच्छा करता है, और मालिक मंजूरी देता है, और प्रकृति या भौतिक प्रकृति यह शरीर दे रही है । "यहाँ शरीर है, तैयार, श्रीमान । यहां आओ ।" इसलिए हमारे उलझाव या मुक्ति का मूल कारण हमारी इच्छा है । हम जैसे इच्छा कर रहे हैं । अगर तुम चाहते हो, अगर तुम इच्छा करते हो जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग के इस निहितार्थ से मुक्त होने की, तो यह तैयार है । और अगर तुम इस निहितार्थ को जारी रखना चाहते हो, शरीर का परिवर्तन, तो वासांसि जीर्णानि... क्योंकि तुम इस भौतिक शरीर में आध्यात्मिक जीवन का आनंद नहीं ले सकते हो । तुम इस भौतिक शरीर के साथ इस भौतिक संसार का आनंद ले सकते हो । अौर अगर तुम आध्यात्मिक जीवन का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हे आध्यात्मिक शरीर में आनंद लेना होगा । लेकिन क्योंकि हमें आध्यात्मिक जीवन, आध्यात्मिक आनंद, की कोई जानकारी नहीं है, हम सिर्फ इस दुनिया का आनंद लेने के इच्छुक हैं ।

पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम (श्रीमद भागवतम ७.५.३०), चबाए हुए को चबाना । वही यौन, वही आदमी और औरत, वे घर पर आनंद ले रहे हैं । वही फिर से नग्न नृत्य के लिए जाते हैं । वस्तु वही है, यौन सम्बन्ध, यहॉ या वहॉ । लेकिन वे सोच रहे हैं "अगर मैं थिएटर या नग्न नृत्य के लिए जाऊँ, यह बहुत ही सुखद होगा ।" तो यह कहा जाता है पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम (श्रीमद भागवतम ७.५.३०), चबाए हुए को चबाना । घर पर वही यौन जीवन, चबाना, और नग्न क्लब में जाना, चबाना । चबाए हुए को ही चबाना । कोई रस नहीं है । कोई रस नहीं है, इसलिए वे निराश हो जाते हैं । क्योंकि चीज़ वही है । जैसे तुम एक गन्ने को चूसते हो और उसका रस बाहर निकालते हो, अौर अगर तुम फिर से चूसोगे, तो तुम्हे क्या मिलेगा ? लेकिन वे इतनी मंद बुद्धि के हैं, बदमाश, वे नहीं जानते । वे पाने की कोशिश कर रहे हैं, मेरे कहने का मतलब है, खुशी जो पहले से भोग की जा चुकी है, पहले से ही चखी गई है ।

पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम (श्रीमद भागवतम ७.५.३०) । अदान्त-गोभिर विशताम तमिश्रम पुन: पुनश चर्वित-चर्वणानाम । एक इंसान... तुम पाअोगे कि जब कुत्ते, वे यौन जीवन करते हैं, उन्हे कोई शर्म नहीं है । तो, कई कामुक लोग खड़े होकर देखते हैं । देखने का मतलब है कि वे तैयार हैं, "काश मैं इस तरह से सड़क में मजा ले सकता ।" और कभी कभी वे लेते भी हैं । यह चल रहा है । पुनश चर्वित-चर्वणानाम (श्रीमद भागवतम ७.५.३०) ।